पास्का का चौथा सप्ताह - शुक्रवार



पहला पाठ : प्रेरित-चरित 13:26-33

26) ’’भाइयों! इब्राहीम के वंशजों और यहाँ उपस्थित ईश्वर के भक्तों! मुक्ति का यह संदेश हम सबों के पास भेजा गया है।

27) येरुसालेम के निवासियों तथा उनके शासकों ने ईसा को नहीं पहचाना। उन्हें दण्डाज्ञा दिला कर उन्होंने अनजाने ही नबियों के वे कथन पूरे कर दिये, जो प्रत्येक विश्राम-दिवस को पढ़ कर सुनाये जाते हैं।

28) उन्हें प्राणदण्ड के योग्य कोई दोष उन में नहीं मिला, फिर भी उन्होंने पिलातुस से अनुरोध किया कि उनका वध किया जाये।

29) उन्होंने उनके विषय में जो कुछ लिखा है, वह सब पूरा करने के बाद उन्हें क्रूस के काठ से उतारा और कब्र में रख दिया।

30) ईश्वर ने उन्हें तीसरे दिन मृतकों में से पुनर्जीवित किया

31) और वह बहुत दिनों तक उन लोगों को दर्शन देते रहे, जो उनके साथ गलीलिया से येरुसालेम आये थे। अब वे ही जनता के सामने उनके साक्षी हैं।

32) हम आप लोगों का यह सुसमाचार सुनाते हैं कि ईश्वर ने हमारे पूर्वजों से जो प्रतिज्ञा की थी।

33) उसे उनकी संतति के लिए अर्थात् हमारे लिए पूरा किया है। उसने ईसा को पुनर्जीवित किया है, जैसा कि द्वितीय स्तोत्र में लिखा है, तुम मेरे पुत्र हो। आज मैंने तुम को उत्पन्न किया हैं।

सुसमाचार : योहन 14:1-6

1) तुम्हारा जी घबराये नहीं। ईश्वर में विश्वास करो और मुझ में भी विश्वास करो!

2) मेरे पिता के यहाँ बहुत से निवास स्थान हैं। यदि ऐसा नहीं होता, तो मैं तुम्हें बता देता क्योंकि मैं तुम्हारे लिये स्थान का प्रबंध करने जाता हूँ।

3) मैं वहाँ जाकर तुम्हारे लिये स्थान का प्रबन्ध करने के बाद फिर आऊँगा और तुम्हें अपने यहाँ ले जाउँगा, जिससे जहाँ मैं हूँ, वहाँ तुम भी रहो।

4) मैं जहाँ जा रहा हूँ, तुम वहाँ का मार्ग जानते हो।

5 थोमस ने उन से कहा, ’’प्रभु! हम यह भी नहीं जानते कि आप कहाँ जा रहे हैं, तो वहाँ का मार्ग कैसे जान सकते हैं?’’

6) ईसा ने उस से कहा, ’’मार्ग सत्य और जीवन मैं हूँ। मुझ से हो कर गये बिना कोई पिता के पास नहीं आ सकता।’’

📚 मनन-चिंतन

प्रभु येसु प्रतिज्ञात मुक्तिदाता एवं मसीह थे जिन्हें ईश्वर ने भेजा था। किन्तु जिन लोगों को उनका स्वागत करना था उन्होंने ने ही उन्हें को क्रूस पर चढाकर मार डाला। उन्होंने उन्हें पहचाना नहीं तथा अपने अज्ञान में उन्हें मार डाला। वे शायद ऐसे मसीह की राह देख रहे थे जो उन्हें रोमियों से मुक्ति दिला कर राजनैतिक सत्ता को उलटफेर दे।

उनके इस कुकर्म और अज्ञान का कारण यह था कि उन्होंने धर्मग्रंथ में दी गयी नबियों की वाणियों पर ध्यान जिन्हें उनके सभागृहों हर विश्राम दिवस को पढकर सुनाई जाती थी। (13:27) उन्होंने वचन को सुना पर समझे नहीं। येसु उनके इसी पाखण्ड को दिखाते हुये कहते हैं, ’’तुम लोग यह समझ कर धम्रग्रन्थ का अनुशीलन करते हो कि उस में तुम्हें अनन्त जीवन का मार्ग मिलेगा। वही धर्मग्रन्ध मेरे विषय में साक्ष्य देता है, फिर भी तुम लोग जीवन प्राप्त करने के लिए मेरे पास आना नहीं चाहते।’’ (योहन 5:39-40)

