चक्र - स - वर्ष का तीसवाँ इतवार



पहला पाठ : प्रवक्ता 35:12-14; 16-18

12) जिस प्रकार सर्वोच्च ईश्वर ने तुम्हें दिया है, उसकी प्रकार तुम भी उसे सामर्थ्य के अनुसार उदारतापूर्वक दो;

13) क्योंकि प्रभु प्रतिदान करता है, वह तुम्हें सात गुना लौटायेगा।

14) उसे घूस मत दो, वह उसे स्वीकार नहीं करता।

16) वह दरिद्र के साथ अन्याय नहीं करता और पद्दलित की पुकार सुनता है।

17) वह विनय करने वाले अनाथ अथवा अपना दुःखड़ा रोने वाली विधवा का तिरस्कार नहीं करता।

18) उसके आँसू उसके चेहरे पर झरते हैं और उसकी आह उत्याचारी पर अभियोग लगाती है।

दूसरा पाठ : 2तिमथी 4:6-8,16-18

6) मैं प्रभु को अर्पित किया जा रहा हूँ। मेरे चले जाने का समय आ गया है।

7) मैं अच्छी लड़ाई लड़ चुका हूँ, अपनी दौड़ पूरी कर चुका हूँ और पूर्ण रूप से ईमानदार रहा हूँ।

8) अब मेरे लिए धार्मिकता का वह मुकुट तैयार है, जिसे न्यायी विचारपति प्रभु मुझे उस दिन प्रदान करेंगे - मुझ को ही नहीं, बल्कि उन सब को, जिन्होंने प्रेम के साथ उनके प्रकट होने के दिन की प्रतीक्षा की है।

16) जब मुझे पहली बार कचहरी में अपनी सफाई देनी पड़ी, तो किसी ने मेरा साथ नहीं दिया -सब ने मुझे छोड़ दिया। आशा है, उन्हें इसका लेखा देना नहीं पड़ेगा।

17) परन्तु प्रभु ने मेरी सहायता की और मुझे बल प्रदान किया, जिससे मैं सुसमाचार का प्रचार कर सकूँ और सभी राष्ट्र उसे सुन सकें। मैं सिंह के मुँह से बच निकला।

18) प्रभु मुझे दुष्टों के हर फन्दे से छुड़ायेगा। वह मुझे सुरक्षित रखेगा और अपने स्वर्गराज्य तक पहुँचा देगा। उसी को अनन्त काल तक महिमा! आमेन!

सुसमाचार : सन्त लूकस 18:9-14

9) कुछ लोग बड़े आत्मविश्वास के साथ अपने को धर्मी मानते और दूसरों को तुच्छ समझते थे। ईसा ने ऐसे लोगों के लिए यह दृष्टान्त सुनाया,

10) "दो मनुष्य प्रार्थना करने मन्दिर गये, एक फ़रीसी और दूसरा नाकेदार।

11) फ़रीसी तन कर खड़ा हो गया और मन-ही-मन इस प्रकार प्रार्थना करता रहा, ’ईश्वर! मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ कि मैं दूसरे लोगों की तरह लोभी, अन्यायी, व्यभिचारी नहीं हूँ और न इस नाकेदार की तरह ही।

12) मैं सप्ताह में दो बार उपवास करता हूँ और अपनी सारी आय का दशमांश चुका देता हूँ।’

13) नाकेदार कुछ दूरी पर खड़ा रहा। उसे स्वर्ग की ओर आँख उठाने तक का साहस नहीं हो रहा था। वह अपनी छाती पीट-पीट कर यह कह रहा था, ‘ईश्वर! मुझ पापी पर दया कर’।

14) मैं तुम से कहता हूँ - वह नहीं, बल्कि यही पापमुक्त हो कर अपने घर गया। क्योंकि जो अपने को बड़ा मानता है, वह छोटा बनाया जायेगा; परन्तु जो अपने को छोटा मानता है, वह बड़ा बनाया जायेगा।"

मनन-चिंतन

फरीसी और नाकेदार का दृष्टांत बताता है कि हम छोटे से छोटे से वरदान को खरीद नहीं सकते हैं। अनुग्रह मुफ़्त है; हम उसके लिए भुगतान नहीं कर सकते, न ही हम उसका हकदार बनने का दावा कर सकते हैं। स्वयं को धार्मिक मानने वाला व्यवहार हमें सब कुछ खोने के खतरे में डाल सकता है। धार्मिक प्रथाओं तथा अनुष्ठानों से हम ईश्वर के अनुग्रहों के लिए भुगतान नहीं कर सकते है। सभी धार्मिक अनुष्ठान हमें अपने महान और दयालु ईश्वर द्वारा हम पर बरसाने वाले अनुग्रहों की प्राप्ति के योग्य बना सकते हैं। नाकेदार स्तोत्रकार के साथ मिल कर सवाल करते हैं, "प्रभु! यदि तू हमारे अपराधों को याद रखेगा, तो कौन टिका रहेगा?" (स्तोत्र 130: 3) उसके पास दावा करने के लिए कुछ भी नहीं है। वह बस ईश्वर की दया के लिए खुद को प्रस्तुत करता है। केवल विनम्रता ही हमारी प्रार्थना को ईश्वर के समक्ष स्वीकृति के योग्य बनाती है। विनम्रता हमें दूसरों को स्वीकार करने और उनकी सराहना करने में सक्षम भी बनाती है। संत पौलुस कहते हैं, "आप दलबन्दी तथा मिथ्याभिमान से दूर रहें। हर व्यक्ति नम्रतापूर्वक दूसरों को अपने से श्रेष्ठ समझे।" (फिलिप्पियों 2: 3)।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


SHORT REFLECTION

The parable of the Pharisee and the tax collector tells us that we cannot pay for even the smallest of graces. Grace is gratuitous; we cannot pay for it, nor can we claim it. Self-righteous behavior can place us in danger of losing everything. Religious practices are not meant to be payments for graces. They are meant to create an adequate disposition to receive graces that are freely lavished upon us by our great and merciful God. The tax collector seems to join the psalmist in asking, “If you, O Lord, should mark iniquities, Lord, who could stand?” (Ps 130:3) He has nothing to claim for. He simply submits himself to the mercy of God. Only humility makes our prayer worthy of acceptance before God. It is humility that enables us to accept and appreciate others. St. Paul says, “Do nothing from selfish ambition or conceit, but in humility regard others as better than yourselves” (Phil 2:3).

-Fr. Francis Scaria


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Praise the Lord!