संत जोसेफ की सार्वभौमिक कलीसिया के संरक्षक के रूप में
50 वीं वर्षगाँठ पर उद्घोषण के अवसर पर


संतपिता फ्रांसिस का परिपत्र
पात्रिस कोर्देस

अनुवादक:- फादर जॉन दीपक सुल्या, एसवीडी

पिता के साथ एक हृदय: जो यह दर्शाता है कि किस तरह जोसेफ ने येसु को प्यार किया, जिसका उल्लेख करते हुए चारों सुसमाचार कहते हैं यूसुफ का बेटा । [1]

दो सुसमाचार लेखक मत्ती और लूकस, जोसेफ के बारे में काफी वर्णन करते हैं, फिर भी हमें उनके बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है, तो भी समझने के लिए पर्याप्त है कि जोसेफ किस तरह के पिता थे, और ईश्वर के विधान द्वारा उन्हें किस प्रकार का मिशनकार्य सौंपा गया था।

हम जानते हैं कि जोसेफ एक विनम्र बढ़ई थे (मत्ती 13:55) जिनकी मंगनी मरियम के साथ हुई थी (मत्ती 1:18; लूकस 1:27)। ' वे एक धर्मी व्यक्ति थे, (मत्ती 1:19) और वे हमेशा ईश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए तैयार रहते थे जैसा उन्हें विधिवत प्रकट किया गया था (लूकस 2:22,27,39) और साथ ही चार सपनों के द्वारा दर्शाया गया था (मत्ती 1:20; 2:13,19,22)। नाज़रेत से बेथलेहेम की एक लम्बी यात्रा के बाद उन्होंने मसीहा की गोशाला को देखा, क्योंकि और कहीं “उनके लिए जगह नहीं थी (लूकस 2:7)। उन्होंने चरवाहों (लूकस 2:8-20) तथा ज्योतिषियों (मत्ती 22:1-12) की आराधना को देखा, जिन्होंने इस्राएल की प्रजा तथा अन्य लोगों का प्रतिनिधित्व किया था।

जोसेफ में प्रभु येसु के पालक पिता बनने का साहस था, जिन्हें उसने स्वर्गदूत द्वारा प्रदत्त नाम दिया; “आप उसका नाम येसु रखेंगे, क्योंकि वे अपने लोगों को उनके पापों से मुक्त करेगा (मत्ती 1:21)। जैसा कि हम जानते हैं, प्राचीन काल के लोगों के लिए, किसी व्यक्ति अथवा चीज़ को नाम देने का अर्थ उनसे सम्बन्ध जोड़ना था, जैसा आदम ने उत्पत्ति ग्रन्थ में किया था (उत्पत्ति ग्रन्थ 2:19-20)।

येसु के जन्म के चालीस दिनों के पश्चात्, जोसेफ और मरियम ने अपने बालक को मन्दिर में, प्रभु को अर्पित किया और येसु और उसकी माता से सम्बन्धित सिमियोन की भविष्यवाणी विस्मित होकर सुनी (लूकस 2:22-35)। येसु की हेरोद से रक्षा करने के लिए, जोसेफ ने एक परदेशी बनकर मिस्रदेश में निवास किया (मत्ती 2:13-18)। अपने देश वापस लौटने के पश्चात्,वे अपने पूर्वजों के नगर बेथलेहेम, येरुसलेम तथा मन्दिर से दूर गोपनीय ढंग से गलीली के नाज़रेथ नामक एक छोटे गाँव में रहे। नाज़रेथ के बारे में कहा गया था कि, गलीलिया में नबी उत्पन्न नहीं होता (योहन 7:52) और वास्तव में, क्या नाज़रेथ से भी कोई अच्छी चीज़ आ सकती है? (योहन 1:46)। जब, येरुसलेम की यात्रा के दौरान, जोसेफ और मरियम को अपने बारह वर्षीय बेटे येसु के उनसे बिछुड़ने का आभास हुआ, तब उन्होंने उसे बड़ी बचैनी से ढूँढ़ा, और उसे मन्दिर में, शाखियों के बीच सवाल-जवाब करते हुए पाया (लूकस 2:41-50)।

ईश्वर की माता मरियम के अलावा, और किसी संत का सन्दर्भ कलीसियाई शिक्षाओं में नहीं मिलता जितना उसके शुद्ध वर संत जोसेफ के बारे में मिलता है। मेरे पूर्ववर्ती संतपिताओं ने मुक्ति के इतिहास में उनकी मुख्य भूमिका की सराहना करते हुए सुसमाचारों में उपलब्ध जानकारी पर मनन-चिन्तन किया । धन्य पीयुष नौवें ने उन्हें 'केथोलिक कलीसिया के संरक्षक के रूप में घोषित किया, [2] परम पूजित पीयुष बारहवें ने उन्हें ' श्रमिकों के संरक्षक के रूप में घोषित करने के लिए सुझाव दिया, [3] और संत जॉन पॉल द्वितीय ने उन्हें 'मुक्तिदाता के पालक [4] के रूप में घोषित किया | संत जोसेफ से वैश्विक तौर पर “सुखद मृत्यु के संरक्षक के रूप में अह्वान किया जाता है। [5]

अब, उन्हें धन्य पीयुष नौवें के द्वारा (8 दिसम्बर 1870) को केथोलिक कलीसिया के संरक्षक के रूप में घोषित किए जाने के एक सौ पचास वर्षों के बाद, मैं इस महान हस्ती के बारे में, अपने विचार साझा करना चाहता हूँ जो मानवीय अनुभवों से मेल खाते हैं। क्योंकि, जैसा प्रभु येसु कहते हैं, ' जो हृदय में भरा है, वही तो मुँह से बाहर आता है। (मत्ती 12:34) वर्तमान महामारी के दौरान ऐसा कुछ करने की मेरी तीव्र इच्छा जागृत हुई, जिसे हम इस संकट की घड़ी में अनुभव कर रहे हैं कि, ' कैसे हमारे जीवन के पल एकदूजे के साथ बुने हुए और आम लोगों के द्वारा स्थिर किए जाते हैं, जिन्हें बहुधा नज़रअन्दाज़ किया गया। ऐसे लोग जो कभी समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं की सुर्खियों, या फिर टी.वी. के मनमोहक कार्यक्रमों में नहीं आते, वे ही इन दिनों सही रूप में हमारे इतिहास को निर्णायक घटनाओं से रच रहे हैं। डॉक्टर्स, नर्स, दुकानदार, सुपरमार्केट कर्मचारी, सफाईकर्मी, यातायात कर्मचारी, आवश्यक सेवाओं में कार्यरत महिलाएँ एवं पुरुष, स्वयंसेवी, पुरोहितगण, सभी समर्पित महिला एवं पुरुष और सभी अन्य कार्यकर्ता | वे समझ गये हैं कि कोई भी अकेला मुक्ति नहीं पा सकता है ... कितने लोग प्रतिदिन धैर्य रखते हुए आशा की किरणे जगाते हैं, कितने लोग आतंक के बदले सुरक्षा बरतते हैं, लेकिन ये सब सामूहिक ज़िम्मेदारी है। कई माँ- बाप, दादा-दादी, नाना-नानी और शिक्षकगण हमारे बच्चों को छोटी-छोटी दैनिक गतिविधियों द्वारा जीने का तरीका बता रहे हैं, वे सिखा रहे हैं कि संकट के समय कैसे अपने कार्यक्रमों को सुव्यवस्थित करें साथ ही उन्हें प्रार्थना करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं । कई लोग हैं जो त्याग-तपस्या करते हुए सबों की भलाई के लिए प्रभु से प्रार्थना कर रहे हैं।' [6] हममें से हर एक संत जोसेफ के जीवन में अपनी झलक देख सकता है - ऐसा व्यक्ति जिसकी कोई परवाह नहीं करता,विनम्र तथा अदृश्य उपस्थिति - मध्यस्थ, समर्थक तथा बुरे वक्त पर सहारा | संत जोसेफ हमें याद दिलाते हैं कि जो गुप्त या मौन रूप से कार्य करते रहते हैं वे मुक्ति के इतिहास में अतुलनीय भूमिका निभा सकते हैं। वे सब अनुमोदन तथा कृतज्ञता भरे दो शब्दों के हकदार हैं।/

