काथलिक धर्मशिक्षा

परिपूर्ण बनने की चुनौती।

समूहों में चर्चा कीजिए
इस घटना को पढ़िए और निम्न प्रश्नों के उत्तर दीजिए।

मशहूर फ्रांसीसी मूर्तिकार, अगस्त रॉडिन (Auguste Rodin 1840-1917) अपने जीवन के अंतिम दिनों में एक दिन एक मूर्ति, जिसे बनाने का कार्य उन्होंने उसी समय पूरा किया था, के सामने खड़े होकर रो रहे थे। यह देखकर एक व्यक्ति ने उनसे कहा, “यह मूर्ति तो एक दम परिपूर्ण दिख रही है। फिर आप क्यों रो रहे हैं?” तब उस कलाकार ने जवाब दिया, “आपने सही कहा, मुझे भी यह एकदम परिपूर्ण दिख रही है और इसी कारण मैं रो रहा हूँ”। उस कलाकार की कल्पना की पूर्ति तथा उनके सपने का साकार होने का समय आ चुका था। इसी वास्तविकता को समझकर वह रो रहा था।

प्रश्न:
1. आपको इस कहानी से क्या सबक मिलता है?
2. क्या आपने कभी परिपूर्ण बनने का सपना देखा है?
3. आप के अनुसार एक परिपूर्ण व्यक्ति की कौन-कौन सी विशेषताएं हैं?

ईश्वर ने अपनी प्रज्ञा के अनुसार मनुष्य की सृष्टि की। उन्होंने मनुष्य को अपने प्रतिरूप और सदृष बनाया। उन्होंने मनुष्य के लिए उसकी भलाई को सामने रखते हुए एक योजना बनाई। लेकिन मुनष्य के लिये ईश्वर की योजना तब बिगड़ गयी जब मनुष्य ने ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध पाप किया। पाप के पहले आदम और हेवा ईश्वर की कृपा के सहभागी थे।

प्रभु का षिष्य बनना आसान नहीं है। प्रभु कहते हैं, “मैं तुम लोगों से कहता हूँ- यदि तुम्हारी धार्मिकता शास्त्रियों और फरीसियों की धार्मिकता से गहरी नहीं हो, तो तुम स्वर्गराज्य में प्रवेश नहीं करोगे।” (मत्ती 5:20) प्रभु येसु ख्रीस्त हमें परिपूर्ण बनने का आह्वान देते हैं। “तुम पूर्ण बनो, जैसा तुम्हारा स्वर्गिक पिता पूर्ण है” (मत्ती 5:48)। प्रभु येसु अपने जीवन में पुराने विधान के नियमों को परिपूर्णता तक पहुँचा देते हैं। उन्होंने कहा, “यह न समझो कि मैं संहिता अथवा नबियों के लेखों को रद्द करने आया हूँ। उन्हें रद्द करने नहीं बल्कि पूरा करने आया हूँ।” (मत्ती 5:17) प्रभु येसु ही परिपूर्ण मानव हैं। “संहिता के समाप्त हो जाने के बाद ईश्वर की शपथ के अनुसार वह पुत्र पुरोहित नियुक्त किया जाता है, जिसे सदा के लिए परिपूर्ण बना दिया है” (इब्रानियों 7:28)। ईश्वर परिपूर्ण हैं और ईश्वरीय जीवन के सहभागी बनने के लिए हमें भी परिपूर्ण बनने का प्रयत्न करना चाहिए।

