चालीसा काल का दूसरा सप्ताह, बुधवार



पहला पाठ : यिरमियाह 18:18-20

18) वे कहते हैं, “आओ! हम यिरमियाह के विरुद्ध षड्यन्त्र रचें। पुरोहितों से शिक्षा मिलती रहती है, बुद्धिमानों से सत्यपरामर्श और नबियों से भवियवाणी। आओ! हम उस पर झूठा आरोप लगायें, हम उसकी किसी भी बात पर ध्यान न दें।“

19) प्रभु! तू मेरी पुकार सुन, मेरे अभियोक्ताओं की बातों पर ध्यान दे।

20) क्या भलाई के बदले बुराई करना उचित है? वे मेरे लिए गड्ढा खोदते हैं। याद कर कि मैं उनके पक्ष में बोलने और उन पर से तेरा क्रोध दूर करने के लिए तेरे सामने खड़ा रहा।

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 20:17-28

17) ईसा येरुसालेम के मार्ग पर आगे बढ रहे थे। बारहों को अलग ले जा कर उन्होंने रास्ते में उन से कहा,

18) "देखो, हम येरुसालेम जा रहे हैं। मानव पुत्र महायाजकों और शास्त्रियों के हवाले कर दिया जायेगा।

19) वे उसे प्राणदण्ड की आज्ञा सुना कर गैर-यहूदियों के हवाले कर देंगे, जिससे वे उसका उपहास करें, उसे कोडे़ लगायें और क्रूस पर चढायें; लेकिन तीसरे दिन वह जी उठेगा।"

20) उस समय जेबेदी के पुत्रों की माता अपने पुत्रों के साथ ईसा के पास आयी और उसने दण्डवत् कर उन से एक निवेदन करना चाहा।

21) ईसा ने उस से कहा, "क्या चाहती हो?" उसने उत्तर दिया, "ये मेरे दो बेटे हैं। आप आज्ञा दीजिए कि आपके राज्य में एक आपके दायें बैठे और एक आपके बायें।"

22) ईसा ने उन से कहा, "तुम नहीं जानते कि क्या माँग रहे हो। जो प्याला मैं पीने वाला हूँ, क्या तुम उसे पी सकते हो?" उन्होंने उत्तर दिया, "हम पी सकते हैं।"

23) इस पर ईसा ने उन से कहा, "मेरा प्याला तुम पिओगे, किन्तु तुम्हें अपने दायें या बायें बैठने का अधिकार मेरा नहीं है। वे स्थान उन लोगों के लिए हैं, जिनके लिए मेरे पिता ने उन्हें तैयार किया है।"

24) जब दस प्रेरितों को यह मालूम हुआ, तो वे दोनों भाइयों पर क्रुद्ध हो गये।

25) ईसा ने अपने शिष्यों को अपने पास बुला कर कहा, "तुम जानते हो कि संसार के अधिपति अपनी प्रजा पर निरंकुश शासन करते हैं और सत्ताधारी लोगों पर अधिकार जताते हैं।

26) तुम में ऐसी बात नहीं होगी। जो तुम लोगों में बडा होना चाहता है, वह तुम्हारा सेवक बने

27) और जो तुम में प्रधान होना चाहता है, वह तुम्हारा दास बने;

28) क्योंकि मानव पुत्र भी अपनी सेवा कराने नहीं, बल्कि सेवा करने तथा बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण देने आया है।"

📚 मनन-चिंतन

ईश्वर की सेवा करने का मतलब यह है कि अत्यचार का सामना करना। इस दुनिया में जितनोंने निस्वर्थ रीती से ईश्वर की सेवा की हो, उन्हें अत्याचार का सामना करना पडा है। आज के पहले पाठ में हम पढते है कि जब यिरमियाह ईमानदारी से ईश्वर की बात रखते है तो अधर्मि लोग यिरमियाह के विरुद्ध षडयन्त्र रचते हैं। आज के सुसमाचार में भी येसु इस बात को रखते हुए कहते है कि उनको महायाजकों और शास्त्रियों द्वारा दुःख दर्द सहना पडेगा। इसका समर्थन करते हुए संत पौलूस कहते है कि वास्तव में जो लोग मसीह के शिष्य बन कर भक्तिपूर्वक जीवन बिताना चाहेंगे, उन सबों को अत्यचार सहना ही पडे़गा। (2 तिमथी 3:12); आपके यहॉ रहते समय हम आप से कहा करते थे कि विपत्तियॉ हम पर आ पडेगी (1 थेसलनीहकियों 3:4)। येसु ने भी कहा है मत्ती10:22 मेरे नाम के कारण सब लोग तुमसे बैर करेंगे, किन्तु जो अन्त तक धीर बना रहेगा, उसे मुक्ति मिलेगी।

इस कारण से ईश्वर की सेवा करने से हम पीछे न हटे। ईश्वर की सेवा करते हुए अत्यचार सहन्ना सौभाग्य की बात है क्योंकि इसके द्वारा ही हमें अन्नंत जीवन प्राप्त होते हैं। संत पौलूस कहते है कि कोई भी इन विपत्तियों के कारण विचलित न हो। आप लोग जानते हैं कि यही हमारे भाग्य में है (1 थेसलनीकियों 3:3)। येसु स्वयं कहते है धन्य हो तुम, जब लोग मेरे कारण तुम्हारा अपमान करते हैं, तुम पर अत्याचार करते और तरह तरह के झूठे दोष लगाते हैं। खुश हो और आनन्द मनाओ स्वर्ग में तुम्हें महान पुरस्कार प्राप्त होगा। (मत्ती 5:11-12)