1. एक प्रिय पिता

संत जोसेफ की महानता इसमें है कि वे माता मरियम के वर तथा येसु के पालक पिता थे। इस प्रकार उन्होंने स्वयं को, संत जॉन ख़िसोस्तम के शब्दों में, ' सम्पूर्ण मुक्ति योजना की सेवा में प्रस्तुत किया। [7]

संतपिता पौलुस छटे ने बताया कि संत जोसेफ ने ' अपने जीवन को मुक्ति विधान की त्यागमयी सेवा एवं प्रयोजन का हिस्सा बनाकर * अपने पितृत्व को ठोस रूप से अभिव्यक्त किया। उन्होंने पवित्र परिवार पर अपना मौलिक अधिकार दर्शाते हुए स्वयं तथा सभी कार्यों को उनकी सेवा में समर्पित कर दिया, साथ ही उन्होंने अपनी पारिवारिक बुलाहट को अलौकिक बलिदान में परिवर्तित कर दिया, उनका हृदय तथा उनकी सभी योग्यताएँ, उस मसीहा की सेवा में समर्पित कर दी, जो उनके संरक्षण में परिपक्व होते हुए विकसित हो रही थीं। [8]

मुक्ति के इतिहास में संत जोसेफ की भूमिका के लिए हर विश्वासी कृतज्ञ है, जिसे पिता के समान श्रद्धा और भक्ति अर्पित की जाती है। ज़ाहिर है, अपना संरक्षक मानकर विश्व भर में अनगिनत गिरजाघर, असंख्य धार्मिक तथा कलीसियाई संस्थाएँ, उनकी आध्यात्मिकता से प्रभावित होकर उनके नाम से नामांकित हैं, और कई परम्परागत पवित्रता की अभिव्यक्ति उनके आदर में की जाती हैं | फिर असंख्य धार्मिक महिला एवं पुरुष उनकी गहरी भक्ति में लीन थे,उनमें आविला की संत तेरेसा प्रमुख है, जिसने उन्हें अपना मध्यस्थ चुना, और उनकी प्रार्थनाओं से जो कुछ मांगा उसे प्राप्त किया । अपने अनुभवों से प्रेरित होकर उसने अन्य लोगों को भी संत जोसेफ की भक्ति की ओर अग्रसर किया। [9]

हर प्रार्थना पुस्तक में संत जोसेफ से प्रार्थना मिलेगी। उनसे विशेष प्रार्थनाएँ प्रत्येक बुधवार तथा मार्च के महीने में की जाती हैं, जो परम्परागत रूप से उनके लिए समर्पित है। [10]

संत जोसेफ में प्रचलित विश्वास की अभिव्यक्ति 'यूसुफ के पास जाओ में मिलता है, जो मिस्रदेश में अकाल की याद दिलाती है, जब मिस्रियों ने फराउन राजा से भोजन की मांग की तो फराउन ने कहा था: “यूसुफ के पास जाओ; वह जो तुमसे कहे, वही करना । (उत्पत्ति ग्रन्थ 41:55) फराउ तो याकूब के पुत्र यूसुफ के बारे में बोल रहा था, जिसे उसके भाइयों ने ईर्ष्या के कारण गुलाम बनाकर बेच दिया था (उत्पत्ति ग्रन्थ 37:11-28) जो - बाइबिल के विवरण के अनुसार - बाद में वह मिस्र का वाइसराय बन गया (उत्पत्ति ग्रन्थ 41:41-44)।

दाऊद के वंशज के रूप में (मत्ती 1:16-20), और नाज़रेत की मरियम के वर होने के नाते, संत जोसेफ नये तथा पुराने व्यवस्थान के दोराहे पर स्थित हैं।

2. हृदय से कोमल तथा प्रेमी पिता

जोसेफ ने हर रोज़ येसु को बुद्धि और शरीर के विकास और ईश्वर तथा मनुष्यों के अनुग्रह में बढ़ते हुए देखा (लूकस 2:52)। जैसे प्रभु ईश्वर ने इस्राएल के लिए किया वैसे जोसेफ ने येसु के साथ किया: “उसने उसे हाथ पकड़कर चलना सिखाया; जिस तरह कोई बच्चे को उठाकर गले लगाता है, उसी तरह जोसेफ ने भी किया, और झुककर उसे खाना खिलाया |” (होशेया 11:3-4)

संत जोसेफ में, प्रभु येसु ने पिता की कोमलता एवं ईश्वर का प्यार देखा: “पिता जिस तरह अपने पुत्रों पर दया करता है, प्रभु उसी तरह अपने भक्तों पर दया करता है (स्तोत्र 103:13)।

मन्दिर में, स्तोत्र से प्रार्थना करने के दौरान, जोसेफ ने कई बार सुना होगा कि इस्राएल का ईश्वर, कोमल प्यार का ईश्वर है, [11] जो सबों के साथ भला है, ' प्रभु दया और अनुकम्पा से परिपूर्ण है, वह अपनी समस्त सृष्टि पर दया करता है'' (स्तोत्र 145:9)।

मुक्ति के इतिहास में हमारी कमजोरी के माध्यम से आशा के विपरित आशा का अनुभव किया जाता है (रोमियों 4:18) बहुधा हम सोचते हैं कि, ईश्वर हमारे सदगुणों के कारण ही अच्छे कार्य करते हैं, फिर भी हम देखते हैं कि उसकी बहुत-सारी योजनाएँ हमारी कमज़ोरियों के बावजूद भी पूरी होती हैं। अतः संत पौलुस कह सकते हैं: “मुझे बहुत-सी बातों पर घमण्ड न करने के लिए मेरे शरीर में काँटा चुभा दिया गया है। मुझे शैतान का दूत मिला है, ताकि वह मुझे घूँसे मारता रहे और मैं घमण्ड न करूँ। मैंने तीन बार प्रभु से निवेदन किया कि यह मुझसे दूर हो, किन्तु प्रभु ने कहा - मेरी कृपा तुम्हारे लिए पर्याप्त है, क्योंकि तुम्हारी दुर्बलता में मेरा सामर्थ्य पूर्ण रूप से प्रकट होता है (2 कुरिन््थ 12:7-9)।

क्योंकि यह सम्पूर्ण मुक्ति-योजना का भाग है, हमें अपनी कमज़ोरियों की तरफ कोमल करुणा से पेश आना चाहिए। [12]