कभी कभी यह प्रश्न उठता है कि क्या मनुष्य परिपूर्ण बन सकता है? सन्त योहन के अनुसार हम सब पापी हैं (देखिए 1 योहन 1:8-10)। जापानी कहावत है कि बन्दर भी पेड से गिरता है। बहुत भला व्यक्ति भी पाप में गिर सकता है। इस प्रकार परिपूर्ण बनना असंभव-सा दिखाई देता है। सन्त पौलुस की भी जो प्रभु के बहुत करीब थे यह कहने की हिम्मत नहीं थी वे परिपूर्णता तक पहुँच गये हैं। वे कहते हैं, “मैं यह नहीं कहता कि मैं अब तक यह सब कर चुका हूँ या मुझे पूर्णता प्राप्त हो गई है! किन्तु मैं आगे बढ़ रहा हूँ ताकि वह लक्ष्य मेरी पकड़ में आये, जिसके लिए ईसा मसीह ने मुझे अपने अधिकार में ले लिया।” (फिलिप्पियों 3:12) फिर भी वे पीछे नहीं हटते हैं, बल्कि उत्सुकता से स्वर्ग में पुरस्कार पाने की आशा के साथ अपने लक्ष्य की ओर अपनी दौड़ को जारी रखते हैं। यही बात उन्हें यह कहने के काबिल बनाती है, “आप लोग मेरा अनुसरण करें जिस तरह मैं मसीह का अनुसरण करता हूँ” (1 कुरिन्थियों 11:1)। हमें ख्रीस्त की चुनौती को स्वीकार करते हुए परिपूर्ण बनने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए।

परिपूर्ण बनने के लिए प्रयासरत रहने का अर्थ है ईश्वरीय राज्य की खोज करते रहना। सन्त पौलुस कहते हैं कि हमें ऊपर की बातों को खोजते रहना चाहिए (देखिए कलोसियों 3:1)। वे कहते हैं, “आप पृथ्वी पर की नहीं, ऊपर की चीज़ों की चिन्ता किया करें” (कलोसियों 3:2)। वास्तव में परिपूर्णता का वरदान ईश्वर ही दे सकता है क्योंकि सभी उत्तम दान और सभी पूर्ण वरदान ईश्वर से ही आते है (देखिए याकूब 1:17)। प्रभु येसु हमेषा के लिए परिपूर्ण बनाये गये हैं (देखिए इब्रानियों 2:10; 5:9; 7:28)। इसके लिये उन्होंने अपने को दीन-हीन बना लिया था तथा क्रूस पर मरने तक वे अपने पिता के आज्ञाकारी बने रहे। इस पर ईश्वर ने उन्हें महान बनाकर उन्हें सर्वश्रेष्ठ नाम प्रदान किया। यही परिपूर्ण बनने का तरीका है। जो परिपूर्ण बनना चाहते हैं उन्हें अपने आप को न्यौछावर करना चाहिये। इसी कारण प्रभु ने कहा था, “जब तक गेहूँ का दाना मिट्टी में गिर कर मर नहीं जाता तब तक वह अकेला ही रहता है; परन्तु जब वह मर जाता है तो वह बहुत फल देता है। जो अपने जीवन को प्यार करता है वह उसका सर्वनाश करता है और जो संसार में जीवन से बैर करता है, वह उसे अंनत जीवन के लिये सुरक्षित रखता है।” (योहन 12:23-25) इस प्रकार परिपूर्ण बनने के लिये स्वयं को शून्य बनाना है। यही स्वर्गराज्य के योग्य व्यवहार का रहस्य है। अपने को शून्य बनाने के व्यावहारिक तरीके प्रभु येसु स्वयं हमें सिखाते हैं।

