काथलिक धर्मशिक्षा

ख्रीस्तीय नैतिकता

अमेरिका के रसायन एवं भूमि कार्यालय (Bureau of Chemistry and Soils) ने मानव शरीर में मौजूद रसद्रव्य एवं खनिज पदार्थों का परिकलन किया जिसमें यह पाया गया कि मनुष्य के शरीर में 65 प्रतिशत ऑक्सीजन, 18 प्रतिशत कार्बन, 10 प्रतिशत हाड्रोजन, 3 प्रतिशत नाइट्रोजन, 1.5 प्रतिशत कैल्सियम, 1 प्रतिशत फास्फोरस, 0.35 प्रतिशत पोटैषियम, 0.25 प्रतिशत गन्धक, 0.15 प्रतिशत सोडियम, 0.15 प्रतिशत क्लोरीन, 0.05 प्रतिशत मैग्नीषियम, 0.0004 प्रतिशत लोहा तथा 0.00004 प्रतिशत आयोडीन हैं। जापानी अन्वेषकों के अनुसार हमारे शरीर पर 14 से 18 वर्गफुट चमड़ी है। आप अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि इन चीज़ों की क्या कीमत मिल सकती है! लेकिन मनुष्य की कीमत का परिकलन इन चीज़ों के आधार पर नहीं किया जा सकता। मनुष्य का जीवन रहस्यमय है। उसके जीवन का उसके सृष्टिकर्त्ता की विशिष्ट योजना से तालूक है। मानव जीवन की विशिष्टता को बनाये रखने के लिए हरेक मनुष्य को कुछ मूल्यों तथा गुणों को अपने दैनिक जीवन में बढ़ावा देना आवष्यक है ताकि वह ईश्वर की योजना के अनुसार जीवन बिता सकें तथा ईश्वर के बताए हुए मार्ग पर चलकर मुक्ति प्राप्त कर सके।

ख्रीस्तीय नैतिकता का सारांष हमें कलोसियों के नाम संत पौलुस के पत्र, अध्याय 3 वाक्य 1 से 6 तक तथा 12 से 14 तक में मिलता है। “यदि आप लोग मसीह के साथ ही जी उठे हैं- जो ईश्वर के दाहिने विराजमान हैं- तो ऊपर की चीज़ें खोजते रहें। आप पृथ्वी पर की नहीं, ऊपर की चीज़ों की चिन्ता किया करें। आप तो मर चुके हैं, आपका जीवन मसीह के साथ ईश्वर में छिपा हुआ है। मसीह ही आपका जीवन हैं। जब मसीह प्रकट होंगे, तब आप भी उनके साथ महिमान्वित होकर प्रकट हो जायेंगे। इसलिए आप लोग अपने शरीर में इन बातों का दमन करें, जो पृथ्वी की है, अर्थात् व्यभिचार, अशुद्धता, कामुकता, विषयवासना और लोभ का, जो मूर्तिपूजा के सदृष है। इन बातों के कारण ईश्वर का कोप आ पड़ता है। . . . आप लोग ईश्वर की पवित्र एवं परमप्रिय चुनी हुई प्रजा है। इसलिए आप लोगों को अनुकम्पा, सहानुभूति, विनम्रता, कोमलता और सहनषीलता धारण करनी चाहिए। आप एक दूसरे को सहन करें और यदि किसी को किसी से कोई षिकायत हो, तो एक दूसरे को क्षमा करें। प्रभु ने आप लोगों को क्षमा कर दिया है। आप लोग भी ऐसा ही करें। इसके अतिरिक्त आपस में प्रेम-भाव बनाये रखें।”

