22 फरवरी

प्रेरित सन्त पेत्रुस का धर्मासन

पहला पाठ: पेत्रुस का पहला पत्र 5:1-4

1) आप लोगों में जो अध्यक्ष हैं, उन से मेरा एक अनुरोध है। मैं भी अध्यक्ष हूँ, मसीह के दुःखभोग का साक्षी और भविष्य में प्रकट होने वाली महिमा का सहभागी।

2) आप लोगों को ईश्वर का जो झुण्ड सौंपा गया, उसका चरवाहा बनें, ईश्वर की इच्छा के अनुसार उसकी देखभाल करें -लाचारी से नहीं, बल्कि खुशी से; घिनावने लाभ के लिए नहीं, बल्कि सेवाभाव से;

3) अपने सौंपे हुए लोगों पर अधिकार जता कर नहीं, बल्कि झुण्ड के लिए आदर्श बन कर,

4) और जिस समय प्रधान चरवाहा प्रकट हो जायेगा, आप लोगों को कभी न मुरझाने वाली महिमा की माला पहना दी जायेगी।

सुसमाचार : सन्त मत्ती 16:13-19

13) ईसा ने कैसरिया फि़लिपी प्रदेश पहुँच कर अपने शिष्यों से पूछा, ’’मानव पुत्र कौन है, इस विषय में लोग क्या कहते हैं?’’

14) उन्होंने उत्तर दिया, ’’कुछ लोग कहते हैं- योहन बपतिस्ता; कुछ कहते हैं- एलियस; और कुछ लोग कहते हैं- येरेमियस अथवा नबियों में से कोई’’।

15) ईस पर ईसा ने कहा, ’’और तुम क्सा कहते हो कि मैं कौन हूँ?

16) सिमोन पुत्रुस ने उत्तर दिया, ’’आप मसीह हैं, आप जीवन्त ईश्वर के पुत्र हैं’’।

17) इस पर ईसा ने उस से कहा, ’’सिमोन, योनस के पुत्र, तुम धन्य हो, क्योंकि किसी निरे मनुष्य ने नहीं, बल्कि मेरे स्वर्गिक पिता ने तुम पर यह प्रकट किया है।

18) मैं तुम से कहता हूँ कि तुम पेत्रुस अर्थात् चट्टान हो और इस चट्टान पर मैं अपनी कलीसिया बनाऊँगा और अधोलोक के फाटक इसके सामने टिक नहीं पायेंगे।

19) मैं तुम्हें स्वर्गराज्य की कुंजिया प्रदान करूँगा। तुम पृथ्वी पर जिसका निषेध करोगे, स्वर्ग में भी उसका निषेध रहेगा और पृथ्वी पर जिसकी अनुमति दोगे, स्वर्ग में भी उसकी अनुमति रहेगी।’’

फादर रोनाल्ड वाँन

📚 मनन-चिंतन

सुसमाचार में एक जगह है जहाँ येसु बिना किसी हिचक के ये कह सकते हैं - "मैं भूखा था ... मैं प्यासा था ... मैं एक अजनबी था ... मैं नग्न था ... मैं बीमार था ... मैं जेल में था " और वह स्थान है गोलगोथा या कलवारी। उस अवसर पर, उन्होंने जो एकमात्र मानवीय सहायता का अनुभव किया, वो थी उनकी प्रिय माता, और उनका प्रिय शिष्य। यह उनके दुखभोग व मृत्यु का पल था।

आज के सुसमाचार में येसु हमें बतलाते हैं कि वे भूखों, प्यासों, अजनबियों, नग्न, बीमार, अथवा कैदियों के जीवन में आज भी अपना दुखभोग जारी रखते हैं। यसु हमसे कह रहे हैं कि जब कभी हम किसी टूटे हुए, कमजोर, ज़रूरतमंद इंसान के सामने खड़े हैं तो खुद को क्रूस के पायदान पर पाते हैं। अँगरेज़ी में एक गीत है जिसे चालीसा काल में गाया जाता है जिसका हिंदी अनुवाद है - 'जब उन्होंने मेरे येसु को सूली चढ़ाया तब क्या तुम वहां पर थे ?' आज के सुसमाचार के प्रकाश में हमें इस प्रश्न का’ हां ’में जवाब देना होगा। हम वहां थे और हम वहां हैं, जब भी कोई अपनी टूटी-फूटी, कमजोर और घायल ज़िन्दगी लेकर हमारे सामने आता है, तब हम उस व्यक्ति में वशेष रूप से येसु से मिलते हैं, और या तो हम उस व्यक्ति में येसु की सेवा करते हैं या इसमें असफल हो जाते हैं । आज मेरे समाने ज़रूरतमंद, दुखित, पीड़ित येसु दुःख भोग रहा है मैं उनके लिए क्या करूँ?


-फादर प्रीतम वसूनिया (इन्दौर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION


There is one place in the Gospels where Jesus could have said of himself without hesitation, ‘I was hungry… I was thirsty… I was a stranger… I was naked… I was sick… I was in prison’. That place was Golgotha or Calvary, as Jesus hung upon the cross. On that occasion, the only human support he experienced was from the women who stood by the cross and, according to the fourth gospel, the beloved disciple. This was the hour of his passion and death.

In this morning’s Gospel reading Jesus suggests that he continues to live out his passion in the lives of all those who are hungry, thirsty, who are strangers, who are naked, sick and imprisoned. Jesus is saying that when we are in the presence of a broken, vulnerable human being we are at the foot of the cross. There is a song that is often sung in Holy Week, ‘Where you there when they crucified my Lord?’ In the light of this morning’s gospel reading we would have to answer ‘yes’ to that question. We were there and we are there, whenever someone comes before us in their brokenness, weakness and frailty. It is there we encounter the Lord in a very special way; it is there we serve him or fail to serve him. The Word became flesh and dwelt among us. ‘Flesh’ suggests the human condition in all its vulnerability and proneness to brokenness. It is there above all that the Lord comes to us and calls out to us.

-Fr. Preetam Vasuniya (Indore)


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Praise the Lord!