पास्का का तीसरा सप्ताह - शुक्रवार



पहला पाठ :प्रेरित-चरित 9:1-20

1) साऊल पर अब भी प्रभु के शिष्यों को धमकाने तथा मार डालने की धुन सवार थी।

2) उसने प्रधानयाजक के पास जा कर दमिश्क के सभागृहों के नाम पत्र माँगे, जिन में उसे यह अधिकार दिया गया कि यदि वह वहाँ नवीन पन्थ के अनुयायियों का पता लगाये, तो वह उन्हें-चाहे वे पुरुष हों या स्त्रियाँ-बाँध कर येरुसालेम ले आये।

3) जब वह यात्रा करते-करते दमिश्क के पास पहुँचा, तो एकाएक आकाश से एक ज्येाति उसके चारों और चमक उठी।

4) वह भूमि पर गिर पड़ा और उसे एक वाणी यह कहती हुई सुनाई दी, "साऊल! साऊल! तुम मुझ पर क्यों अत्याचार करते हो?"

5) उसने कहा, "प्रभु! आप कौन हैं?" उत्तर मिला, "मैं ईसा हूँ, जिस पर तुम अत्याचार करते हो।

6) उठो और शहर जाओ। तुम्हें जो करना है, वह तुम्हें बताया जायेगा।

7) उसके साथ यात्रा करने वाले दंग रह गये। वे वाणी तो सुन रहे थे, किन्तु किसी को नहीं देख पा रहे थे।

8) साऊल भूमि से उठा, किन्तु आँखें खोलने पर वह कुछ नहीं देख सका। इसलिए वे हाथ पकड़ कर उसे दमिश्क ले चले।

9) वह तीन दिनों तक अन्धा बना रहा और वह न तो खाता था न पीता था।

10) दमिश्क में अनानीयस नामक शिष्य रहता था। प्रभु ने उसे दर्शन दे कर कहा, "अनानीयस!" उसने उत्तर दिया, "प्रभु! प्रस्तुत हूँ"।

11) प्रभु ने उस से कहा, "तुरन्त ’सीधी’ नामक गली जाओ और यूदस के घर में साऊल तारसी का पता लगाओ। वह प्रार्थना कर रहा है।

12) उसने दर्शन में देखा कि अनानीयस नामक मनुष्य उसके पास आ कर उस पर हाथ रख रहा है, जिससे उसे दृष्टि प्राप्त हो जाये।"

13) अनानीयस ने आपत्ति करते हुए कहा, "प्रभु! मैंने अनेक लोगों से सुना है कि इस व्यक्ति ने येरुसालेम में आपके सन्तों पर कितना अत्याचार किया है।

14) उसे महायाजकों से यह अधिकार मिला है कि वह यहाँ उन सबों को गिरफ्तार कर ले, जो आपके नाम की दुहाई देते हैं।"

15) प्रभु ने अनानीयस से कहा, "जाओ। वह मेरा कृपापात्र है। वह गैर-यहूदियों, राजाओं तथा इस्राएलियों के बीच मेरे नाम का प्रचार करेगा।

16) मैं स्वयं उसे बताऊँगा कि उसे मेरे नाम के कारण कितना कष्ट भोगना होगा।"

17) तब अनानीयास चला गया और उस घर के अन्दर आया। उसने साऊल पर हाथ रख दिये और कहा, "भाई साऊल! प्रभु ईसा आप को आते समय रास्ते में दिखाई दिये थे। उन्होंने मुझे भेजा है, जिससे आपको दृष्टि प्राप्त हो और आप पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो जायें।"

18) उस क्षण ऐसा लग रहा था कि उसकी आँखों से छिलके गिर रहे हैं। उसे दृष्टि प्राप्त हो गयी और उसने तुरन्त बपतिस्मा ग्रहण किया।

19) उसने भोजन किया और उसके शरीर में बल आ गया। साऊल कुछ समय तक दमिश्क के शिष्यों के साथ रहा।

20) वह शीघ्र ही सभागृहों में ईसा के विषय में प्रचार करने लगा कि वह ईश्वर के पुत्र हैं।

सुसमाचार : योहन 6:52-59

52) यहूदी आपस में यह कहते हुए वाद विवाद कर रहे थे, "यह हमें खाने के लिए अपना मांस कैसे दे सकता है?"

53) इस लिए ईसा ने उन से कहा, "मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- यदि तुम मानव पुत्र का मांस नहीं खाओगे और उसका रक्त नहीं पियोगे, तो तुम्हें जीवन प्राप्त नहीं होगा।

54) जो मेरा मांस खाता और मेरा रक्त पीता है, उसे अनन्त जीवन प्राप्त है और मैं उसे अन्तिम दिन पुनर्जीवित कर दूँगा;

55) क्योंकि मेरा मांस सच्चा भोजन है और मेरा रक्त सच्चा पेय।

56) जो मेरा मांस खाता और मेरा रक्त पीता है, वह मुझ में निवास करता है और मैं उस में।

57) जिस तरह जीवन्त पिता ने मुझे भेजा है और मुझे पिता से जीवन मिलता है, उसी तरह जो मुझे खाता है, उसको मुझ से जीवन मिलेगा। यही वह रोटी है, जो स्वर्ग से उतरी है।