प्रभु येसु हमें सांसारिक बातों से दूर रह कर स्वर्गराज्य की खोज करने की शिक्षा देते हैं (देखिए मत्ती 6:32)। वे हमें न केवल शिक्षा देते हैं, बल्कि हिम्मत बँधाते हुए आश्वासन भी देते हैं, “मैंने संसार पर विजय पाई है” (योहन 16:33)। ख्रीस्तीय नैतिकता सच्चा आनन्द प्रदान करती है (देखिए योहन 15:11)। ख्रीस्तीय विश्वासी को ईश्वर की संतान होने के नाते अपने जीवन तथा बुलाहट की प्रतिष्ठा को पहचानना चाहिए। हमारे ख्रीस्तीय विश्वास के आधार पर हमें कुछ नैतिक मूल्यों को स्वीकार करना चाहिए। संत पौलुस हमें सिखाते हैं कि हमारा शरीर पवित्र आत्मा का मन्दिर है। “क्या आप यह नहीं जानते कि आप ईश्वर के मन्दिर हैं और ईश्वर का आत्मा आपमें निवास करता है?“ (1 कुरिन्थियों 3:16) इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए संत पौलुस कहते हैं, “क्या आप लोग यह नहीं जानते कि आपका शरीर पवित्र आत्मा का मन्दिर है? वह आप में निवास करता है और आपको ईश्वर से प्राप्त हुआ। आपका अपने पर अधिकार नहीं है। क्योंकि आप लोग कीमत पर खरीदे गये हैं। इसलिए आप लोग अपने शरीर में ईश्वर की महिमा प्रकट करें“ (1 कुरिन्थियों 6:19-20)। यह शिक्षा हमें सिखाती हैं कि हमें शरीर की पवित्रता के विरुद्ध सभी पापों से दूर रहना चाहिए जैसे व्यभिचार, नषाबाजी, मादक पदार्थों का सेवन, धूम्रपान आदि।

हम कभी कभी किसी सड़क के चौराहे पर खड़े होते हैं और हमें यह पता नहीं रहता कि किस तरफ जाना चाहिए। ऐसे अवसर पर हम या तो किसी व्यक्ति से पूछते हैं कि हमें किस दिषा में आगे बढ़ना चाहिए या फिर हम मानचित्र का इस्तेमाल कर सही दिषा पर जा सकते हैं। शायद जिस रास्ते से आये थे उसी से वापस जाकर किसी दूसरे रास्ते पर पहुँचने की सलाह भी हमें कभी-कभी दी जाती है। हमारे आध्यात्मिक जीवन में कई दफ़ा ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं जब हमारी समझ में नहीं आता कि किस प्रकार या किस रास्ते से आगे बढ़ना चाहिए। इस बात को ध्यान में रखते हुए माता कलीसिया अपनी संतानों के समक्ष नैतिक मूल्यों को रखते हुए सही मार्गदर्शन देती रहती हैं कि वे सब के सब सही राह पर आगे बढ़ें। कलीसिया की महासभाओं के दस्तावेज़ तथा संत पापाओं के परिपत्रों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिये।

मुझे जो अच्छा लगता है, वह हमेषा ठीक नहीं हो सकता। जो हमें अच्छा लगता है, वह कभी-कभी अनैतिक हो सकता है। “कुछ लोग अपना आचरण ठीक समझते हैं, किन्तु वह अन्त में उन्हें मृत्यु की ओर ले जाता है।’’ (सूक्ति-ग्रन्थ 16:25) इसी कारण हमें केवल हमारी इच्छा-अनिच्छा के आधार पर नहीं, बल्कि विश्वास के आधार पर जीवन बिताना चाहिए। नैतिकता को मज़बूत बनाने में धर्म का बड़ा स्थान है। नास्तिक भी कुछ मूल्यों को अपनाता है, परन्तु जब तक वह ईश्वर रूपी सत्य को नकारता रहता है तथा ईश्वर को मानने से इनकार करता रहता है, उसकी नैतिकता परिपूर्ण नहीं हो सकती। ईश्वर ही नैतिकता का आधार है और परिपूर्णता भी; इसी कारण जो ईश्वर को नकारकर नैतिकता को स्वीकार करना चाहता है, वह बहुत बड़ी गलती कर बैठता है। नैतिकता और धर्म भिन्न है, परन्तु धर्म नैतिकता के लिए ऊँचे मानदण्ड सुनिष्चित करता है।

नैतिकता को कानून से अलग करना ज़रूरी है। कभी कभी कानून भी सच्चे नैतिक मूल्यों से दूर रहता है। ऐसी परिस्थिति में कानून को अस्वीकार करना विश्वासियों का दायित्व बन जाता है। उदाहरण के लिए एक ख्रीस्तीय विश्वासी भ्रूणहत्या, समलैंगिक संबंध, सुखमृत्यु आदि को कभी स्वीकार नहीं कर सकता, भले ही कानून उसका समर्थन करे। उसे हमेषा किसी भी कार्य या आचरण को अपनाने से पहले उसे सुसमाचारीय मूल्यों के तराज़ू पर तोलना चाहिए।

