चालीसा काल का पाँचवाँ सप्ताह, शुक्रवार



पहला पाठ : यिरमियाह का ग्रन्थ 20:10-13

10) मैंने बहुतों को यह फुसफुसाते हुए सुना है- “चारों ओर आतंक फैला हुआ हैं। उस पर अभियोग लगाओ! हम उस पर अभियोग लगायें“। जो पहले मेरे मित्र थे, वे सब इस ताक में रहते हैं कि मैं कोई ग़लती कर बैठूँ और कहते हैं, “वह शायद भटक जायेगा और हम उस पर हावी हो कर उस से बदला लेंगे''।

11) परन्तु प्रभु एक पराक्रमी शूरवीर की तरह मेरे साथ हैं। मेरे विरोधी ठोकर खा कर गिर जायेंगे। वे मुझ पर हावी नहीं हो पायेंगे और अपनी हार का कटु अनुभव करेंगे। उनका अपयश सदा बना रहेगा।

12) विश्वमण्डल के प्रभु! तू धर्मी की परीक्षा करता और मन तथा हृदय की थाह लेता है। मैं अपने को तुझ पर छोड़ता हूँ। मैं दूखूँगा कि तू उन लोगों से क्या बदला लेता है।

13) प्रभु का गीत गाओ! प्रभु की स्तुति करो! क्योंकि वह दरिद्रों के प्राणों को दुष्टों के हाथ से छुडाता है।

सुसमाचार : सन्त योहन का सुसमाचार 10:31-42

31) यहँदियों ने ईसा को मार डालने के लिये फिर पत्थर उठाये।

32) ईसा ने उन से कहा, मैनें अपने पिता के सामर्थ्य से तुम लोगों के सामने बहुत से अच्छे कार्य किये हैं। उन में किस कार्य के लिये मुझे पत्थरों से मार डालना चाहते हो?

33) यहूदियों ने उत्तर दिया, किसी अच्छे कार्य के लिये नहीं, बल्कि ईश-निन्दा के लिये हम तुम को पत्थरों से मार डालना चाहते हैं क्योंकि तुम मनुष्य होकर अपने को ईश्वर मानते हो।

34) ईसा ने कहा, ’’क्या तुम लोगो की संहिता में यह नहीं लिखा है, मैने कहा तुम देवता हो?

35) जिन को ईश्वर का संदेश दिया गया था, यदि संहिता ने उन को देवता कहा- और धर्मग्रंथ की बात टल नहीं सकती-

36) तो जिसे पिता ने अधिकार प्रदान कर संसार में भेजा है, उस से तुम लोग यह कैसे कहते हो- तुम ईश-निन्दा करते हो; क्योंकि मैने कहा, मैं ईश्वर का पुत्र हूँ?

37) यदि मैं अपने पिता के कार्य नहीं करता, तो मुझ पर विश्वास न करो।

38) किन्तु यदि मैं उन्हें करता हूँ, तो मुझ पर विश्वास नहीं करने पर भी तुम कार्यों पर ही विश्वास करो, जिससे तुम यह जान जाओ और समझ लो कि पिता मुझ में है और मैं पिता में हूँ।’’

39) इस पर उन्होंने फिर ईसा को गिरफ़्तार करने का प्रयत्न किया, परन्तु वे उनके हाथ से निकल गये।

40) ईसा यर्दन के पार उस जगह लौट गये, जहाँ पहले योहन बपतिस्मा दिया करता था, और वहीं रहने लगे।

41) बहुत-से लोग उनके पास आये। वे कहते थे, योहन ने तो कोई चमत्कार नहीं दिखाया, परंतु उसने इनके विषय में जो कुछ कहा, वह सब सच निकला।

42) और वहाँ बहुत से लोगों ने उन में विश्वास किया।

📚 मनन-चिंतन

आज के दोनों पाठों में हम देखते है कि यिरमियाह ईश्वर की वाणी सुनाने के कारण, सच बोलने के कारण उनको विरोध का सामना करना पडता है। और सुसमाचार में येसु पिता की वाणी सुनाने के कारण और पिता के साथ उनके संबध के बारे में बोलने के कारण विरोध का सामना करना पडता है। लेकिन वे सच्चाई से पीछे नहीं हटते।

