पास्का का सातवाँ सप्ताह - सोमवार



पहला पाठ : प्रेरित-चरित 19:1-8

1) जिस समय अपोल्लोस कुरिन्थ में था, पौलुस भीतरी प्रदेशों का दौरा समाप्त कर एफे़सुस पहुँचा। वहाँ उसे कुछ शिष्य मिले।

2) उसने उन से पूछा, "क्या विश्वासी बनते समय आप लोगों को पवित्र आत्मा प्राप्त हुआ था?" उन्होंने उत्तर दिया, "हमने यह भी नहीं सुना है कि पवित्र आत्मा होता है"।

3) इस पर उसने पूछा, "तो, आप को किसका बपतिस्मा मिला?" उन्होंने उत्तर दिया, "योहन का बपतिस्मा"।

4) पौलुस ने कहा, "योहन पश्चात्ताप का बपतिस्मा देते थे। वह लोगों से कहते थे कि आप को मेरे बाद आने वाले में-अर्थात् ईसा में- विश्वास करना चाहिए।"

5) उन्होंने यह सुन कर प्रभु ईसा के नाम पर बपतिस्मा ग्रहण किया।

6) जब पौलुस ने उन पर हाथ रखा, तो पवित्र आत्मा उन पर उतरा और वे भाषाएँ बोलते और भविष्यवाणी करते रहे।

7) वे कुल मिला कर लगभग बारह पुरुष थे।

8) पौलुस तीन महीनों तक सभागृह जाता रहा। वह ईश्वर के राज्य के विषय में निस्संकोच बोलता और यहूदियों को समझाता था

सुसमाचार : सन्त योहन 16:29-33

29) उनके शिष्यों ने उन से कहा, "देखिये, अब आप दृष्टांतो में नहीं, बल्ेिक स्पष्ट शब्दों में बोल रहे हैं।

30) अब हम समझ गये है कि आप सब कुछ जानते हैं- प्रश्नों की कोई ज़रूरत नहीं रह गयी है। इसलिये हम विश्वास करते हैं कि आप ईश्वर के यहाँ से आये हैं।

31) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, "क्या तुम अब विश्वास करते हो?

32) देखो! वह घडी आ रही है, आ ही गयी है। जब तुम सब तितर-बितर हो जाओगे और अपना-अपना रास्ता ले कर मुझे अकेला छोड दोगे। फिर भी मैं अकेला नहीं हूँ, क्योंकि पिता मेरे साथ है।

33) मैंने तुम लोगों से यह सब इसलिये कहा है कि तुम मुझ में शांति प्राप्त कर सको। संसार में तुम्हें क्लेश सहना पडेगा। परन्तु ढारस रखो- मैंने संसार पर विजय पायी है।

📚 मनन-चिंतन

अंततः शिष्यों ने सब कुछ समझना शुरू किया। प्रभु येसु ने कितनी बार उन्हें सब कुछ समझाया, कितनी बार उन्हें विश्वास करने के लिए प्रेरित किया, लेकिन विश्वास करने में वे बहुत मन्द थे। बहुत समय बाद, आख़िर में वे सब समझने लगे थे, वे समझने लगे थे कि प्रभु येसु पिता ईश्वर के पास से आए थे, अब उन्हें प्रभु की दैविक छवि के दर्शन हो गए थे, उन्होंने ईश पुत्र को पहचान लिया था, उन्हें जान लिया था।

जब हम प्रभु पहचान लेते हैं, उन्हें जान लेते हैं, उनमें विश्वास करना प्रारम्भ कर देते हैं, तब वास्तविक संघर्ष प्रारम्भ होता है। तभी हमारे विश्वास की, ईश्वर के प्रति हमारे प्रेम की परीक्षा प्रारम्भ होती है, और जो साहस के साथ डटे रहते हैं, वे सफल होते हैं। प्रभु येसु ने फरिसियों, शास्त्रियों और धर्म के नेताओं से तिरस्कार और विरोध का सामना किया। उन्होंने प्रभु की शिक्षाओं को नकार दिया, उन्होंने उनके अनुकरणीय जीवन को नकार दिया, निर्दोष होते हुए भी उन्होंने उन्हें अपराधियों वाली मौत दी। इन सभी परिस्थितियों में प्रभु येसु विजयी होकर निकले और चाहते हैं कि हम भी धैर्य के साथ उनका अनुसरण करें। आइए हम प्रभु से विनय करें कि हम हमारे जीवन की सारी चुनौतियों और विश्वास के संकटों का साहस के साथ सामना करें और विजयी होकर निकलें। आमेन।

- फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Finally the disciples come to their senses. No matter how hard Jesus tried to explain to them, tried to make them believe in him, but they were too slow. After a long time they understood everything, they understood that Jesus had come from the Father, they believed in the divinity of Christ.

When we come to know Jesus, when we start believing in him, then the challenge begins, the test of our faith, the test of our love towards God begins, and those who have courage and persist till the end, emerge victorious. Jesus faced the same trials and challenges from Pharisees and Scribes. They rejected him, they questioned his teachings, they questioned his way of life, they tortured him without any fault and they gave him a criminal’s death even without committing any crime. In all this he was victorious and he wants that we should have patience and follow him. Let us ask the Lord to give us courage to face all challenges and persecutions bravely and emerge victorious. Amen.

-Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)


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Praise the Lord!