नैतिकता लोकप्रियता से भी भिन्न है। जो कुछ समाज में लोकप्रिय है, वह सब नैतिक दृष्टि से ठीक नहीं ठहराया जा सकता है। लोग व्यवहार के आसान तरीकों को पसन्द करते हैं। प्रभु येसु की शिक्षा कई श्रोताओं को कठिन लगी और वे उन्हें छोड़कर चले गये। ख्रीस्तीय विश्वास में कई तत्व ऐसे हैं जो लोकप्रिय नहीं बन सकते हैं क्योंकि उसे व्यवहार में लाना मुष्किल है। इसी कारण प्रभु कहते हैं, “सँकरा है वह द्वार और संकीर्ण है वह मार्ग, जो जीवन की ओर ले जाता है। जो उसे पाते हैं, उनकी संख्या थोड़ी है।” (मत्ती 7:14) ईश्वर ने सोदेम और गोमारा का नाश इसलिए किया कि वहाँ के लोग पापी थे। उन नगरों में से ईश्वर ने सिर्फ लोट के परिवार के चार सदस्यों को ही बचाया था। नूह के समय जब जलप्रलय हुआ, तो ईश्वर ने सिर्फ आठ लोगों को ही बचाया था।

मनुष्य एक स्वतन्त्र प्राणी है। स्वतन्त्रता, विवेक और इच्छाशक्ति पर आधारित, करने या न करने, यह या वह करने की शक्ति है। इसी शक्ति से मनुष्य ज़िम्मेदारी के साथ कार्य करता है। स्वतन्त्रता का उपयोग कर मनुष्य अपने जीवन को आकार देता है। स्वतन्त्रता सच्चाई और अच्छाई में बढ़ने और परिपक्व बनने में मनुष्य की सहायता करती है। ईश्वर की ओर बढ़ने पर स्वतन्त्रता परिपूर्णता तक पहुँचती है। इस दुनिया में जीवन बिताते समय मनुष्य के सामने भलाई या बुराई को अपनाने तथा परिपूर्णता की ओर बढ़ने या पाप में गिरने का विकल्प रहता है। मनुष्य के चयन के आधार पर उसके कार्यों का मूल्यांकन किया जाता तथा उसकी सराहना या निन्दा की जाती है। लगातार भलाई का चयन करने पर मनुष्य आध्यात्मिक रीति से स्वतन्त्र बनता जाता है। वास्तव में जो व्यक्ति बुराई का चयन करता है, वह अपनी स्वतन्त्रता का सदुपयोग नहीं करता है, लेकिन वह अपने आपको पाप का गुलाम बनाता है। स्वतन्त्रता मनुष्य को अपने कर्म के लिए ज़िम्मेदार बनाती है। कभी कभी अज्ञानता तथा भय के कारण मनुष्य के दुष्कर्मों की आरोप्यता (imputability) कम होती है। बुराई करने की आदत, आसक्ती और अन्य मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक तत्वों के कारण भी व्यक्ति की आरोप्यता कम हो सकती है। जब एक व्यक्ति जान-बूझकर कोई बुरा कर्म करता है तो उसी व्यक्ति को उस कार्य के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। हेवा, काईन और दाऊद के पाप करने पर ऐसा ही हुआ था (देखिए उत्पत्ति 3:13; 4:10; 2 समुएल 12:7-9)।