धर्मग्रंथ को जानता तथा उसे समझना दो अलग-अलग बातें हैं। वचन को जानने के लिये हमें मनुष्य के प्रयासों की जरूरत पडती है किन्तु उसे समझने के लिये ईश्वर की सहायता की आवश्यकता महसूस होती है क्योंकि वे ईश-वचन है जिन्हें केवल ईश्वर ही समझा सकता है। वचन को समझने के हमें अपने पूर्वाग्रहों तथा मानसिक-व्यवस्ता से परे जाना होगा। हमें वचन को खुले दिल से समझना चाहिये जिससे वह जो हमें बनाना चाहता है वह भले ही हमारे आशाओं के विपरीत हो क्यों न हो हम समझ सके। यदि हम किसी विचार को लेकर जडवत बने रहते हैं ईश्वर वचन हमारे लिये नये द्वार नहीं खोल सकता क्योंकि हम अपने आप को ईश्वर की योजना अनुरूप बदलना ही नहीं चाहते हैं।

यहूदियों की भी यही दशा थी। उनके विचार में मसीह का आगमन एक भव्य एवं शानदार घटना होगी जिसे देखकर सभी भौंचके हो जायेगे तथा राजनैतिक सत्ता परिवर्तन करेंगे। वे अपने घमण्ड में इतने चूर थे कि वे यह भी नहीं जानते थे वे मसीह को ग्रहण करने के अयोग्य है। येसु उनकी स्थिति को बताते हुये कहते हैं, ’’तुम सुनते रहोगे, परन्तु नहीं समझोगे। तुम देखते रहोगे, परन्तु तुम्हें नहीं दिखेगा, क्योंकि इन लोगों की बुद्धि मारी गई है। ये कानों से सुनना नहीं चाहतेय इन्होंने अपनी आँख बंद कर ली हैं। कहीं ऐसा न हो कि ये आँखों से देख ले, कानों से सुन लें, बुद्धि से समझ लें, मेरी ओर लौट आयें और मैं इन्हें भला चंगा कर दूँ। (मत्ती 13:14-15)

हमारे जीवन में भी हम बाइबिल पढते तथा उसका अर्थ अपने जीवन में ढुंढते है। हमें उन उपायों के बारे में सोचते है जो हमारी कल्पना के दायरे में है। किन्तु हमारी कल्पना के कहीं अधिर महान है तथा वे हमारे क्षणिक सुख के लिये नहीं वरन् स्थायी सुख और कल्याण के लिये योजना बनाता है। आइये हम भी ईशवचन को खुले और सरल हृदय से ग्रहण करे।

फादर रोनाल्ड वाँन

📚 REFLECTION


Although Jesus was the promised Saviour and Messiah God had sent yet he was rejected and killed by the very people who should have welcomed him. They rejected Jesus because they did not recognise Him when he came. They were perhaps looking for a political Messiah who would deliver them from Roman domination.

The reason they didn’t recognize Him is that they did not hear the voices of the prophets who spoke to them every Sabbath as God’s Word was read aloud (13:27). They heard the words but they did not understand it. As Jesus fittingly rebuked them, “You search the Scriptures because you think that in them you have eternal life; it is these that testify about Me; and you are unwilling to come to Me so that you may have life” (John 5:39-40).

Knowing the scripture and understanding it are two different things. By our human effort we can learn it but to understand we need God’s help as they are his own words. To receive this understanding one must be freed of his own pre-conception and pre-occupation. We need to be open to what the word of God could mean and relate to our life beyond our expectation. If we remain fixed on certain ideas then the unfolding of the word of would not take place. Jews were firm believers in the word of God but were also a closed people. Their ideas were fixed that Messiah would be a political and a macho man who would overthrow the Romans and installed the Jewish rule. His advent would be a spectacular event and so on and so forth. They could never imagine that they themselves were not fit to receive him. The fittingly summed up their plight, “You will keep on hearing, but will not understand; you will keep on seeing, but will not perceive; for the heart of this people has become dull, with their ears they scarcely hear, and they have closed their eyes, otherwise they would see with their eyes, hear with their ears, and understand with their heart and return, and I would heal them” (Matt. 13:14-15).

In our life’s too we read Bible and search of its meaning in our life. We look for solution that is suitable and imaginable to us but God is beyond our intellect and he looks for lasting good and welfare of us. Hence let us read and receive the word with an open and simple heart.

-Fr. Ronald Vaughan


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Praise the Lord!