58) यह उस रोटी के सदृश नहीं है, जिसे तुम्हारे पूर्वजों ने खायी थी। वे तो मर गये, किन्तु जो यह रोटी खायेगा, वह अनन्त काल तक जीवित रहेगा।"

59) ईसा ने कफरनाहूम के सभागृह में शिक्षा देते समय यह सब कहा।

📚 मनन-चिंतन

पौलुस के हृदय परिवर्तन की घटना पेंतेकोस्त के बाद कलीसिया में सबसे बडी घटना मानी जा सकती है। येसु से एक भेंट के बाद ख्राीस्तीय धर्म का घोर विरोधी उनका सबसे बडा समर्थक एवं प्रचारक बन गया था।

ईश्वर की कृपा या मुक्ति किसी मनुष्य की योग्यता या गुणों पर निर्भर नहीं करती है। यह तो ईश्वर की और से दिया गया एक मुफ्त उपहार है। आरंभ में पौलुस ख्राीस्तीयों के विरूद्ध घोर अत्याचार कर रहा था। किन्तु प्रभु येसु ने इस घोर अत्याचारी को उनके शक्तिशाली समर्थक में परिवर्तित कर दिया था। जिस धर्म को मिटाना उसके जीवन का उददेश्य था अब उसी को फैलाने में वह ईश्वर का साधन बन गया था। ईश्वर ने पौलुस को इसलिये नहीं चुना कि वह उपयोगी था। पौलुस ने ईश्वर की इस असीम कृपा को पाने के लिये कुछ भी नहीं किया था। पौलुस का हृदय परिवर्तन केवल ईश्वर की पहल थी। येसु से उस दिव्य आकस्मिक भेंट के दौरान वह भूमि पर गिर पडा था तथा ईश्वर ने उसे अभिभूत कर दिया था। वह अंधा हो गया था। पौलुस के पास ज्यादा विकल्प नहीं थे। उसे आगे क्या करना है इस बारे में स्पष्ट आदेश दिये गये थे। वह ईश्वर का विशेष उददेश्य, ’’...गैर-यहूदियों, राजाओं तथा इस्राएलियों के बीच मेरे नाम का प्रचार’’ (प्रेरित चरित 9:15)करना था।ईश्वर ने यह भी तय कर लिया था पौलुस को उसके नाम के कारण दुख उठाना होगा। (प्रेरित चरित 9:16)

ईश्वर ने पौलुस के इस नये जीवन के बारे में पूरी रूपरेखा तय कर रखी थी। इस बात को संत पौलुस रोमियों के नाम अपने पत्र में लिखते हैं, ’’इसलिए यह मनुष्य की इच्छा या उसके परिश्रम पर नहीं, बल्कि दया करने वाले ईश्वर पर निर्भर रहता है। इसलिए ईश्वर जिस पर चाहे, दया करता है और जिसे चाहे, हठधर्मी बना देता है।’’ (प्रेरित-चरित 9:16,18)

संत पौलस का मन परिवर्तन हम सब के लिये एक उदाहरण एवं आदर्श है। यह इस बात का उदाहरण है कि ईश्वर के मुक्तिदायी हाथ से कोई भी दूर नहीं है। यह इस बात का उदाहरण है कि जब ईश्वर हमारे जीवन का संचालन करते हैं तो हमारे जीवन को अद्वितीय रूप से महान कर सकते हैं। इस बात का उदाहरण है कि हमें भी ईश्वर के हाथों अपने जीवन को संचालित करते हेतु निरतंर प्रार्थना करनी चाहिये।

फादर रोनाल्ड वाँन

📚 REFLECTION


The conversion of Saul is considered to be the most important event in the history of the church since Pentecost. With just one encounter, he was converted from the stringiest opponent of Jesus Christ into Christianity’s most ardent advocate.

Salvation does not depend on the merits or good points of man’s nature, but rather on god’s free grace. Initially Soul was breathing threats and murder against the Christians. However, the Lord turns him into his powerful instrument for spreading the faith which he had vowed to annihilate. God did not choose Saul because He saw something of value in his nature. Saul had not done anything to make him worthy of God’s grace. Everything about Saul’s conversion came from God. Saul was not searching for the Lord or for salvation. Rather, the Lord knocked him to the ground and completely overpowered him. He was left him blind. Saul was not given much choice about he is to do. Jesus gave him very direct orders about what he had to do next.Saul was God’s chosen instrument to fulfil a very definite task, “to bear My name before the Gentiles and kings and the sons of Israel” (9:15). God already had ordained that Saul would suffer much for His name’s sake (9:16).

God had it all planned from start to finish! As Paul puts it in Romans 9:16, “So it depends not on human will or exertion, but on God who shows mercy. So then he has mercy on whomsoever he chooses, and he hardens the heart of whomsoever he chooses.” (Romans 9:16,18)

Paul’s conversion is an example for us all. It is an example of the fact that none of us are too far gone for God’s mighty power to save. It is an example of what God can do when He takes hold of a life. It is an example to encourage us to pray for his mercy to be converted to his will.

-Fr. Ronald Vaughan


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Praise the Lord!