प्रत्येक मानव स्वतन्त्र तथा जिम्मेदार माना जाता है और इसी कारण मनुष्य को एक दूसरे का आदर करना चाहिए। उसे अपने जीवन के हरेक क्षेत्र में विशेषतः नैतिक तथा धार्मिक क्षेत्र में स्वतन्त्रता का उपयोग करने का अधिकार है। मनुष्य ने अपनी स्वतन्त्रता का दुरुपयोग कर पाप किया। उसने ईश्वर की योजना का तिरस्कार कर अपने आप को धोखा दिया। यह बड़ी गलती होगी कि कोई यह सोचे कि वह कुछ भी बोलने या करने के लिए स्वतन्त्र है। इस प्रकार की विचारधारा वास्तव में गुलामी ही दर्षाती है। सच्ची स्वतन्त्रता दूसरों की भलाई तथा ईश्वर की इच्छा के पालन का ख्याल रखती है। प्रभु ख्रीस्त ने अपने क्रूसमरण तथा पुनरुथान के द्वारा मनुष्य को स्वतन्त्र बनाया है। उन्होंने हमें पवित्र आत्मा का वरदान दिया है और जहाँ पवित्र आत्मा है, वहाँ स्वतन्त्रता है (2 कुरिन्थियों 3:17)।

एक कार्य की नैतिकता तीन बिन्दुओं पर निर्भर हैः कार्य जो चुना गया है, उद्देश्य तथा कर्म करने की परिस्थिति। कुछ कार्य मूलभूत रूप से ही बुरे हैं जैसे ईश-निन्दा, झूठी कसम, हत्या और व्यभिचार। इन कार्यों का उद्देश्य कुछ भी हो, वे अपने ही में गलत कार्य माने जाते हैं। अपने अन्तकरण की गहराई में मानव एक ऐसे कानून को पाता है जिसका पालन करना उसका कर्त्तव्य बनता है। सत्य और प्रेम के कार्य करने तथा बुराई के कार्यों को छोड़ने को प्रेरित करनेवाली उसकी आवाज़ सही समय पर सुनाई पड़ती है। इस प्रकार मनुष्य अपने अन्तरतम में ही ईश्वर के कानून को अंकित पाता है। अन्तकरण मनुष्य के भीतर का सबसे पवित्र स्थान है। वहाँ वह ईश्वर के साथ एक हो जाता है। मनुष्य के भीतर का नैतिक अन्तकरण समय-समय पर मनुष्य को उपयुक्त मार्गदर्शन देता रहता है। स्वयं की जाँच तथा अन्तर्दर्शन अन्तकरण की आवाज़ सुनने के लिए सहायक सिद्ध होते हैं। माता-पिताओं तथा शिक्षाकों का यह विशेष कर्त्तव्य बनता है कि वे बच्चों के अन्तकरण के संतुलित विकास में मदद करें। अन्तकरण के विकास के लिए सर्वोत्तम तथा सबसे प्रभावषाली सहायता पापस्वीकार संस्कार में मिलती है। यह संस्कार विश्वासी ख्रीस्तीयों के अन्तकरण के विकास में सभी मनोवैज्ञानिक, समाजषास्त्री तथा शैक्षणिक तरीकों से ज़्यादा मदद करता है। इसलिए सभी विश्वासियों को इस संस्कार को बार-बार ग्रहण करना चाहिए।

बार-बार पाप करने से अन्तकरण एक प्रकार से निष्क्रिय बन जाता है। जो अपने जीवन में ख्रीस्तीय नैतिक संतुलन को बनाये रखता है, उसे ही पाप के बोझ का एहसास होता है। जिस प्रकार पानी में डुबकी लगाने वाले व्यक्ति को पानी के नीचे रहते समय अपने ऊपर के पानी के बोझ का एहसास नहीं होता, उसी प्रकार जो पाप में डूबे रहते हैं उन्हें पाप के भार का एहसास नहीं होता। परन्तु जो व्यक्ति पानी का घड़ा ले कर चलता है उसे पानी के भार का एहसास अवष्य होता है।

ख्रीस्तीय विश्वासी को स्वेच्छाचार (licentiousness) तथा पापशंकालुता (scrupulosity) से छुटकारा पाना ज़रूरी है। स्वेच्छाचारी किसी भी कार्य को पाप मानने से इनकार करता है। इसके बिलकुल विपरीत, पापषंकालुता भी मनुष्य के आध्यात्मिक विकास में बाधा बन सकती है। पापशंकालुता का तात्पर्य उस प्रवृत्ति से है जिसके कारण हर कार्य पर व्यक्ति को यह चिंता रहती है कि कहीं यह पाप तो नहीं है। यह प्रवृत्ति उस में भय और दोषी होने का शक उत्पन्न करती तथा उसके विकास में बाधा डालती है। संत पौलुस का कहना है, “जो कुछ सच है, आदरणीय है; जो कुछ न्यायसंगत है, निर्दोष है; जो कुछ प्रीतिकर है, मनोहर है; जो कुछ उत्तम है, प्रषंसनीय हैः ऐसी बातों का मनन किया करें” (फिलिप्पियों 4:8)