बुराई हमें हमारी कमज़ोरियों को दर्शाती है और हमें दोषी ठहराती है, जबकि आत्मा उन कमज़ोरियों को कोमल प्यार से प्रकाश में लाती है । हमारे भीतर जो कमज़ोरी है उसे कोमलता से ही स्पर्श किया जा सकता है। दूसरों की ओर अँगुली उठाना और दूसरों के दोष निकालना अक्सर हमारी अपनी कमज़ोरी को स्वीकार नहीं कर पाने की निशानी है। सिर्फ कोमल प्यार ही हमें शैतान के फँदों से बचा सकता है (प्रकाशना 12:10)। इसीलिए ईश्वर की करुणा प्राप्त करना बहुत महत्वपूर्ण है, विशेषकर मेलमिलाप-ैसंस्कार में, जहाँ हम उसकी यथार्थता एवं कोमलता का अनुभव करते हैं| विडंबना यह है कि, बुरी आत्मा भी हमसे यथार्थता की बातें कर सकती है, वो सिर्फ हमें दोषी ठहराने के लिए करती है। हम जानते हैं कि ईश्वर की यथार्थता दोषी नहीं ठहराती है, बल्कि वह स्वागत करती, गले लगाती, सम्भालती तथा क्षमा करती है। यथार्थता यानी सच्चाई हमेशा प्रभु येसु के द्वारा दिए गए उड़ाऊ पुत्र के दृष्टान्त के समान सामने आती है (लूकस 15:11-32)। वह हमसे मिलने आती है, हमारी प्रतिष्ठा को बहाल करती, हमें अपने पाँव पर खड़े होने में सहायता करती और हमारे लिए आनन्द मनाती है, जैसे उस दृष्टान्त में पिता कहता है: ' मेरा यह बेटा मर गया था और फिर मिल गया है, यह खो गया था और फिर मिल गया है (लूकस 15:24)।

जोसेफ के भय से भी, ईश्वर की इच्छा, उसका इतिहास तथा उसकी योजना क्रियाशील है। अतः: जोसेफ हमें सिखाते हैं कि ईश्वर में विश्वास करना यानी ये मानना है कि वह हमारे भय, हमारी निर्बलता, तथा हमारी कमज़ोरी के द्वारा भी कार्य कर सकता है। वे हमें यह भी सिखाते हैं कि हमारे जीवन के तूफान भरे संघर्ष में भी बिना भय के प्रभु को उसे खेने देना चाहिए | कभी-कभी, हम स्वयं पूर्ण नियंत्रण में रहना चाहते हैं, ईश्वर हमेशा बड़ी तस्वीर देखता है।

3. एक आज्ञाकारी पिता

जैसा ईश्वर ने मरियम के साथ किया था, बैसा ही उसने जोसेफ के साथ करते हुए अपना मुक्ति विधान प्रकट किया । उसने उसे मूर्तरूप देने के लिए सपनों का सहारा लिया, जो प्राचीन काल के लोगों के द्वारा समझा गया था कि ईश्वर किस तरह अपनी इच्छा प्रकट करता है। [13]

जोसेफ मरियम की रहस्यमयी गर्भावस्था से बहुत चिन्तित थे। ' यूसुफ चुपके से उसका परित्याग करना चाहता था, क्योंकि वह धर्मी था और मरियम को बदनाम नहीं करना चाहता था (मत्ती 1:19)[14]

प्रथम स्वप्न में एक स्वर्गदूत, उसकी गम्भीर दुविधा का समाधान करता है : अपनी पत्नी मरियम को अपने यहाँ लाने में नहीं डरें, क्योंकि उनके जो गर्भ है, वह पवित्र आत्मा से है बे पुत्र प्रसव करेंगी और आप उसका नाम येसु रखेंगे, क्योंकि वे अपने लोगों को उनके पापों से मुक्त करेंगे (मत्ती 1:20-2)। जोसेफ की शीत्र प्रतिक्रिया थी : 'यूसुफ नींद से उठकर प्रभु के दूत की आज्ञानुसार अपनी पत्नी को अपने यहाँ ले आया । (मत्ती 1:24) आज्ञाकारिता द्वारा यह सम्भव हो सका कि उसने उन कठिनाइयों पर विजय पाकर मरियम की रक्षा की द्वितीय स्वप्न में, स्वर्गदूत जोसेफ से कहता है: “उठिए ! बालक और उसकी माता को लेकर मिस्रदेश भाग जाइए। जोसेफ को आज्ञा मानने के लिए तनिक भी झिझक नहीं हुई, भले ही उसे कठिनाइयों का सामना करना पड़े; “यूसुफ उठा और उसी रात बालक और उसकी माता को लेकर मिस्रदेश चल दिया और वह हेरोद की मृत्यु तक वहीं रहा (मत्ती 2:14-15)

मिस्रदेश में, जोसेफ ने सुरक्षित वापस घर लौटने के लिए धैर्य के साथ स्वर्गदूत के सन्देश की प्रतीक्षा की | तीसरे स्वप्न में, स्वर्गदूत ने उससे कहा कि जो बालक के प्राण लेना चाहते थे, वे मर चुके हैं अतः उसने आज्ञा दी कि वह बालक तथा उसकी माँ को लेकर अपनी भूमि इस्राएल देश वापस चले जाएँ (मत्ती 2:9-20) एक बार फिर, जोसेफ ने त्वरित रूप से आज्ञा का पालन किया। “वह उठा और बालक तथा उसकी माता को लेकर इस्राएल देश चला आया (मत्ती 2:21)

उसकी वापसी के दौरान उसने सुना कि अरखेलौस अपने पिता के स्थान पर यहूदिया में राज्य करता है; इसलिए उसे वहाँ जाने में डर लगा और स्वप्न में चेतावनी पाकर गलीलिया चला गया। वहाँ वह नाज़रेत नामक नगर में जा बसा (मत्ती 2:22-23)

सुसमाचार लेखक लूकस, अपनी ओर से कहते हैं कि जोसेफ दाऊद के घराने और वंश के थे; इसलिए वह गलीलिया के नाज़रेत से यहूदिया से बेथलेहेम जाकर सम्राट कैसर अगस्तस की राजाज्ञा के अनुसार अपनी पत्नी मरियम के साथ नाम लिखवाए। वहाँ येसु का जन्म हुआ (लूकस 2:7) और सभी बालकों के समान उसका नाम भी उस साम्राज्य में पंजीबद्ध किया गया। संत लूकस हमें विशेष रूप से बताते हैं कि येसु के माता-पिता ने दिए गये सभी कानून-कायदों का पालन किया : येसु का विधिवत खतना, प्रसव के पश्चात् मरियम का शुद्धिकरण तथा पहलौठे बेटे का मन्दिर में समर्पण | लूकस 2:21-24) [15]

हर परिस्थिति में, जोसेफ ने स्वयं अपनी 'फियात' यानी हाँमी भरी, जैसे माता मरियम ने स्वर्गदूत के सन्देश तथा येसु ने गेथसेमेनी बारी में हाँमी भरी थी।

परिवार के मुखिया की भूमिका निभाते हुए, जोसेफ ने ईश्वर की आज्ञानुसार (निर्गमन ग्रन्थ 20:12) येसु को माता-पिता के प्रति आज्ञाकारी होने का पाठ पढ़ाया (लूकस 2:51)।