अगर हमारा जीवन सबसे सुन्दर बनाना है तो हमें ईश्वर केलिए, ईश्वर के राज्य के लिए अपना जीवन समर्पित करना होगा। जीवन देने वाला ईश्वर है इसलिए उनको ही देना सबसे उत्तम है। येसु ने कहा है कि जो मेरा अनुसरण करना चाहता है, वह आत्मत्याग करे और अपना क्रुस उठाकर मेरे पीछे हो ले; क्योंकि जो अपना जीवन सुरक्षित रखना चाहता है, वह उसे खो देगा और जो मेरे कारण अपना जीवन खो देता है, वह उसे सुरक्षित रखेगा। (मत्ती 16:24-25) संत पौलूस कहते है- किन्तु मेरी दृष्टि में मेरे जीवन का कोई मूल्य नहीं। मैं तो केवल अपनी दौड समाप्त करना और ईश्वर की कृपा का सुसमाचार सुनाने का वह कार्य पूरा करना चाहता हॅू, जिसे प्रभु ईसा ने मुझे सौंपा। (प्रेरित चरित 20:24) हम भी इसी मनोभाव के साथ हमारा जीवन को चलाये। प्रभु येसु का यह कथन याद रखना उचित हागा - जब तक गेहॅू का दाना मिट्टी में गिर कर नहीं मर जाता, तब तक वह अकेला ही रहता है; परन्तु यदि वह मर जाता है, तो बहुत फल देता है। जो अपने जीवन को प्यार करता है, वह उसका सर्वनाश करता है और जो इस संसार में अपने जीवन से बैर करता है, वह उसे अनन्त जीवन केलिए सुरक्षित रखता है। (योहन 12:24-25)

इसलिए हम अत्यचार से न डरें, बल्कि ईश्वर के लिए उनके राज्य केलिए अपना जीवन पूर्ण रुप से समर्पित करते हुए जीवन में आगे बढ़े। अगर ऐसा जीवन बिताये तो हम भी संत पौलूस के समान कह पायेंगे - मैं प्रभु को अर्पित किया जा रहा हॅू। मेरे चले जाने का समय आ गया है। मैं अच्छी लडाई लड़ चुका हॅू, अपनी दौड पूरी कर चुका हॅू और पूर्ण रुप से ईमानदार रहा हॅू। (2तिमथी 4:6-7)


-फादर शैलमोन आन्टनी


📚 REFLECTION


To serve the Lord is to face persecution. In this world all those who have served God sincerely they all had to face persecution. In today’s first reading we hear that when Jeremiah served the Lord by speaking the truth, his adversaries plotted against him to kill him. In the gospel also we hear Jesus saying that he came to do the will of God for that He will be delivered over to the chief priests and scribes, and they will condemn him to death. St. Paul affirms in 2Tim 3:12 by saying indeed, all who want to live a godly life in Christ Jesus will be persecuted. In 1 Thes 3:4 says In fact, when we were with you , we told you beforehand that we were to suffer persecution. Jesus also said the same thing to his disciples that you will be hated by all because of my name. But the one who endures to the end will be saved (Mt 10:22).

Because of this we should not withdraw from serving the Lord. It is a blessed thing to suffer for having served the Lord, because it through that we receive the eternal reward. St. Paul says in 2Tim 1:12 for this reason I suffer as I do. But I am not ashamed, for I know the one in whom I have put my trust, and I am sure that he is able to guard until that day what I have entrusted to him. “so that no one would be shaken by these persecutions. Indeed, you yourselves know that this is what we are destined for” (1Thess 3:3). In Mat 5:11-12 Jesus says- Blessed are you when people revile ou and persecute you and utter all kinds of evil against you falsely on my account. Rejoice and be glad, for your reward is great in heaven, for in the same way they persecuted the prophets who were before you’.

If we want to make our life most beautiful then we need to offer our life for Jesus and for his kingdom. God is the giver of life, therefore it is fitting to give that life to him. Jesus himself says in Mt 16:24-25 if any want to become my followers, let them deny themselves and take up their cross and follow me. For those who want to save their life will lose it, and those who lose their life for my sake will find it. St. Paul says in Acts 20:24 But I do not count my life of any value to myself, if only I may finish my course and the ministry that I received from the Lord Jesus, to testify to the good news of God’s grace.

Let’s also with this mind set run our life for Jesus. It is fitting to remember Jesus words- Jn 12:24-25very truly, I tell you, unless a grain of wheat falls into the earth and dies it remains just a single grain but if it dies, it bears much fruit. Those who love their life lose it, and those who hate their life in the world will keep it for eternal life.

Therefore let us not be afraid of persecution. Instead let us move ahead by offering our life for Jesus and for his kingdom. If we live a life like this we too will be able to say like St. Paul-as for me, I am already being poured out as a libation, and the time of my departure has come. I have fought the good fight, I have finished the race, I have kept the faith. (2Tim 4:6-7)

-Fr. Shellmon Antony


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Praise the Lord!