लोग शुरूवात में येसु को समझ नहीं पाये। क्योंकि लोगों ने सोचा कि येसु एक नबी है। संत मत्ती 16ः13से हम पढते है ईसा ने शिष्यों से पूछा, मानव पुत्र कौन है, इस विषय में लोग क्या कहते हैं? उन्होंने उत्तर दिया, कुछ लोग कहते हैं योहन बपतिस्ता; कुछ कहते हैं-एलियस; और कुछ लोग कहते हैं-येेरेमियस अथवा नबियों में से कोई। इसलिए यहूदियों ने येसु से कहा तुम ईश निन्दा कर रहे हो क्योंकि तुम मनुष्य हो कर अपने को ईश्वर मानते हो। हॉ यह सही है उस समय लोग येसु को सही रूप में समझ नहीं पाये। येसु ईश्वर के एकलौते पुत्र है इसलिए येसु स्वयं ईश्वर है। संत योहत अपने सुसमाचार ये सच्चाई बताते हुए शुरू करते है 1ः1- आदि में शब्द था, शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ईश्वर था। संत पौलूस येसु के बारे में कहते है फिलिप्पियों 2ः6-7 वह वास्तव में ईश्वर थे और उन को पूरा अधिकार था कि वह ईश्वर की बराबरी करें, फिर भी उन्होंने दास का रूप धारण कर तथा मनुष्यों के समान बन कर अपने को दीन हीन बना लिया।

येसु ने अपने शिष्यों से पूछा तूम क्या कहते हो कि मैं कौन हॅू? पेत्रुस ने कहाः आप मसीह है, आप जीवन्त ईश्वर के पुत्र है। आईए इस चालिसा काल में येसु को और गहराई में जानने कि कोशीष करें और उनके साथ गहरा संबध रखें। हमारे लिए संत पौलूस की प्रार्थना यह हैं एफेसियों 3ः17-18 कि विश्वास द्वारा मसीह आपके ह्रदयों में निवास करें, प्रेम में आपकी जडें गहरी हों और नींव सुदृढ़ हो। इस तरह, आप लोग अन्य सभी सन्तों के साथ मसीह के प्रेम की लम्बाई, चौडाई, ऊॅचाई और गहराई समझ सकेंगे।


-फादर शैलमोन आन्टनी


📚 REFLECTION


In today’s both the readings we have the same theme that Jeremiah faces opposition for having proclaimed the word of God, having proclaimed the truth. In the Gospel also we have the same thing that Jesus having proclaimed the truth about him, he faces opposition. However they remain for the truth.

The Jews could not understand Jesus in the beginning. Because the Jews though Jesus was a prophet. Mt 16:13-14 Jesus asked his disciples: who do people say that the Son of Man is? And they said “Some say John the Baptist, but others Elijah, and still others Jeremiah or one of the prophets.” Therefore the Jews said to Jesus that he is blaspheming, because he being a human claiming to be God. Jesus was speaking the truth but the people could not grasp it.

Jesus being the only Son of the Father is God himself. St. John begins his gospel with this 1:1 in the beginning was the Word, and the Word was with God and the word was God. St. Paul says the same in Philip 2:6-7 though he was in the form of God, did not regard equality with God as something to be exploited, but emptied himself, taking the form of a slave, being born in human likeness and being found in human form, he humbled himself.

Jesus asked his disciples that what do you say about me? And Peter said that you are the Christ the Son of the living God. Dear friends, come during this season of lent let us make effort to know Jesus more and more and make our relationship with him deeper. St. Paul’s prayer for us is that Eph 3:17-18 and that Christ may dwell in your hearts through faith, as you are being rooted and grounded in love. I pray that you may have the power to comprehend, with all the saints, what is the breadth and length and height and depth of the love of Christ.

-Fr. Shellmon Antony


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Praise the Lord!