नाज़रेत में अपने अज्ञात वर्षों के दौरान येसु ने जोसेफ की स्कूल में पिता ईश्वर की इच्छा पूरी करना सीखा। वही इच्छा उसका दैनिक आहार होने जा रही थी (योहन 4:34)। यहाँ तक कि अपने जीवन के सबसे कठिन क्षण गेथसेमेनी में भी, येसु ने अपनी इच्छा के बदले पिता की इच्छा पूरी करने का निर्णय लिया,[16] मरण तक, हाँ क्रूस पर मरण तक, आज्ञाकारी बनकर अपने को और भी दीन बना लिया (फिलिप्पियों 2:8)। इब्रानियों के नाम पत्र की समाप्ति पर इसके लेखक कहते हैं कि येसु, ईश्वर का पुत्र होने पर भी उन्होंने दुख सहकर आज्ञापालन सीखा ।”' (इब्रा. 5:8) इन सब उदाहरणों से स्पष्ट है कि संत जोसेफ उनकी पितृत्व-सुलभ गतिविधियों से येसु के व्यक्तित्व तथा मिशनकार्य की सेवा में ईश्वर के द्वारा बुलाए गये थे और इस तरह, ' उसने समय के पूर्ण होने पर मुक्ति के महान रहस्य में योगदान दिया और मुक्ति के प्रबन्धक बने [17]

4. ग्रहणशील पिता

जोसेफ ने मरियम को बिना शर्त के स्वीकार किया । उन्होंने स्वर्गदूत के संदेश पर विश्वास किया । “जोसेफ के हृदय की महानता इसमें है कि जो कुछ उन्होंने संहिता में सीखा उसे परोपकार के अधीन रखा। आज, जहाँ दुनिया में महिलाओं के प्रति मानसिक,शाब्दिक तथा शारीरिक प्रताड़ना बलवन्ती है, वहाँ जोसेफ की छवि एक सम्मानीय तथा संवेदनशील व्यक्ति के रूप में उभर कर सामने आती है। यद्यपि वे सम्पूर्ण चित्रण नहीं समझते, वे मरियम की गरिमा, मान-मर्यादा तथा उसके जीवन को बचाने का निर्णय लेते हैं। उनकी हिचकिचाहट में कि कैसे किसी चीज़ को बेहतरीन तरीके से किया जाए, ईश्वर उसके निर्णय को आलोकित करते हुए उसकी सहायता करता है। [18]

बहुधा जीवन में कुछ ऐसी घटनाएँ घटित होती हैं जिन्हें हम नहीं समझ पाते हैं | हमारी पहली प्रतिक्रिया अक्सर निराशाजनक तथा विद्रोहपूर्ण होती है। जोसेफ ने उनकी अपनी योजनाओं को एक तरफ रखकर होनहार को स्वीकारा, और चाहे वे अनचाही क्यों न हो,उन्हें गले लगाया और उनके प्रति जिम्मेदारी लेकर अपने जीवन के इतिहास में शामिल किया । जब तक हम अपने इतिहास से समझौता नहीं कर लेते तब तक हम आगे नहीं बढ़ सकते, क्योंकि हम अपनी अपेक्षाओं तथा निराशा के गुलाम बने रहेंगे।

जो मार्ग संत जोसेफ हमारे लिए खोजते हैं वह व्याख्या नहीं अपितु स्वीकार्य का भाव है। सिर्फ इस अंगीकार के परिणाम स्वरूप, यह मेलमिलाप सम्भव है, जिसमें हम विस्तृत इतिहास की एक झलक तथा आशय देख सकते हैं | हम अपने कानों में प्रतिध्वनि सुन सकते हैं, जिसे योब अपनी पत्नी को उत्तर देता है, जब उसने योब को ईश्वर के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए उकसाया था : “हम ईश्वर से सुख स्वीकार करते हैं, तो दुःख क्यों न स्वीकार करें ?” (योब 2:10) जोसेफ निश्चित रूप से निष्क्रिय रूप से पीछे नहीं हटे, बल्कि हिम्मत और दृढ़ता से सक्रिय रहे | हमारे अपने जीवन में, स्वीकृति तथा स्वागत पवित्र आत्मा के धैर्य की अभिव्यक्ति का वरदान हो सकता है। सिर्फ ईश्वर ही हमें शक्ति दे सकता है जो जैसी हमारी ज़िन्दगी है उसे वैसी ही स्वीकार कर सकें, हो सकता है वह विरोधाभास, कुंठा तथा निराशा से भरी हुई हो।

प्रभु येसु का हमारे बीच आना ईश्वर का ही वरदान है, जो इसे सम्भव बनाता है कि हममें से हर एक व्यक्ति हमारी अपनी ज़िन्दगी के इतिहास को स्वीकार करें, भले हम उसे पूर्णरूप से न समझ सकें।

बस वैसे ही जैसे ईश्वर ने जोसेफ को बताया: “दाऊद की सन््ताान, डरो मत !” (मत्ती 1:20), लगता है ईश्वर हमसे भी कह रहा है: डरो मत ! हमें सब क्रोध तथा निराशा को दूर करना है, वास्तविकता को गले लगाना है, भले ही वह हमारी इच्छा के अनुसार न हो। न केवल परित्याग से बल्कि आशा तथा साहस के साथ । इस तरह, हम गूढ़ अर्थ के प्रति प्रकट होते हैं। हमारा जीवन चमत्कारिक ढंग से पुनर्जन्म ले सकता है यदि हम उसे सुसमाचार की शिक्षा के अनुसार जीने का साहस करें। कोई परवाह नहीं यदि लगता है कि सबकुछ अनुचित हो गया है या कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें सुधारा नहीं जा सकता। ईश्वर चट्टानों में फूल खिला सकता है। भले ही हमारा हृदय हमें दोषी ठहराए, ईश्वर हमारे अन्त:करण से बड़ा है, और वह सबकुछ जानता है। (1योहन 3:20)

यहाँ एक बार फिर, हम देखते हैं कि खरीस्तीय यथार्थवाद जो कुछ अस्तित्व में है उसे स्वीकार करता है। वास्तविकता, इसकी रहस्यमय और अतार्किक जटिलता में, अपनी अच्छाई तथा कमज़ोरियों के साथ अस्तित्वगत अर्थ का वाहक है। इस तरह से, संत पौलुस कह सकते हैं: “हम जानते हैं कि जो लोग ईश्वर को प्यार करते हैं और उसके विधान के अनुसार बुलाए गये हैं, ईश्वर उनके कल्याण के लिए सभी बातों में उनकी सहायता करता है (रोमियों 8:28) इसी सन्दर्भ में जोड़ते हुए संत अगुस्तीन कहते हैं, “ यहाँ तक कि जिसे बुराई कहा जाता है। [19] इस बेहतर परिप्रेक्ष्य में, विश्वास हर घटना को अर्थपूर्ण बनाता है, चाहे वह कितना भी आनन्दमय अथवा दु:खदायी क्यों न हो।''

हमें कभी नहीं सोचना चाहिए कि विश्वास करने का अर्थ सुगम तथा सुकून देने वाले उपाय खोजना है। विश्वास जिसे ख़ीस्त ने हमें सिखाया है उसी को हम संत जोसेफ में पाते हैं। उन्होंने आसान रास्तों की तलाश नहीं की, बल्कि बड़ी सतर्कता के साथ वास्तविकता का सामना किया और उसके लिए व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी ली।

