पास्का का दूसरा सप्ताह - शनिवार



पहला पाठ :प्रेरित-चरित 6:1-7

1) उन दिनों जब शिष्यों की संख्या बढ़ती जा रही थी, तो यूनानी-भाषियों ने इब्रानी-भाषियों के विरुद्ध यह शिकायत की कि रसद के दैनिक वितरण में उनकी विधवाओं की उपेक्षा हो रही है।

2) इसलिए बारहों ने शिष्यों की सभा बुला कर कहा, "यह उचित नहीं है कि हम भोजन परोसने के लिए ईश्वर का वचन छोड़ दे।

3) आप लोग अपने बीच से पवित्र आत्मा से परिपूर्ण सात बुद्धिमान् तथा ईमानदार व्यक्तियों का चुनाव कीजिए। हम उन्हें इस कार्य के लिए नियुक्त करेंगे,

4) और हम लोग प्रार्थना और वचन की सेवा में लगे रहेंगे।"

5) यह बात सबों को अच्छी लगी। उन्होंने विश्वास तथा पवित्र आत्मा से परिपूर्ण स्तेफनुस के अतिरिक्त फिलिप, प्रोख़ोरुस, निकानोर, तिमोन, परमेनास और यहूदी धर्म में नवदीक्षित अन्ताखिया-निवासी निकोलास को चुना

6) और उन्हें प्रेरितों के सामने उपस्थित किया। प्रेरितों ने प्रार्थना करने के बाद उन पर अपने हाथ रखे।

7) ईश्वर का वचन फैलता गया, येरुसालेम में शिष्यों की संख्या बहुत अधिक बढ़ने लगी और बहुत-से याजकों ने विश्वास की अधीनता स्वीकार की।

सुसमाचार : योहन 6:16-21

16) सन्ध्या हो जाने पर शिष्य समुद्र के तट पर आये।

17) वे नाव पर सवार हो कर कफरनाहूम की ओर समुद्र पार कर रहे थे। रात हो चली थी और ईसा अब तक उनके पास नहीं आये थे।

18) इस बीच समुद्र में लहरें उठ रही थी, क्योंकि हवा जोरों से चल रही थी।

19) कोई तीन-चार मील तक नाव खेने के बाद शिष्यों ने देखा कि ईसा समुद्र पर चलते हुए, नाव की ओर आगे बढ़ रहे हैं। वे डर गये,

20) किन्तु ईसा ने उन से कहा, "मैं ही हूँ। डरो मत।"

21) वे उन्हें चढ़ाना चाहते ही थे कि नाव तुरन्त उस किनारे, जहाँ वे जा रहे थे, लग गयी।

📚 मनन-चिंतन

प्राथमिकतायें जीवन को दिशा और मकसद प्रदान करती है। यह आवश्यक है कि हम यह जाने कि हम क्या चाहते हैं तथा किन बातों पर केंद्रित होकर अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करना चाहते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि हमारी प्राथमिकताओं को छोडकर दूसरी बातें मायने नहीं रखती किन्तु जीवन की प्राथमिकतायें ही है जो हमें अन्य बातों से दूर रखती है। संत पौलुस बहुत खूबसूरती यह इस बात को बताते हुये कहते हैं, ’’मुझे सब कुछ करने की अनुमति है, किन्तु सब कुछ हितकर नहीं। मुझे सब कुछ करने की अनुमति है, किन्तु मैं किसी भी चीज का गुलाम नहीं बनूँगा।’’ (1 कुरि. 6:12)

आज के पहले पाठ में हमें पढते है भोजन वितरण के दौरान कुछ लोगों को भेदभाव का सामना पडता है। एक विशेष वर्ग की अवहेलना की जा रही है। यह एक वास्तविक समस्या थी जिसका शीघ्र निवारण किया जाना आवश्यक था। लेकिन प्रेरितों ने प्रार्थना तथा वचन के प्रचार को उनके जीवन की प्राथमिकता बताते हुये इस समस्या से सीधे रूप से जुडने से इंकार कर दिया। उन्होंने इसके लिये योग्य व्यक्तियों को चुनकर भेदभाव की समस्या को सुधारने को कहा।

हम निरंतर निर्णय लेते हैं। हमें प्राथमिकता पर ध्यान देना चाहिये अन्यथा हम मंजिल से भटक जायेंगे। प्राथमिकताओं से शुरूआती भटकाव इतना सूक्ष्म होता है कि हमें इसका अहसास ही नहीं होता है किन्तु जब इसका प्रभाव पडने लगता है तो जीवन अस्तव्यस्त हो जाता है।

प्राथमिकतायें हमें प्रभावी तथा क्रियाशील बनाये रखती है। हमें अपने लक्ष्य का सदैव ध्यान रहता है क्योंकि हम निरंतर लक्ष्य के पक्ष में निर्णय लेते रहते हैं। यह प्रभावशीलता प्रेरितों के कार्यों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है जैसा कि बताया गया है, ’’ईश्वर का वचन फैलता गया, येरुसालेम में शिष्यों की सख्ंया बहुत बढने लगी और बहुत से याजकों ने विश्वास की अधीनता स्वीकार की।’’

फादर रोनाल्ड वाँन

📚 REFLECTION


Priorities are the things that give life meaning and a purpose. It is important to know what we want and focus on while trying to achieve the goal. That doesn’t mean that other things are not important or useful but it is matter of priority in life that we refrain from something. St. Paul beautifully describes it, "I have the right to do anything," you say--but not everything is beneficial. "I have the right to do anything"--but I will not be mastered by anything.” (1 Corinthians 6:12 )

Today’s first reading from the Acts of the Apostles describes a situation when people faced partiality in the distribution of food. They felt a certain section was being neglected. It was a genuine problem and demanded an immediate action. However, apostles refused to be drawn into it on the ground that their priority was to pray and preach. They decided to remain adhered to their priorities and found another solution for it. They appointed others trusted men to oversee the distribution and solve the issues.

We constantly make decisions. We need to prioritise the work otherwise the deviate from the destination would be inevitable. The problem is that the deviation can be so subtle that it may go unnoticed at initially but would land us on a distant territory.

Priorities keep us motivated and effected in our work. We are constantly reminded of our goal since we make conscious efforts and decisions in its favour. This effectiveness is extremely perceivable in the work of apostles as it reported in the following verses, “The word of God continued to increase and the number of the disciples multiplied greatly in Jerusalem…”

-Fr. Ronald Vaughan


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Praise the Lord!