सद्गुणों को अपने व्यक्तित्व में विकसित करना सभी विश्वासियों का दायित्व है। सदगुण सदैव भलाई करने की तत्परता है जिससे कोई भी भला कार्य सरलता से किया जा सकता है। विश्वास, भरोसा तथा प्रेम ईश्वरपरक सद्गुण माने जाते हैं। “विश्वास उन बातों की स्थिर प्रतीक्षा है, जिनकी हम आशा करते हैं और उन वस्तुओं के अस्तित्व के विषय में दृढ़धारणा है, जिन्हें हम नहीं देखते।“ (इब्रानियों 11:1) इसी सद्गुण की मदद से हम ईश्वर, उनकी योजना और उनके वचनों पर विश्वास कर पाते हैं। भरोसा ईश्वर में हमारी आशा-पूर्ति का दृढ़ विश्वास है। ईश्वर ही हमारी आशा का स्रोत हैं (देखिए रोमियों 15:14) और प्रभु येसु ख्रीस्त ही हमारी सबसे महान आशा है (देखिए 1 तिमथी 1:1)। इसी सद्गुण से प्रेरित होकर मनुष्य स्वर्गराज्य तथा अनन्त जीवन पर भरोसा रखता है। प्रेम ईश्वर का सत्व है। ईश्वर तथा पड़ोसी का प्रेम ख्रीस्तीय धार्मिकता की पहचान है। ईश्वरपरक सद्गुणों में प्रेम सबसे महान है। (देखिए 1 कुरिन्थियों 13:13)। ईश्वरपरक सद्गुणों का सीधा-सीधा संबंध ईश्वर से है।

विवेक, संयम, न्याय और धैर्य मूल सद्गुण माने जाते हैं क्योंकि ये सद्गुण अच्छे मानव जीवन की पक्की नींव डालते हैं। विवेक हमें दैनिक जीवन में अपने लक्ष्य के चयन और लक्ष्य तक पहुँचने के लिए साधनों के अच्छे चयन के लिए सक्षम बनाता है। संयम वह सद्गुण है जिसके द्वारा हम दुनियावी वस्तुओं का संतुलित रीति से इस्तेमाल कर सकते हैं तथा सांसारिकता से बचे रहते हैं। न्याय ईश्वर तथा पडोसी को उनके दातव्य देने की क्षमता है। धैर्य संकट तथा मुसीबत के समय दृढ़ता तथा मनोबल के साथ सही राह पर आगे बढ़ने की क्षमता है।

मनुष्य ने अपने पाप से अपने नैतिक संतुलन को बिगाड़ दिया है। प्रभु येसु ख्रीस्त में जो मुक्ति हमें उपलब्ध है वह पुनः नैतिक मूल्यों के अनुधावन करने के लिए हमें सक्षम बनाती है। हमें अपने नैतिक संतुलन को बनाए रखने के लिए ईश्वर की कृपा की बड़ी ज़रूरत है।

प्रश्न:-
1. कलीसिया विश्वासियों के समक्ष नैतिक मूल्यों को क्यों प्रस्तुत करती है?
2. ख्रीस्तीय जीवन में अंतःकरण का क्या महत्व है?
3. अन्तकरण के विकास के लिए ख्रीस्तीयों को सबसे प्रभावषाली मदद कहाँ से मिल सकती है?
4. आध्यात्मिक स्वतंत्रता की परिभाषा दीजिये।
5. कार्य की नैतिकता किन-किन बिन्दुओं पर निर्भर है?
6. ख्रीस्तीय विश्वासियों को स्वेच्छाचार तथा पापषंकालुता से क्यों बच कर रहना चाहिये?
7. ईश्वरपरक सद्गुण कौन-कौन से हैं?
8. मूल सद्गुण कौन-कौन से हैं?


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