जोसेफ का दृष्टिकोण हमें दूसरों को स्वीकार करने और उनका स्वागत करने के लिए प्रोत्साहित करता है, जिस तरह ईश्वर बिना अपवाद किए दुर्बलों को विशेष परवाह करने हेतु चुनता है (1 कोरिन्थयो 1:27) वे हैं अनाथों के पिता और विधवाओं के रक्षक (स्तोत्र 68:6) जो हमें हमारे बीच में अजनबी हैं उससे प्यार करने की आज्ञा देते हैं। [20] मैं सोचता हूँ कि यह संत जोसेफ की और से था कि येसु ने उड़ाऊ पुत्र तथा करुणामय पिता के दृष्टान्त की प्रेरणा प्राप्त की (लूकस 15:11-32)

5 . रचनात्मक रूप से साहसी पिता

यदि सभी आन्तरिक चंगाई का पहला चरण हमारे व्यक्तिगत इतिहास को स्वीकार करना है और यहाँ तक कि जीवन में ऐसी अनचाही चीज़ें जिन्हें हमने नही चुनी उन्हें भी गले लगाएँ, तो हमें अब एक और महत्वपूर्ण तत्व जोड़ना चाहिए: रचनात्मक साहस । यह विशिष्ट रूप से वैसे ही उभरता है जैसे हम कठिनाइयों से निपटते है। कठिनाई के समय, या तो हम उसे छोड़कर भाग सकते हैं, या उसका सामना कर सकते हैं। कई बार, कठिनाइयाँ संसाधनों को बाहर लाती हैं जिनका हमें पहले आभास नहीं था।

जैसा कि येसु के शैशवावस्था वृत्तान्त को पढ़कर, बहुधा हम विस्मित हो जाते हैं कि ईश्वर ने अधिक प्रत्यक्ष और स्पष्ट तरीके से कार्य क्यों नहीं किया । फिर भी ईश्वर घटनाओं तथा लोगों के माध्यम से कार्य करता है। मुक्ति के इतिहास की शुरुआत का मार्गदर्शन करने के लिए जोसेफ ईश्वर द्वारा चुने हुए व्यक्ति थे । वही एक वास्तविक चमत्कार थे जिनके द्वारा ईश्वर ने बालक येसु और उसकी माता की रक्षा की | बेथलेहेम में पहुँचकर और ठहरने के लिए जगह न पाकर जहाँ मरियम बालक को जन्म देती, जोसेफ ने गोशाला की तरफ रूख किया और उसे बेहतरीन तरीके से सँवारकर संसार में आने वाले ईश-पुत्र का स्वागत किया (लूकस 2:6-7) हेरोद से निकटतम खतरे का भय,जो बालक की हत्या करना चाहता था, जोसेफ ने एक बार फिर बालक की रक्षा करने के लिए स्वप्न में आदेश पाकर, रात के अँधेरे में उठकर मिस्रदेश भागने की तैयारी की (मत्ती 2:13-14)।

इन कहानियों को सतही तौर पर पढ़कर यह धारणा मन में आ सकती है कि दुनिया मजबूत तथा शक्तिशाली लोगों के अहसान पर चल रही है, परन्तु सुसमाचार का शुभ संदेश इसे द्शाने में है कि, समस्त सांसारिक शक्तियों के अहंकार तथा हिंसा के लिए, ईश्वर अपनी मुक्ति योजना पूरी करने हेतु रास्ता निकाल लेता है। अत: कई बार ऐसा लगता है कि हमारा जीवन शक्तिशाली लोगों की दया पर चलता है, लेकिन सुसमाचार हमें दिखाता है कि ये क्या मायने रखता है। ईश्वर हमेशा हमें बचाने का तरीका ढूँढ लेता है, बशर्ते हम उसी रचनात्मक साहस को दिखाएँ जैसे नाज़रेत के बढ़ई ने दिखाया था. जो हमेशा ईश्वरीय विधि-विधान पर भरोसा रखकर, हर समस्या को सम्भावना में बदलने की क्षमता रखते थे।

यदि कभी-कभार ऐसा लगे कि ईश्वर हमारी सहायता नहीं कर रहा है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम परित्यक्त हैं, बल्कि इसके बजाय हमारे द्वारा योजना बनाये जाने, रचनात्मक बनने, और हमारी समाधान ढूँढने की योग्यता पर भरोसा किया जा रहा है।

उस तरह का रचनात्मक साहस उस अर्द्धारोगी के साथियों द्वारा दिखाया गया था, जिन्होंने मकान की छत फाड़कर उसे नीचे उतार दिया जहाँ येसु भीड़ को सम्बोधित कर रहे थे (लूकस 5:17-26) उन साथियों के साहस और दृढ़ता के सामने मुश्किलें टिक नहीं पायीं । उन्हें पक्का यकीन था कि येसु उसे चंगा कर देगा, और ' भीड़ के कारण अर्द्धांगरोगी को भीतर ले जाने का कोई उपाय न देखकर वे छत पर चढ़ गये और उन्होंने खपड़े हटाकर खाट के साथ अर्द्धारोगी को लोगों के बीच में येसु के सामने उतार दिया | उनका विश्वास देखकर येसु ने कहा, भाई ! तुम्हारे पाप क्षमा हो गये हैं. (लूकस 5:19-20) जिस रचनात्मक साहस के साथ रोगी के साथियों ने पेश किया उसे येसु ने पहचाना ।

सुसमाचार में कुछ स्पष्ट नहीं है कि येसु, मरियम और जोसेफ ने मिस्रदेश में कितना समय बिताया। फिर भी यह तो निश्चित है कि उन्हें खाने-पीने, रहने तथा रोज़गार की आवश्यकता पड़ी होगी। इन्हें समझने के लिए अधिक कल्पना की ज़रूरत नहीं है। पवित्र परिवार को भी उन समस्याओं से जूझना पड़ा होगा, जैसे आज हमारे प्रवासी भाई-बहन भी भूख-प्यास, दुर्भाग्य और अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भटक रहे हैं। इस सम्बन्ध में, संत जोसेफ को मैं उन लोगों का संरक्षक समझता हूँ जिन्हें युद्ध, नफरत,सतावट तथा गरीबी के कारण अपने को छोड़ना पड़ता है।

संत जोसेफ की भूमिका के प्रत्येक वृतान्त के अन्त में, सुसमाचार कहता है: वह उठता है, बालक और उसकी माता को ले जाता है, और ईश्वर के आदेश का पालन करता है (मत्ती 1:24; 2:14.21)। येसु और उसकी माता मरियम हमारे विश्वास का अमूल्य खज़ाना है। [21]

मुक्ति की दिव्य योजना में, पुत्र येसु अपनी माता मरियम का अभिन्न अंग है जिसे अलग नहीं किया जा सकता, जो “अपने विश्वास में आगे बढ़ी, और ईमानदारी के साथ अपने पुत्र के साथ संयुक्त रही, वह क्रूस के नीचे खड़ी रही।' [22]

