3) इस्राएल अपने सब दूसरे पुत्रों से यूसुफ़ को अधिक प्यार करता था, क्योंकि वह उसके बुढ़ापे की सन्तान था। उसने यूसुफ़ के लिए एक सुन्दर कुरता बनवाया था।
4) उसके भाइयों ने देखा कि हमारा पिता हमारे सब भाइयों से यूसुफ़ को अधिक प्यार करता है; इसलिए वे उस से बैर करने लगे और उस से अच्छी तरह बात भी नहीं करते थे।
12) यूसुफ़ के भाई अपने पिता की भेड़ बकरियाँ चराने सिखेम गये थे।
13) इस्राएल ने यूसुफ़ से कहा, ''तुम्हारे भाई सिखेम में भेडें चरा रहे है। मैं तुम को उनके पास भेजना चाहता हूँ।''
17) यूसुफ़ अपने भाइयों की खोज में निकला और उसने उन को दोतान में पाया।
18) उन्होंने उसे दूर से आते देखा था और उसके पहुँचने से पहले ही वे उसे मार डालने का षड्यन्त्र रचने लगे।
19) उन्होंने एक दूसरे से कहा, ''देखो, वह स्वप्नदृष्टा आ रहा है।
20) चलो, हम उसे मार कर किसी कुएँ में फेंक दें। हम यह कहेंगे कि कोई हिंस्र पशु उसे खा गया है। तब हम देखेंगे कि उसके स्वप्न उसके किस काम आते हैं।''
21) रूबेन यह सुन कर उसे उनके हाथों से बचाने के उद्देश्य से बोला, ''हम उसकी हत्या न करें।''
22) तब रूबेन ने फिर कहा, ''तुम उसका रक्त नहीं बहाओ। उसे मरूभूमि के कुएँ में फेंक दो, किन्तु उस पर हाथ मत लगाओ।'' वह उसे उनके हाथों से बचा कर पिता के पास पहुँचा देना चाहता था।
23) इसलिए ज्यों ही यूसुफ़ अपने भाइयों के पास पहुँचा, उन्होंने उसका सुन्दर कुरता उतारा और उसे पकड़ कर कुएँ में फेंक दिया।
24) वह कुआँ सूखा हुआ था, उस में पानी नहीं था।
25) इसके बाद से वे बैठ कर भोजन करने लगे। उन्होंने आँखें ऊपर उठा कर देखा कि इसमाएलियों का एक कारवाँ गिलआद से आ रहा है। वे ऊँटों पर गोंद, बलसाँ और गन्धरस लादे हुए मिस्र देश जा रहे थे।
26) तब यूदा ने अपने भाइयों से कहा, ''अपने भाई को मारने और उसका रक्त छिपाने से हमें क्या लाभ होगा?
27) आओ, हम उसे इसमाएलियों के हाथ बेच दें और उस पर हाथ नहीं लगायें; क्योंकि वह तो हमारा भाई और हमारा रक्तसम्बन्धी है।'' उसके भाइयों ने उसकी बात मान ली।
28) उस समय मिदयानी व्यापारी उधर से निकले। उन्होंने यूसुफ़ को कुएँ से निकाला और उसे चाँदी के बीस सिक्कों में इसमाएलियों के हाथ बेच दिया और वे यूसुफ़ को मिस्र देश ले गये।
33) ’’एक दूसरा दृष्टान्त सुनो। किसी भूमिधर ने दाख की बारी लगवायी, उसके चारों ओर घेरा बनवाया, उस में रस का कुण्ड खुदवाया और पक्का मचान बनवाया। तब उसे असामियों को पट्ठे पर दे कर वह परदेश चला गया।
34) फसल का समय आने पर उसने फसल का हिस्सा वसूल करने के लिए असामियों के पास अपने नौकरों को भेजा।
35) किन्तु असामियों ने उसके नौकरों को पकड़ कर उन में से किसी को मारा-पीटा, किसी की हत्या कर दी और किसी को पत्थरों से मार डाला।
36) इसके बाद उसने पहले से अधिक नौकरों को भेजा और असामियों ने उनके साथ भी वैसा ही किया।
37) अन्त में उसने यह सोच कर अपने पुत्र को उनके पास भेजा कि वे मेरे पूत्र का आदर करेंगे।
38) किन्तु पुत्र को देख कर असामियों ने एक दूसरे से कहा, ’यह तो उत्तराधिकारी है। चलो, हम इसे मार डालें और इसकी विरासत पर कब्जा कर लें।’
39) उन्होंने उसे पकड़ लिया और दाखबारी से बाहर निकाल कर मार डाला।
40) जब दाखबारी का स्वामी लौटेगा, तो वह उन असामियों का क्या करेगा?’’
