पास्का का तीसरा सप्ताह - गुरुवार



पहला पाठ :प्रेरित-चरित 8:26-40

26) ईश्वर के दूत ने फि़लिप से कहा, "उठिए, येरुसालेम से गाज़ा जाने वाले मार्ग पर दक्षिण की ओर जाइए"। यह मार्ग निर्जन है।

27) वह उठ कर चल पड़ा। उस समय एक इथोपियाई ख़ोजा, येरुसालेम की तीर्थयात्रा से लौट रहा था। वह इथोपिया की महारानी कन्दाके का उच्चाधिकारी तथा प्रधान कोषाध्यक्ष था।

28) वह अपने रथ पर बैठा हुआ नबी इसायस का ग्रन्थ पढ़ रहा था।

29) आत्मा ने फि़लिप से कहा, "आगे बढि़ए और रथ के साथ चलिए"।

30) फि़लिप दौड़ कर उसके पास पहुँचा और उसे नबी इसायस का ग्रन्थ पढ़ते सुन कर पूछा, "आप जो पढ़ रहे हैं, क्या उसे समझते हैं?"

31) उसने उत्तर दिया, "जब तक कोई मुझे न समझाये, तो मैं कैसे समझूँगा?" उसने फि़लिप से निवेदन किया कि वह चढ़ कर उसके पास बैठ जाये।

32) वह धर्मग्रन्थ का यह प्रसंग पढ़ रहा था-

33) वह मेमने की तरह वध के लिए ले जाया गया। ऊन करतने वाले के सामने चुप रहने वाली भेड़ की तरह उसने अपना मुख नहीं खोला। उसे अपमान सहना पड़ा, उसके साथ न्याय नहीं किया गया। उसकी वंशावली की चर्चा कौन कर सकेगा? उसका जीवन पृथ्वी पर से उठा लिया गया है।

34) खोजे ने फि़लिप से कहा, "आप कृपया मुझे बताइए, नबी किसके विषय में यह कह रहे हैं? अपने विषय में या किसी दूसरे के विषय में?"

35) आत्मा ने फि़लिप से कहा, "आगे बढि़ए और रथ के साथ चलिए"।

36) (36-37) यात्रा करते-करते वे एक जलाशय के पास पहुँँचे। खोजे ने कहा, “यहाँ पानी है। मेरे बपतिस्मा में क्या बाधा है?“

38) उसने रथ रोकने का आदेश दिया। तब फिलिप और खोज़ा, दोनों जल में उतरे और फि़लिप ने उसे बपतिस्मा दिया।

39) जब वे जल से बाहर आये, तो ईश्वर का आत्मा फि़लिप को उठा ले गया। खोज़े ने उसे फिर नहीं देखा; फिर भी वह आनन्द के साथ अपने रास्ते चल पड़ा।

40) फि़लिप ने अपने को आज़ोतस में पाया और वह कैसरिया पहुँचने तक सब नगरों में सुसमाचार का प्रचार करता रहा।

सुसमाचार : योहन 6:44-51

44) कोई मेरे पास तब तक नहीं आ सकता, जब तक कि पिता, जिसने मुझे भेजा, उसे आकर्षित नहीं करता। मैं उसे अन्तिम दिन पुनर्जीवित कर दूंगा।

45) नबियों ने लिखा है, वे सब-के-सब ईश्वर के शिक्षा पायेंगे। जो ईश्वर की शिक्षा सुनता और ग्रहण करता है, वह मेरे पास आता है।

46) "यह न समझो कि किसी ने पिता को देखा है; जो ईश्वर की ओर से आया है, उसी ने पिता को देखा है

47) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- जो विश्वास करता है, उसे अनन्त जीवन प्राप्त है।

48) जीवन की रोटी मैं हूँ।

49) तुम्हारे पूर्वजों ने मरुभूमि में मन्ना खाया, फिर भी वे मर गये।

50) मैं जिस रोटी के विषय में कहता हूँ, वह स्वर्ग से उतरती है और जो उसे खाता है, वह नहीं मरता।

