राख-बुधवार के बाद शुक्रवार



पहला पाठ : इसायाह 58:1-9

1) प्रभु-ईश्वर यह कहता है, “पूरी शक्ति से पुकारो, तुरही की तरह अपनी आवाज़ ऊँची करो- मेरी प्रजा को उसके अपराध और याकूब के वंश को उसके पाप सुनाओ।

2) वे मुझे प्रतिदिन ढूँढ़ते हैं और मेरे मार्ग जानना चाहते हैं। एक ऐसे राष्ट्र की तरह, जिसने धर्म का पालन किया हो और अपने ईश्वर की संहिता नहीं भुलायी हो, वे मुझ से सही निर्णय की आशा करते और ईश्वर का सान्निध्य चाहते हैं।

3 (वे कहते हैं) , ’हम उपवास क्यों करते हैं, जब तू देखता भी नहीं? हम तपस्या क्यों करते हैं, जब तू ध्यान भी नहीं देता। देखो, उपवास के दिनों में तुम अपना कारबार करते और अपने सब मजदूरों से कठोर परिश्रम लेते हो।

4) तुम उपवास के दिनों लड़ाई-झगड़ा करते और करारे मुक्के मारते हो। तुम आजकल जो उपवास करते हो, उस से स्वर्ग में तुम्हारी सुनवाई नहीं होगी।

5) क्या मैं इस प्रकार का उपवास, ऐसी तपस्या का दिन चाहता हूँ, जिस में मनुष्य सरकण्डे की तरह अपना सिर झुकाये और टाट तथा राख पर लेट जाये? क्या तुम इसे उपवास और ईश्वर का सुग्राह्î दिवस कहते हो?

6) मैं जो उपवास चाहता हूँ, वह इस प्रकार है- अन्याय की बेड़ियों को तोड़ना, जूए के बन्धन खोलना, पददलितों को मुक्त करना और हर प्रकार की गुलामी समाप्त करना।

7) अपनी रोटी भूखों के साथ खाना, बेघर दरिद्रों को अपने यहाँ ठहराना। जो नंगा है, उसे कपड़े पहनाना और अपने भाई से मुँह नहीं मोड़ना।

8) तब तुम्हारी ज्योति उषा की तरह फूट निकलेगी और तुम्हारा घाव शीघ्र ही भर जायेगा। तुम्हारी धार्मिकता तुम्हारे आगे-आगे चलेगी और ईश्वर की महिमा तुम्हारे पीछे-पीछे आती रहेगी।

9) यदि तुम पुकारोगे, तो ईश्वर उत्तर देगा। यदि तुम दुहाई दोगे, तो वह कहेगा-‘देखो, मैं प्रस्तुत हूँ‘। यदि तुम अपने बीच से अत्याचार दूर करोगे, किसी पर अभियोग नहीं लगाओगे और किसी की निन्दा नहीं करोगे;

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 9:14-15

14) इसके बाद योहन के शिष्य आये और यह बोले, "हम और फरीसी उपवास किया करते हैं। आपके शिष्य ऐसा क्यों नहीं करते?"

15) ईसा ने उन से कहा, "जब तक दूल्हा साथ है, क्या बाराती शोक मना सकते हैं? किन्तु वे दिन आयेंगे, जब दुल्हा उन से बिछुड़ जायेगा। उन दिनों वे उपवास करेंगे।

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार में प्रभु येसु हमसे कहते हैं कि उपवास करने और न करने का अपना समय है। वे स्वयं को एक दूल्हा बतलाते हैं और उनकी पूरी सेवकाई एक तरह से विवाहोत्सव की दावत है, जहाँ ईश्वर एक दूल्हे के रूप में अपनी दुल्हन अर्थात उनकी चुनी हुई प्रजा की खोज में आता है । शादी की दावत में उपवास की कोई जगह नहीं है। उपवास रखने की उनके शिष्यों के लिए कोई आवश्यकता नहीं थी । अपनी आगामी मृत्यु की ओर इशारे करते हुए प्रभु येसु कहते हैं की जब दूल्हा बिछुड़ जायेगा तब वे उपवास करेंगे।

उपदेशक ग्रन्थ में लिखा है - पृथ्वी पर हर बात का अपना वक्त और हर काम का अपना समय होता है:प्रसव करने का समय और मरने का समय; रोपने का समय और पौधा उखाड़ने का समय; इत्यादि 'और हम उनकी सूची में जोड़ सकते हैं, 'उपवास करने का समय और उपवास नहीं करने का समय'। परंपरागत रूप से चालीसा काल को उपवास का समय माना जाता है। यह एक ऐसा समय है जब हम खुद की पहचान उस येसु में करते हैं जो अपने दुखभोग, और मरण के लिए लिए येरुसलेम की ओर जाते हैं। नबी इसायाह के ग्रन्थ से लिया गया आज का पहला पाठ हमें याद दिलाता है कि हमारा उपवास हमेशा अन्य पारंपरिक तपस्याकाल की प्रथाओं में से एक, जरूरतमंद की सेवा या सेवा से जुड़ा होना चाहिए। इस पाठ के अनुसार, हमारा उपवास दलितों को मुक्त करने, भूखे को भोजन कराने, बेघर को आश्रय देने और नग्न को वस्त्र पहनाने की सेवा में हो । हम खुद के लिए मरते हैं ताकि दूसरों को अपना जीवन दे सकें। हम खुद को वंचित करते हैं ताकि जो लोग वंचित हैं उनके प्रति अधिक संवेदनशील बन सकें और अपने संसाधनों से उनकी सेवा कर सकें ।


-फादर प्रीतम वसूनिया (इन्दौर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION


Jesus’ words in the Gospel reading suggest that there is a time to fast and a time not to fast. He speaks of himself as the bridegroom, suggesting that his ministry is like a joyful wedding feast, when the divine bridegroom reaches out in love through Jesus to his bride, God’s people. There is no place for fasting at a wedding feast. There is no need for the bridegroom’s attendants, his disciples, to fast. However, alluding to his forthcoming death, he declares that the bridegroom will be taken away from his attendants and that will be an appropriate time to fast.

In the words of Qoheleth in the Jewish Scriptures, ‘there is a time for every matter under heaven’, and we could add to his list, ‘a time to fast and a time not to fast’. Lent has traditionally been understood as a time to fast. It is a time when we identify with Jesus on his way to Jerusalem, the city of his passion and death, the city where he was taken away from his disciples. The first reading from Isaiah reminds us that our fasting is always to be linked to one of the other traditional Lenten practices, almsgiving or service of the needy. According to that reading, our fasting is in the service of letting the oppressed go free, feeding the hungry, sheltering the hungry and clothing the naked. We die to ourselves so as to give to others. We deprive ourselves so as to become more sensitive to those who are deprived and to serve them from our resources.

-Fr. Preetam Vasuniya (Indore)


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