परिपूर्णता का लक्ष्य रखने वाले व्यक्ति को परिपूर्णता के योग्य आचरण करना चाहिये। (पढ़िए मत्ती 5:38-48) एक साधारण व्यक्ति पड़ोसी से प्रेम करता है और शत्रुओं से बैर। जो परिपूर्ण होना चाहता है, उसे शत्रुओं से भी प्रेम करना चाहिए तथा अत्याचारियों के लिए प्रार्थना करना चाहिए। प्रभु येसु का कहना है कि हमें हमारे स्वर्गिक पिता जो “भले और बुरे, दोनों पर अपना सूर्य उगाता तथा धर्मी और अधर्मी, दोनों पर पानी बरसाता है”, की सन्तान की तरह व्यवहार करना चाहिए। जो पूर्ण बनना चाहता है, वह विभिन्न प्रकार के व्यवहार नहीं करता है। वह अपना पूरा व्यवहार ईश्वरीय इच्छा के अनुरूप बनाने की कोषिष करता रहता है। वह मित्रों तथा शत्रुओं के साथ एक ही प्रकार का व्यवहार करता है। धनी और गरीब - दोनों को बराबर आदर देता है। इसी बात को दर्षाते हुए सन्त याकूब सवाल करते हैं, “यदि आप कीमती वस्त्र पहने व्यक्ति का विशेष ध्यान रख कर उस से कहें -“आप यहाँ इस आसन पर विराजिए” और कंगाल से कहें -“तुम वहाँ खडे़ रहो” या “मेरे पाँवदान के पास बैठ जाओ” तो क्या आपने अपने मन में भेदभाव नहीं आने दिया और गलत विचार के अनुसार निर्णय नहीं दिया।” (याकूब 2:3-4) स्वर्गिक पिता ही हमारे लिए परिपूर्णता का नमूना हैं।

हमें प्रतिकार नहीं करना चाहिए बल्कि बुराई करने वालों की भी भलाई करनी चाहिए। संत पौलुस कहते है, “आप स्वयं बदला न चुकाये, बल्कि उसे ईश्वर के प्रकोप पर छोड़ दे; क्योंकि लिखा है- प्रभु कहता हैः प्रतिशोध मेरा अधिकार है, मैं ही बदला चुकाऊँगा। इसलिये यदि आपका शत्रु भूखा है तो उसे खिलायें और यदि वह प्यासा है, तो उसे पिलायें; क्योंकि ऐसा करने से आप उसके सिर पर जलते अंगारों का ढेर लगायेंगे। आप लोग बुराई से हार न माने बल्कि भलाई द्वारा बुराई पर विजय प्राप्त करे।” (रोमियों 12:19-21)

शुद्धता के बारे प्रभु का यह कहना है कि इतना काफी नहीं है कि कोई व्यभिचार न करे, बल्कि उसे बुरी इच्छा से किसी स्त्री पर दृष्टि तक नहीं डालना चाहिए। (पढ़िए मत्ती 5:27-30) प्रभु की यह भी शिक्षा है कि किसी को अपनी पत्नी का परित्याग नहीं करना चाहिए। विवाह एक पवित्र और अटूट बंधन है। ईश्वर ही पति-पत्नियों को एक बनाते हैं। जिन्हें ईश्वर जोडते हैं, उन्हें अलग करने का किसी का अधिकार नहीं है। प्रभु येसु की शिक्षा के अनुसार सब बुराईयाँ मनुष्य के भीतर से निकलती है। प्रभु कहते हैं, “जो मनुष्य में से निकलता है, वही उसे अशुद्ध करता है। क्योंकि बुरे विचार भीतर से, अर्थात् मनुष्य के मन से निकलते हैं। व्यभिचार, चोरी, हत्या, परगमन, लोभ, विद्वेष, छल-कपट, लम्पटता, ईर्ष्या, झूठी निन्दा, अहंकार और मूर्खता- ये सब बुराईयाँ भीतर से निकलती हैं और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं।” (मारकुस 7:21-23)। जो परमपिता जैसे परिपूर्ण बनना चाहता है, उसे अपने को अन्दर से ही पवित्र रखना चाहिए।

हमें जो बात करनी है उसे सोच समझकर करनी चाहिए। अगर किसी को शपथ खाना पड़ता है तो यह अविश्वसनीयता को दर्शाता है। हमारी बातें अच्छी और विश्वसनीय होनी ज़रूरी है। इसी कारण प्रभु कहते हैं, “मैं तुम से कहता हूँ शपथ कभी नहीं खाना चाहिए- न तो स्वर्ग की, क्योंकि वह ईश्वर का सिंहासन है न पृथ्वी की, क्योंकि वह उसका पावदान है न येरूसालेम की, क्योंकि वह राजाधिराज का नगर है। और न अपने सिर की क्योंकि तुम इसका एक भी बाल सफेद या काला नहीं कर सकते। तुम्हारी बात इतनी हो-हाँ की हाँ, नहीं की नहीं। जो इससे अधिक है, वह बुराई से उत्पन्न होता है।” (मत्ती 5:34-37)