51) स्वर्ग से उतरी हुई वह जीवन्त रोटी मैं हूँ। यदि कोई वह रोटी खायेगा, तो वह सदा जीवित रहेगा। जो रोटी में दूँगा, वह संसार के लिए अर्पित मेरा मांस है।"

📚 मनन-चिंतन

इथोपियाई खोजे के मन परिवर्तन की घटना आरंभिक कलीसिया में ईश्वर की उपस्थिति का ज्वलंत उदाहरण है।

इथोपियाई खोजा पवित्र नगर येरुसालेम से लौट रहा था और शायद ईश्वर के प्रति उसकी प्यास बुझी नहीं थी। उसके पास धर्मग्रंथ था जिसे वह पढ रहा था। ईश्वर जो मनुष्य के हृदय की थाह लेता है उनके लिये पहाड रूपी बाधा भी हटा सकता है। ईश्वर का दूत फिलिप को निर्जन मार्ग की ओर जाने के लिये कहता है। फिर पवित्र आत्मा फिलिप को रथ के साथ चलने के लिये कहता है। वहॉ फिलिप खोजे को येसु का सुसमाचार सुनाता है। इस भेंट का अंत खोजे के बपतिस्मा ग्रहण करने से होता है।

यह घटना मनुष्य की मुक्ति के लिये ईश्वर के रहस्यमय किन्तु प्रत्यक्ष तथा शक्तिशाली मार्गों के बारे में बताती है। येरूसालेम की यात्रा के बाद भी खोजे की ईश्वर के प्रति तृष्णा शांत नहीं हुयी थी किन्तु उसे मुक्ति एक निर्जन स्थान में प्राप्त हुयी थी जो ईश्वर की इच्छानुसार था। ईश्वर ने इस अप्रत्याशित कार्य के लिये किसी प्रेरित को नहीं वरन् फिलिप को चुना, जो उन सात धर्मसेवकों में था जिन्हें प्रेरितों ने चुना था। (प्रेरित चरित 6:1-7)

यह घटना यह भी बताती है कि ईश्वर हमारी इच्छाओं तथा मुक्ति का कितना ख्याल रखते हैं। इस बात को पूरा करने में ईश्वर अपने कल्याणकारी समय तथा अनूठे मार्गों का उपयोग करते हैं। ईश्वर के लिये छोटे-बडे, अमीर-गरीब में कोई अंतर नहीं होता। ईश्वर ने इस गैर-यहूदी, खोजे की मुक्ति के लिये अति-साधारण तरीके से नियोजन किया। येसु इस सच्चाई को इंगित करते हुए कहते हैं, ’’इसलिए मैंने तुम लोगों से यह कहा कि कोई मेरे पास तब तक नहीं आ सकता, जब तक उसे पिता से यह वरदान न मिला हो।’’ (योहन 6:65)

फादर रोनाल्ड वाँन

📚 REFLECTION


Conversion of the Ethiopian eunuch is the example of God’s extraordinary intervention to provide salvation to the eunuch.

Ethiopian Eunuch was returning from the holy city of Jerusalem andperhaps his thirst for God had not been quenched. He had the Word of God with him and was reading it. God who looks at the heart of men can move mountains for the sake of those who sincerely seek him. Philip was directed by the angel of God to go to a deserted place where he was told by the Holy Spirit to join the chariot of the eunuch. There Philip explained to him the good news about Jesus. This encounter culminated in the baptism of the Eunuch.

It shows the mysterious,yet the direct and powerful ways God works for the salvation of men. It is noteworthy to observe that the eunuch did not find salvation in Jerusalem but in the deserted place where God had planned. For this reason alone, Philip was led by the divine intervention to the place for the conversion of the Eunuch. God did not choose any apostle for this special act but Philip was not the apostle but one of those seven deacons chosen by the apostle earlier. (Acts 6:1-7)

It shows God cares about our desires to know him and worship him. it may take time and it may not come in conventional way but it would be definitely on the way through the means and at the appointed time God has destined. It does not matter to God how big or small, rich and poor we are. God provided his salvation even for a gentile eunuch with such extra-ordinary preparations. Jesus points this truth that it is finally through God’s will that we receive grace, “No one can come to me unless the Father who sent me draws him.” (John 6:65)

-Fr. Ronald Vaughan


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