हमें सदा यह देखना चाहिए कि क्या हम येसु और मरियम की रक्षा कर रहे हैं, जो रहस्यात्मक ढंग से सुरक्षा तथा देखभाल के लिए हमारी ज़िम्मेदारी में सौंपे गये हैं। सर्वशक्तिमान ईश्वर का पुत्र इस धरा पर बेहद कमज़ोर अवस्था में आया। उसे जोसेफ द्वारा बचाए जाने, संरक्षित किए जाने, पालन-पोषण तथा लालन-पालन किए जाने की आवश्यकता थी । ईश्वर ने जोसेफ पर पूरा भरोसा किया, जैसे मरियम ने, उसे न सिर्फ उसके जीवन की रक्षा करने वाला, अपितु बालक एवं उसकी हर तरह की आवश्यकता की आपूर्ति करने वाला व्यक्ति पाया | इस अर्थ में, संत जोसेफ कलीसिया का संरक्षक नहीं तो और कया हो सकता था, क्योंकि कलीसिया तो इतिहास में खीस्त के शरीर की निरन्तरता का सूचक है, यहाँ तक कि माता मरियम के मातृत्व की झलक कलीसिया के मातृत्व में झलकती है | [23] संत जोसेफ द्वारा निरन्तर कलीसिया के संरक्षण में, बह बालक तथा उसकी माता के संरक्षण को जारी रखे हुए है। और हमें भी, कलीसिया के प्रति प्रेम दर्शाते हुए, बालक एवं उसकी माता को प्रेम करते रहने की आवश्यकता है। वह बालक सदा कहता रहेगा: “जिस प्रकार तुमने मेरे परिवार के छोटे से छोटे सदस्य के लिए किया, वह मेरे लिए किया है (मत्ती 25:40)। परिणाम स्वरूप, हर गरीब, ज़रूरतमन्द, पीड़ित या मृतप्राय: व्यक्ति, प्रत्येक अजनबी, हर कैदी, हर रोगी एक नन््हार बालक है जिसे संत जोसेफ सम्भाल रहा है। इसीलिए, अभागों, ज़रूरतमंदों, निष्कासितों, पीड़ितों, निर्धनों तथा मृतप्राय: लोगों द्वारा संत जोसेफ से, संरक्षक के रूप में, आह्वान किया जाता है। इसलिए, कलीसिया हमारे छोटे से छोटे भाई-बहनों को भला कैसे अनदेखा कर सकती है, जिन्हें येसु ने उनके समान बनकर उन्हें विशेष रूप से प्यार किया। हमें संत जोसेफ से वही देखभाल तथा ज़िम्मेदारी निभाने की कला सीखनी चाहिए । हमें बालक तथा उसकी माता से प्रेम करना सीखना चाहिए, साथ ही कलीसिया के संस्कारों तथा करुणा, और निर्धनों को भी । इनमें से प्रत्येक यथार्थता हमेशा बालक और उसकी माता में निहित है।

6. कार्यरत पिता

संत जोसेफ का एक पहलू उसके कार्य से सम्बन्धित है, जिस पर संतपिता लियो तेरहवें के सामाजिक परिपत्र रेरुम नोवारुम' के समय से जोर दिया गया है । संत जोसफ एक बढ़ई था जिसने अपने परिवार की परवरिश करने के लिए ईमानदारी से कार्य किया । येसु ने उसी से सीखा कि चीज़ों का महत्व तथा मानव का सम्मान कया होता है और अपनी मेहनत का फल खाने में कितना आनन्द आता है।

हमारे अपने समय में, जब रोज़गार फिर एक ज्वलन्त सामाजिक मुद्दा बन गया है, और बेरोज़गारी कभी-कभार अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है, यहाँ तक कि उन देशों में जिन्होंने कई दशकों तक धन-सम्पत्ति का लुत्फ उठाया। अब नये सिरे से गरिमामय कार्य के महत्व की सराहना करने की अति आवश्यकता है, जिसके आदर्श संरक्षक हैं संत जोसेफ ।

कार्य, मुक्ति के कार्य में सम्मिलित होने के लिए एक साधन है, ईश्वर के राज्य के आगमन को जल्दी लाने का एक अवसर है, हमारी प्रतिभाओं तथा योग्यताओं के विकास के लिए, और उन्हें समाज की सेवा एवं भ्रातृ प्रेम की वृद्धि के लिए आवश्यक है। यह एक अवसर बन जाता है न सिर्फ स्वयं की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, बल्कि अपने परिवार के लिए जो समाज की लघु इकाई है। विशेष रूप से बिना कार्य का परिवार कठिनाइयों, तनाओं. मनमुटाव में कमज़ोर होकर टूट जाता है| यह सुनिश्चत करने हेतु कार्य किए बिना कि हर एक सम्माननीय जीवन जीने में सक्षम है, हम मानव गरिमा के बारे में कैसे बोल सकते हैं ?

कामगार व्यक्ति,चाहे जो भी काम करते हों, वे स्वयं ईश्वर का साथ देते हैं, और कुछ हद तक, वे हमारे आसपास के सृष्टिकर्ता बन जाते है। हमारे समय का संकट, जो आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक है, वह अपने मूल्यों, महत्व तथा काम करने की आवश्यकता पर पुनर्विचार करने हेतु हमारे लिए आह्वान का काम कर सकता है, जिससे पुन: नई 'मासान्य' परिस्थिति बहाल की जा सके उससे कोई भी अलग नहीं रह सकता है। संत जोसेफ के कार्य हमें याद दिलाते हैं कि स्वयं ईश्वर ने मानव बनकर काम को नहीं नकारा। रोज़गार का नुकसान जो हमारे भाइयों और बहनों को प्रभावित करता है, कोविड-19 महामारी के परिणाम स्वरूप बढ़ गया है, हमारी प्राथमिकता की समीक्षा के लिए एक अदालत की सूचना के रूप में काम करना चाहिए। आइए हम अपना दृढ़ विश्वास प्रकट करते हुए, श्रमिक संत जोसेफ से उनकी सहायता के लिए प्रार्थना करें कि कोई युवा, कोई भी व्यक्ति और किसी परिवार का सदस्य बिना रोज़गार का न रहे।

7. परछाइयों में सिमित एक पिता

पोलिश भाषा के लेखक जान डाब्रासिंस्की, अपनी पुस्तक द शेडो ऑफ द फादर' [24 ] एक उपन्यास के रूप में संत जोसेफ की जीवनी पर प्रकाश डालते हैं। वे जोसेफ का चरित्र-चित्रण करने के लिए विचारोत्तेजक प्रतिच्छाया का उपयोग करते हैं। येसु के साथ उसके सम्बन्ध में, जोसेफ स्वर्गिक पिता की पार्थिव छाया है; उन्होंने उसपर हमेशा नज़र रखते हुए उसकी रक्षा की और उसे कभी भी अपनी मनमर्ज़ी नहीं करने दी। हम मूसा द्वारा इस्राएल को कही गयीं बातें याद करें: “तुम उस उजाड़खण्ड में देख चुके हो कि प्रभु तुम्हारा ईश्वर उस पूरे मार्ग पर, ...तुम्हें इस प्रकार गोद में उठाकर ले आया, जैसे कोई पिता अपने पुत्र को उठाकर ले आता है (विधि विवरण ग्रन्थ :3)। इसी तरह, जोसेफ ने उसके जीवन भर एक पिता के समान उसे रखा। [25]

“पिता पैदा नहीं होते, बल्कि बनाए जाते हैं। पुरुष सिर्फ बालक को इस दुनिया में लाने से पिता नहीं बन जाता, अपितु उस बालक की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी लेने से बनता है। जब कभी कोई दूसरे की जीवन की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी लेता है तब वह कुछ माइने में उसका पिता बन जाता है।

