चक्र - स - वर्ष का सत्ताइसवाँ इतवार



पहला पाठ : हबक्कूक 1:2-3;2:2-4

2) प्रभु! मैं कब तक पुकारता रहूँगा और तू अनसुनी करता रहेगा? मैं कब तक तेरी दुहाई देता रहूँगा और तू बचाने नहीं आयेगा?

3) तू क्यों मुझे पापाचार दिखाता है? क्यों मुझे अत्याचार देखना पडता है? लूटपात और हिंसा मेरे सामने हैं। चारों ओर लडाई-झगडे होते रहते हैं।

2:2) प्रभु ने उत्तर में मुझ से यह कहा, "जो दृश्य तुम देखने वाले हो, उसे स्पष्ट रूप से पाटियों पर लिखो, जिससे सब उसे सुगमता से पढ सकें;

3) क्योंकि वह भविय का दृश्य है, जो निश्चित समय पर पूरा होने वाला है। यदि उस में देर हो जाये, तो उसकी प्रतीक्षा करते रहो, क्योंकि वह अवश्य ही पूरा हो जायेगा। जो दृष्ट है, वह नष्ट हो जायेगा।

4) जो धर्मी है, वह अपनी धार्मिकता के कारण सुरक्षित रहेगा।

दूसरा पाठ : 2तिमथी 1:6-8,13-14

6) मैं तुम से अनुरोध करता हूँ कि तुम ईश्वरीय वरदान की वह ज्वाला प्रज्वलित बनाये रखो, जो मेरे हाथों के आरोपण से तुम में विद्यमान है।

7) ईश्वर ने हमें भीरुता का नहीं, बल्कि सामर्थ्य, प्रेम तथा आत्मसंयम का मनोभाव प्रदान किया।

8) तुम न तो हमारे प्रभु का साक्ष्य देने में लज्जा अनुभव करो और न मुझ से, जो उनके लिए बन्दी हूँ, बल्कि ईश्वर के सामर्थ्य पर भरोसा रख कर तुम मेरे साथ सुसमाचार के लिए कष्ट सहते रहो।

13) जो प्रामाणिक शिक्षा तुम को मुझ से मिली, उसे अपना मापदण्ड मान लो और ईसा मसीह के प्रति विश्वास तथा प्रेम से दृढ़ बने रहो।

14) जो निधि तुम्हें सौंपी गयी, उसे हम में निवास करने वाले पवित्र आत्मा की सहायता से सुरक्षित रखो।

सुसमाचार : सन्त लूकस 17:5-10

5) प्रेरितों ने प्रभु से कहा, "हमारा विश्वास बढ़ाइए"।

6) प्रभु ने उत्तर दिया, "यदि तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर भी होता और तुम शहतूत के इस पेड़ से कहते, ‘उखड़ कर समुद्र में लग जा’, तो वह तुम्हारी बात मान लेता।

7) "यदि तुम्हारा सेवक हल जोत कर या ढोर चरा कर खेत से लौटता है, तो तुम में ऐसा कौन है, जो उससे कहेगा, "आओ, तुरन्त भोजन करने बैठ जाओ’?

8) क्या वह उस से यह नहीं कहेगा, ‘मेरा भोजन तैयार करो। जब तक मेरा खाना-पीना न हो जाये, कमर कस कर परोसते रहो। बाद में तुम भी खा-पी लेना’?

9) क्या स्वामी को उस नौकर को इसीलिए धन्यवाद देना चाहिए कि उसने उसकी आज्ञा का पालन किया है?

10) तुम भी ऐसे ही हो। सभी आज्ञाओं का पालन करने के बाद तुम को कहना चाहिए, ‘हम अयोग्य सेवक भर हैं, हमने अपना कर्तव्य मात्र पूरा किया है’।"

मनन-चिंतन

जब प्रेरितों ने प्रभु से कहा, "हमारा विश्वास बढ़ाइए", तब प्रभु ने उत्तर दिया, "यदि तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर भी होता और तुम शहतूत के इस पेड़ से कहते, ‘उखड़ कर समुद्र में लग जा’, तो वह तुम्हारी बात मान लेता।“ ऐसा लगता है कि येसु उनसे कह रहे थे कि जब तुम्हारे पास विश्वास ही नहीं है, तो उसे बढ़ाने की बात कैसे कर रहे हो? जब गाडी चालू ही नहीं है, तो उसकी स्पीड बढ़ाने को कैसे कह सकते हो? थोड़ा-सा विश्वास भी कितने बडे चमत्कार कर सकता है! वास्तव में हमें प्रभु से विश्वास की कृपा मिलने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। विश्चास ईश्वर की कृपा है। पवित्र बाइबिल कहती है, “सुनने से विश्वास उत्पन्न होता है और जो सुना जाता है, वह मसीह का वचन है”। जब हम प्रभु ईश्वर का वचन सुनते हैं, तब ईश्वर हमारे हृदय में स्वर्गराज का बीज बोता है। वह बीज हमारे हृदय में अंकुरित होता है, बढ़ता है और बहुत फल लाता है। आज के दिन हम यह जाँच करें कि क्या मेरे अन्दर थोड़ा-सा भी विश्वास है, मेरा विश्वास कितना पक्का है, क्या विश्वास की शक्ति को मैं परखता हूँ। लूकस 18:7-8 में प्रभु कहते हैं, “क्या ईश्वर अपने चुने हुए लोगों के लिए न्याय की व्यवस्था नहीं करेगा, जो दिन-रात उसकी दुहाई देते रहते हैं? क्या वह उनके विषय में देर करेगा? मैं तुम से कहता हूँ - वह शीघ्र ही उनके लिए न्याय करेगा। परन्तु जब मानव पुत्र आयेगा, तो क्या वह पृथ्वी पर विश्वास बचा हुआ पायेगा?" मैं यह समझता हूँ कि प्रभु येसु उस बात की ओर संकेत रहे हैं कि आज दुनिया में विश्वास बढ़ नहीं रहा है, बल्कि घट रहा है। यह हमारे लिए चिंता का विषय है।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


When the apostles said to Jesus, “Increase our faith” Jesus responded saying, “If you had faith like a mustard seed you could say to this mulberry tree, “Be uprooted and planted in the sea,” it would obey you”. In other words, Jesus seems to say that there is no real basis for asking for an ‘increase’ of faith, when there is no faith at all (not even like a mustard seed). You can ask for an ‘increase’ only when there is something, some base. When a vehicle is still parked in the garage, how can we speak of increasing the speed. In fact, they are supposed to pray for obtaining faith from sources available. Faith is a free gift of God. The Bible says, “So faith comes from what is heard, and what is heard comes through the word of Christ” (Rom 10:17). When we listen to the Word of God, the Lord sows the seed of faith in us. That seed remains in us to grow and produce fruits. In Lk 19:7-8, the Lord says, “And will not God grant justice to his chosen ones who cry to him day and night? Will he delay long in helping them? I tell you, he will quickly grant justice to them. And yet, when the Son of Man comes, will he find faith on earth?” Is there not an indication in the word of the Lord that in today’s society faith is not increasing, but decreasing? We should be concerned about this indication from the Lord.

-Fr. Francis Scaria


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Praise the Lord!