परिपूर्ण बनने के लिए हमें गरीबों की सेवा करना चाहिए। (पढ़िए मत्ती 19:16-22) धनी युवक दस आज्ञाओं का पालन तो कर रहा था। लेकिन प्रभु येसु उसमें एक कमी देखते हैं- उसके पास बहुत सम्पत्ति थी, परन्तु उसने गरीबों की मदद नहीं की। वह अपनी पूरी सम्पत्ति अपनी ही आरामदायक ज़िन्दगी तथा सुख-लोलुपता के लिए खर्च कर रहा था। जब प्रभु ने उसे यह सुझाव दिया कि वह अपनी सम्पत्ति बेच कर गरीबों को दे दे, तो वह परिपूर्ण बनने की अपनी इच्छा को ही त्याग देता है क्योंकि अपनी सम्पत्ति से अलग होना उसके लिए असंभव हो गया था। उसने ईश्वर से ज्यादा अपनी सम्पत्ति से प्यार किया। कलीसिया में भिक्षा-दान को बहुत महत्व दिया जाता है। हरेक को अपनी आमदनी में से कुछ हिस्सा इस कार्य के लिए उपयोग करना ज़रूरी है। ऐसा दान, जहाँ तक हो सके, गुप्त रहे (देखिए मत्ती 6:1-4)।

सन्त याकूब कहते हैं, “धैर्य को पूर्णता तक पहुँचने दीजिए, जिससे आप लोग स्वयं पूर्ण तथा अनिन्द्य बन जायें और आप में किसी बात की कमी नहीं रहें” (याकूब 1:4)।

पूर्ण बनने के लिए कठोर परिश्रम करने के बावजूद भी हमें यह ज्ञात होता है कि हम परिपूर्ण नहीं बन पाये हैं। यह हमें ईश्वर की दया तथा करुणा पर भरोसा रखने के लिए प्रेरित करता है। प्रभु येसु की पुरोहिताई के द्वारा हम पूर्णता तक पहुँच सकते हैं। (देखिए इब्रानियों 7:11; 9:9-10) “वह जिन लोगों को पवित्र करते हैं, उन्होंने उन को एक ही बलिदान द्वारा सदा के लिए पूर्णता तक पहुँचा दिया है” (इब्रानियों 10:14)।

हम पूर्ण तब बनते हैं जब हम ईश्वरीय योजना के अनुरूप अपने जीवन को बिताते हैं। ईश्वर ही हमें इस परिपूर्णता तक पहुँचा सकते हैं। वास्तव में ’परिपूर्ण बनना’ करने या न करने की बात नहीं है। वह बनने या बिगड़ने की बात है। यह एक मनोभाव को दर्शाता है, एक मूल्य-व्यवस्था को दर्शाता है। जब हम स्वर्गराज्य की ओर हमारी यात्रा में जिम्मेदारी के साथ अपनी भूमिका निभाते हैं तब हम, सब कुछ को परिपूर्ण बनानेवाले ईश्वर को सहयोग देते हैं। यही परिपूर्ण बनने का प्रयास है।


प्रश्न:-
1. हमें परिपूर्ण क्यों बनना चाहिए?
2. प्रभु येसु यह क्यों कहते हैं कि हमारी धार्मिकता शास्त्रियों तथा फरीसियों की धार्मिकता से गहरी होनी चाहिए?
3. परिपूर्ण बनने के लिए हमें क्या-क्या करना चाहिए?
4. कौन हमें परिपूर्ण बना सकता है?
5. परिपूर्ण बनने में हमारा आदर्ष कौन है?
6. ’’परिपूर्ण बनना करने या न करने की बात नहीं है, वह बनने या बिगडने की बात है।’’ इस कथन का अर्थ समझाइए।


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