आजकल जिन बच्चों में पिता की उपस्थिति की कमी होती है वे अक्सर अनाथ लगते हैं, जिनमें कलीसिया को भी पिताओं की आवश्यकता है । कुरिन्थयों को संत पौलुस द्वारा कहे गये वचन आज भी समसामयिक हैं: “हालांकि आपके पास अनगिनत पथप्रदर्शक हों, परन्तु आपके अनेक पिता नहीं हैं (1कुरिन्थयों 4:15) संत पौलुस के साथ, हर एक पुरोहित एवं धर्माध्यक्ष को जोड़ने में सक्षम होना चाहिए: “मैंने सुसमाचार द्वारा येसु मसीह में आप लोगों को उत्पन्न किया है।' वैसे ही गलातियों को संत पौलुस कहते हैं: ' मेरे प्रिय बच्चो ! जब तक तुममें मसीह का स्वरूप नहीं बन पाया है, तब तक मैं तुम्हारे लिए फिर प्रसवपीड़ा सहता हूँ! (4:19)

एक पिता होने का अर्थ अपने बच्चों को जीवन और वास्तविकता से परिचय कराना होता है। उन्हें अपने लिए निर्णय लेने में सक्षम बनाना, स्वतंत्रता का आनन्द लेने देना और नई संभावनाओं की तलाश करने में उनकी सहायता करना ही पिता का कर्तव्य है, न कि उन्हें रोकटोक करते हुए दब्बू बनाना और उनपर ज़रूरत से ज्यादा अंकुश लगाकर अपने अधीन रखना | शायद इसीलिए, जोसेफ परम्परागत अति शुद्ध कहलाते हैं। यह शीर्षक सिर्फ प्यार दर्शाने के लिए नहीं, बल्कि मनोवृत्ति का सकल योग है | शुद्धता, जीवन के हर क्षेत्र में अधिकार से मुक्ति है। केवल जब प्यार पवित्र होता है, तो वह वास्तव में प्यार होता है। एक अधीनतापूर्ण प्रेम अन्तत: खतरनाक हो जाता है: यह कैद करता है, तंग करता और दु:ख देता है। स्वयं ईश्वर ने शुद्ध प्रेम से मानवता को प्यार किया। उसने हमें भटकने तथा उसके विरूद्ध खड़े होने तक के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया | प्यार का तर्क हमेशा पराधीनता का तर्क होता है, और जोसेफ असाधारण स्वतंत्रता के साथ प्यार करना जानते थे । उन्होंने कभी स्वयं को किसी का केन्द्रबिन्दु नहीं बनाया । और न कभी स्वयं की परवाह की, बल्कि उसके बदले मरियम और येसु के जीवन पर ध्यान केन्द्रित किया।

संत जोसेफ ने सिर्फ स्वयं के त्याग में नहीं बल्कि स्वयं को उपहार के रूप में देकर खुशी हासिल की। हमने उन्हें कभी निराश नहीं देखा बल्कि वे सदा आशावान थे। उनकी सहनशीलता भरी शान्ति विश्वास की ठोस अभिव्यक्ति की भूमिका थी | हमारी आज की दुनिया को पिताओं की आवश्यकता है। इसका उन अत्याचारियों के लिए कोई उपयोग नहीं है, जो अपनी ज़रूरतों के लिए दूसरों पर हावी होने के साधन के रूप में हावी होंगे। यह सोच उन लोगों को खारिज करती है जो अधिकारवाद के साथ अधिकार को भ्रमित करते हैं, सेवाभाव के साथ चापलूसी, उत्पीड़न के साथ चर्चा, दान की भावना के साथ कल्याणकारी मानसिकता, और शक्ति के साथ विनाश । प्रत्येक धार्मिक बुलाहट स्वयं को उपहार के रूप में देने से जन्म लेती है, जो परिपक्व त्याग का प्रतिफल है। हमारी बुलाहट चाहे किसी भी प्रकार की क्यों न हो, चाहे वह विवाह बन्धन की हो, पौरोहितिक ब्रह्मचारीय अथवा समर्पित जीवन का कौमार्य हो, यदि हम त्याग पर रुक जाते हैं तो हमारा स्वयं का उपहार पूरा नहीं होगा; मामला भले कुछ भी हो, बजाय सुन्दरता और प्यार की खुशी का संकेत बनने के, स्वयं के उपहार से दु:खी, उदासी तथा हताशा की अभिव्यक्ति होगी।

जब पिता उनके लिए अपने बच्चों का जीवन जीने से इनकार करते हैं, तो नई तथा अनपेक्षित सम्भावनाएँ खुलती हैं । हर बालक एक आश्चर्यजनक रहस्य का वाहक है जिसे एक पिता के द्वारा प्रकाश में लाया जा सकता है जो उस बालक की स्वाधीनता की कदर करता है। एक पिता जो यह अहसास करता है कि वह पिता और शिक्षक है कुछ हद तक जब वह 'अनुपयोगी हो जाता है, जब वह देखता है कि उसका बालक अपने पैरों पर खड़ा हो गया है और उसे अब सहारे की ज़रूरत नहीं है। जब वह जोसेफ जैसा हो जाता है, जो हमेशा जानते थे कि उनका बालक उनका अपना नहीं है किन्तु सिर्फ उसकी सुरक्षा के लिए दिया गया है। अन्तत:, येसु हमें यही समझाना चाहते हैं जब वे कहते हैं: ' पृथ्वी पर किसी को अपना 'पिता' न कहो, क्योंकि तुम्हारा एक ही पिता है, जो स्वर्ग मं है।' (मत्ती 23:9) अपने पितृत्व के हर अभ्यास में, हमें हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि इसका कब्जे से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि यह एक महान पितृत्व की तरफ इंगित करता है। एक तरह से, हम सभी जोसेफ के समान है: स्वर्गिक पिता की छाया, जो “भले और बुरे, दोनों पर अपना सूर्य उगाता तथा धर्मी और अधर्मी, दोनों पर पानी बरसाता है (मत्ती 5:45)। और एक छाया जो अपने पुत्र येसु के साथ चलती है।

ईश्वर ने संत जोसेफ से कहा: 'उठिए ! बालक और उसकी माता को लेकर मिस्रदेश भाग जाइए! (मत्ती 2:13)।

इस परिपत्र का उद्देश्य इस महान संत के प्रति हमारे प्रेम की वृद्धि करना, उनसे विनती करने के लिए प्रोत्साहन और उनके सदगुणों तथा उत्साह का अनुकरण करना है।

वास्तव में, संतों का सही मिशनकार्य केवल चमत्कार तथा अनुग्रह प्राप्त करना नहीं है, बल्कि ईश्वर के सामने हमारे लिए निवेदन करने के लिए है, जैसे अब्राहम [26] और मूसा [27] तथा येसु जैसे, (1तिमथी2:5) पिता ईश्वर के साथ हमारे 'मध्यस्थ' (1योहन 2:1) और जो हमेशा हमारे लिए निवेदन करता रहता है (इब्रानियों 7:25; रोमियों 8:34)।

संत सभी विश्वासियों को पवित्रता और अपने जीवन की विशेष अवस्था को प्राप्त करने के प्रयास में उनकी सहायता करते हैं [28] | उनकी जीवनी एक ठोस सबूत है कि सुसमाचार की शिक्षाओं को व्यवहार में लाना सम्भव है।

येसु ने हमसे कहा है: “मुझसे सीखो, क्योंकि मैं स्वभाव से नग्र और विनीत हूँ. (मत्ती 11:29) संतों की जीवनियाँ भी उनका अनुसरण करने के लिए आदर्श है। संत पौलुस स्पष्ट रूप से कहते हैं: “आप मेरा अनुसरण करें (1कोरिन्थयों 4:16) [29] अपने वाक्पटु मौन से संत जोसेफ भी ऐसा ही कहते हैं।

