पास्का का चौथा सप्ताह - बुधवार



पहला पाठ : प्रेरित-चरित 12:24-13:5

12:24) ईश्वर का वचन बढ़ता और फैलता गया।

25) बरनाबस और साऊल अपना सेवा-कार्य पूरा कर येरुसालेम से लौटे और अपने साथ योहन को ले आये, जो मारकुस कहलाता था।

13:1) अंताखिया की कलीसिया में कई नबी और शिक्षक थे- जैसे बरनाबस, सिमेयोन, जो नीगेर कहलाता था, लुकियुस कुरेनी, राजा हेरोद का दूध-भाई मनाहेन और साऊल।

2) वे किसी दिन उपवास करते हुए प्रभु की उपासना कर ही रहे थे कि पवित्र आत्मा ने कहा, ’’मैंने बरनाबस तथा साऊल को एक विशेष कार्य के लिए निर्दिष्ट किया हैं। उन्हें मेरे लिए अलग कर दो।’’

3) इसलिए उपवास तथा प्रार्थना समाप्त करने के बाद उन्होंने बरनाबस तथा साऊल पर हाथ रखे और उन्हें जाने की अनुमति दे देी।

4) पवित्र आत्मा द्वारा भेजे हुए बरनाबस और साऊल सिलूकिया गये और वहाँ से वे नाव पर क्रुप्रुस चले।

5) सलमिस पहुँच कर वे यहूदियों के सभागृहों में ईश्वर के वचन का प्रचार करते रहे। योहन भी उनके साथ रह कर उनकी सहयता करता था।

सुसमाचार : योहन 12:44-50

45) और जो मुझे देखता है, वह उस को देखता है जिसने मुझे भेजा।

46) मैं ज्योति बन कर संसार में आया हूँ, जिससे जो मुझ में विश्वास करता हैं वह अन्धकार में नहीं रहे।

47) यदि कोई मेरी शिक्षा सुनकर उस पर नहीं चलता, तो मैं उसे दोषी नही ठहराता हूँ क्योंकि मैं संसार को दोषी ठहराने नहीं, संसार का उद्वार करने आया हूँ।

48) जो मेरा तिरस्कार करता और मेरी शिक्षा ग्रहण करने से इंकार करता है, वह अवश्य ही दोषी ठहराया जायेगा। जो शिक्षा मैंने दी है, वही उसे अंतिम दिन दोषी ठहरा देगी।

49) मैनें अपनी ओर से कुछ नहीं कहा। पिता ने जिसने मुझे भेजा, आदेश दिया है कि मुझे क्या कहना और कैसे बोलना है।

50) मैं जानता हूँ कि उसका आदेश अनंत जीवन है। इसलिये मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे वैसे ही कहता हूँ जैसे पिता ने मुझ से कहा है।

📚 मनन-चिंतन

आज का पहला पाठ कलीसिया के नेताओं के पवित्र और धर्मपरायण चरित्र के बारे में प्रकाश डालता है। हम पाते हैं वे सभी पवित्र, आज्ञाकारी तथा प्रार्थनामय नेता थे। उनका चरित्र धार्मिक था। प्रार्थना के दौरान ईश्वर हम से व्यक्तिगत रूप से बातें करते तथा उनकी योजना एवं उददेश्यों को हम पर प्रकट करते हैं। प्रार्थना तथा उपवास एक धार्मिक व्यक्ति की मूलभूत दिनचर्या होती है। यह मनुष्य की ईश्वर के प्रति गहरायी को प्रकट करता है। प्रभु येसु ने स्वयं अनेक बार प्रार्थना करने की जरूरत पर जोर डाला तथा अनेक बार वे स्वयं भी प्रार्थना में लीन पाये गये। येसु ने उनके जीवन की मुख्य घटनाओं के पहले अत्यंत त्रीवता के साथ प्रार्थना की।

जब साउल और बरनाबस अन्यों के साथ मिलकर प्रार्थना तथा उपवास रखकर ईश्वर की उपासना कर रहे थे तो पवित्र आत्मा ने उन्हें यह कहकर निर्देशित किया, ’’मैंने बरनाबस और साउल को एक विशेष कार्य के लिये निर्दिष्ट किया है। उन्हें मेरे लिये अलग कर दो।’’ उन नेताओं की विशिष्ट योजना नहीं थी किन्तु इस प्रकार उन्होंने जाना कि ईश्वर की उनके लिये एक योजना है। उस योजना के तहत उन्होंने स्वेच्छा तथा शीघ्रता से ईश्वर के निर्देश का पालन किया। उनकी यह शीघ्रता तथा स्वेच्छा उनके धार्मिक चरित्र का चिन्ह है।

बरनाबस और साउल तत्कालीन कलीसिया के दो सबसे प्रमुख व्यक्तियों में थे तथा ईश्वर ने उन्हंछ मिशनरी यात्रा में भेजा। उनके इस प्रकार अचानक चले जाने से वहां की स्थानीय कलीसिया को गहरा दुख और खालीपन महसूस हुआ होगा लेकिन उन्होंने बिना किसी हिचक और विरोध के, आत्मा के निर्देशों का पालन किया तथा अपने इन दोनों महान हस्तियों को अंताखिया से बाहर जाने दिया। पवित्र आत्मा के प्रति आज्ञापालन बनने के लिये हमें ईश्वर की आराधना करने के लिये समय निकालना चाहिये तथा उनका निर्देशन ढूंढना चाहिये।

फादर रोनाल्ड वाँन

📚 REFLECTION


Today’s first reading tells us about the godly characteristics of the leaders of the churches. It tells that all of them were very pious, obedient and praying leaders. They had a godly character. It is while praying that God speaks to us more personally and reveals his plans and purposes to and for us. Prayer and fasting are basic habits of a godly persons. They reveal the depth a person has with God. Lord Jesus several times mentioned the needs for prayers and he himself was found praying many times. He prayed intensely before all the major events of his life.

While Saul and Barnabas along with others were worshiping the Lord in prayer and fasting,the Holy Spirit speaks to them and directs them about Saul and Barnabas. “Set apart for me Barnabas and Saul for the work to which I have called them.” While they apparently had no specific plan for themselves but God had for them. They experienced God’s will and willingly and promptly responded to it. It yet again points out godliness of the them as they were so willing and prompt to obey the Lord’s commands.

Barnabas and Saul were two of the most important men in that church, and God sent them out on this missionary journey. Their sudden going must have given a deep sense of loss to the church there but without a word of protest, the church obeyed the Spirit’s directive and released these gifted men for ministry outside of Antioch.To be obedient to the Holy Spirit, wemust take time to worship God and seek His direction.

-Fr. Ronald Vaughan


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Praise the Lord!