इतनी सारी महान संत विभूतियों को देखते हुए संत अगुस्तीन स्वयं से पूछते हैं: उन्होंने जो कुछ हासिल किया, क्या उसे तुम हासिल नहीं कर सकते ? * इस प्रकार वह अपने आमूलचूल परिवर्तन के अधिक नज़दीक आया, जब उसने हृदय की गहराई से कहा: “कितने विलम्ब से मैंने तुम्हें प्यार किया, सदाबहार सौन्दर्य सदा प्राचीन, सदा नवीन !' [30]

बस हमें संत जोसेफ से अनुग्रह पर अनुग्रह माँगने की ज़रूरत है; और वो है, हमारा आमूलचूल परिवर्तन।

आइए, हम उनसे प्रार्थना करें:

प्रणाम, हे मुक्तिदाता के रक्षक,

धन्य कुँवारी मरियम के अति शुद्ध वर ।

ईश्वर ने अपने इकलौते पुत्र को आपके संरक्षण में रखा;

आप ही में मरियम ने अपनी आशा रखीः

और आपके साथ ख़ीस्त मनुष्य बने ।


धन्य जोसेफ, हमें भी अपना पितृप्रेम दिखाइए,

और हमारे जीवन पथ में मार्गदर्शन कीजिए ।

हमारे लिए अनुग्रह, करुणा तथा साहस प्राप्त कीजिए,

और हर बुराई से हमारी रक्षा कीजिए। आमेन।


रोम के सेंट जॉन लाटेरान में, 8 दिसम्बर को, धन्य कुँवारी मरियम के निष्कलंक गर्भागमन के महापर्व पर, वर्ष 2020 में, मेरे आठवें शासनकाल में पेश किया गया।

संतपिता फ्रांसिस


Footnotes

[1] लूकस 4:22; मत्ती 13:55; मारकुस 6:3
[2] एस. रितुम कॉन्ग्रेगात्सियो, क्वेमादमोदुम देउस (8 दिसम्बर 1870): ए.एस.एस. 6(1870-71)194.
[3] एड्रेस टू ए. सी. एल. आइ. ऑन द सोलेमनिटी ऑफ सेंट जोसेफ द वर्कर (1 मई 1955): ए.एस.एस. 47 (1955), 406
[4] एपोस्तोलिक एक्सोरटेशन रेदेम्पतोरिस कूस्तोस (15 अगस्त 1989): ए.एस.एस. 82 (1990),5-34.
[5] केटेकिसम ऑफ द केथोलिक चर्च, 1014
[6] मेडिटेशन इन द टाइम ऑफ पाण्डेमिक (27 मार्च 2020): लोसेवातो रोमानो, 29 मार्च 2020, पृष्ठ 10
[7] ज्नमाथेयुम होमिले, बी,3: पीजी 57, 58.
[8] उपदेश (19 मार्च 1966) : इंसेन्यामेन्दी दी पाउलो VI, IV(1966), 110.
[9] आत्मकथा, 6, 6-8.
[10] मैं करीब चालीस सालों से, प्रतिदिन, सिस्टर्स ऑफ जीसस एण्ड मेरी संस्था की नौवीं शताब्दी की एक फ्रांसिसी प्रार्थना पुस्तक की प्रभात वन्दना में दी हुई प्रार्थना करता आ रहा हूँ। जो भक्ति तथा भरोसे के साथ कुछ हद तक संत जोसेफ की चुनौतियों को अभिव्यक्त करती है: “हे ग्रतापी आदरणीय संत जोसेफ, आपकी शक्ति असम्भव को भी सम्भव बनाती है, इस पीड़ा और मुसीबत के समय मेरी सहायता कीजिए। इन गम्भीर तथा चिन्तित परिस्थितियों को अपनी सुरक्षा में रखिए जिन्हें मैं आपको सौंपता हूँ, ताकि उनसे आनन्दमय फल प्राप्त हो सके | है मेरे प्रिय पिता, मुझे आप पर पूरा भरोसा है। ऐसा न हो कि मेरी प्रार्थना व्यर्थ जाए, जबकि प्रभु येसु और मरियम के साथ आप सबकुछ कर सकते हैं, मुझे दिखाइए कि आपकी दयालुता आपकी शक्ति के समान महान है। आमेन।
[11] विधि विवरण ग्रन्थ 4:31; स्तोत्र 69:16; 78:38; 86:5; 111:4; 116:5; यिर 31:20.
[12] एपोस्तोलिक एक्सहोरटेशन एवांजेलिई गाउदियुम (24 नवम्बर 2013), 88,288: एएएस 105 (2013), 1057, 1136-1137.
[13| उत्पत्ति ग्रन्थ 20:3; 28:12; 31:11-24; 40:8; 41:1-31; गणना ग्रन्थ 12:6; 1सामुएल 3:3-10; दानिएल 2:4; योब 33:15.
[14] विधिविवरण ग्रन्थ 22:20-21.
[15] लेवी ग्रन्थ 12:1-8; निर्गमन ग्रन्थ 13:2
[16] मत्ती 26:39; मारकुस 14:36; लूकस 22:42.
[17] संत योहन पौलुस द्वितीय, एपोस्तोलिक एक्सहोरटेशन रैदेम्पतोरिस कुस्तोस (15 अगस्त 1989) एएएस 82 (1990),14.
[18] कोलोम्बिया के विलाविसेंसियो की धन्यघोषण-मिस्सा के दौरान प्रवचन (8सितम्बर 2017) एएएस 109 (2017),1061.
[19] एंखिरिदिओन दे फिदे, स्पे एत कारिताते, 3.11; पीएल 40, 236.
[20] विधिविवरण ग्रन्थ 10:19; निर्गमन ग्रन्थ 22:20-22; लूकस 10:29-37
. [21] एस. रितुउम कोंग्रगासियो, क्वेमादमोदुम देउस (8 दिसम्बर 1870): एएएस 6(1870-1871), धन्य पीयुस नौंवे, अपोस्तोलिक लेटर इंक्लिदुम पात्रिआखाम (7 जुलाई 1871): एल.सी. 324-327.
[22] द्वितीय वेटिकन महासभा, डोग्माटिक कोंस्टिट्युशन ऑफ द चर्च लूमेन जेंसियुम, 58.
[23] केटेकिसम ऑफ केथोलिक चर्च,863-970
[24] ओरिजिनल एडिशन: सिएन ओएका, वार्सो, 1977.
[25] संत योहन पौलुस द्वितीय, एपोस्तोलिक एक्सहोरटेशन रेदेम्पतोरिस कुस्तोस, 7-8: एएएस 82 (1990), 2-6.
[26] उत्पत्ति ग्रन्थ 18:23-32.
[27] निर्गमन ग्रन्थ 17:8-13; 32:30-35.
[28] द्वितीय वेटिकन महासभा, डोग्माटिक कोंस्टिट्युशन ऑफ द चर्च लूमेन जेंसियुम, 42.
[29] 1कोरिन्थयों 11:1; फिलिप्पियो 3:17; थेस्सलोनिकियो 1:6.
[30] कंफेशन 8:11,27: पीएल 32, 761; 10,27,38: पीएल 32, 795.
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