41) उन्होंने ईसा से कहा, ’’वह उन दृष्टों का सर्वनाश करेगा और अपनी दाखबारी का पट्ठा दूसरे असामियों को देगा, जो समय पर फसल का हिस्सा देते रहेंगे’’।
42) ईसा ने उन से कहा, ’’क्या तुम लोगों ने धर्मग्रन्थ में कभी यह नहीं पढा? करीगरों ने जिस पत्थर को बेकार समझ कर निकाल दिया था, वही कोने का पत्थर बन गया है। यह प्रभु का कार्य है। यह हमारी दृष्टि में अपूर्व है।
43) इसलिए मैं तुम लोगों से कहता हूँ- स्वर्ग का राज्य तुम से ले लिया जायेगा और ऐसे राष्ट्रों को दिया जायेगा, जो इसका उचित फल उत्पन्न करेगा।
45) महायाजक और फरीसी उनके दृष्टान्त सुन कर समझ गये कि वह हमारे विषय में कह रहे हैं।
46) वे उन्हें गिरफ्तार करना चाहते थे, किन्तु वे जनता से डरते थे; क्योंकि वह ईसा को नबी मानती थी।
यहूदी लोग ईश्वर के चुने हुए लोग थे क्योंकि ईश्वर का पुत्र दुनिया के सभी लोगों में से उनके बीच में मानव शरीर में आया था। वे न केवल उन्हें पहचानने में विफल रहे, बल्कि उन्होंने उनकी निंदा की और उनके ऊपर झूठे आरोप लगा कर, उन्हें मौत की सजा दिला कर उनके साथ बुरा व्यवहार भी किया। बहुत से नबी और धर्मी लोग मसीह के दिनों को देखने के लिए तरसते थे परन्तु वे देख नहीं पाये थे (देखें मत्ती 13:17)। ईश्वर के राज्य के बीज यहूदियों में बोए गए, परन्तु वे फल देने में असफल रहे। इसलिए राज्य उनसे छीन लिया गया और उन्हें दिया गया जो फल पैदा करेंगे। यह बात येसु दुष्ट असामियों के दृष्टांत के माध्यम से लोगों को बताना चाहते थे। प्रभु हमसे फल पैदा करने की उम्मीद करते हैं। प्रभु हम में अच्छाई के बीज बोते रहते हैं। हमें उन बीजो के अंकुरित होने तथ विकसित होने में समर्थन देने और उन्हें फल पैदा करने में सक्षम बनाने के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए। हमें हर प्रतिभा पर मेहनत करने की जरूरत है और हमें आशीर्वाद दिया जाता है ताकि वह फल पैदा करे।
✍ - फादर फ्रांसिस स्करिया
The Jewish people were in a privileged position because the Son of God came in human flesh in their midst out of all the people in the world. They not only failed to recognize him, but also ill treated him by falsely accusing to have him condemned and sentenced to death. Many prophets and righteous people longed to see the days of the Messiah but could not see (cf. Mt 13:17). The seeds of the kingdom of God were sown among the Jews, but they failed to produce fruits. So the Kingdom was taken away from them and given to others who would produce fruits. This is what Jesus wanted to communicate to the people through the parable of the wicked tenants. God expects us to produce fruits. God keeps sowing goodness in us. We need to support its growth and enable it to produce fruits. We need to work on every talent and blessing given to us so that it produces fruits.
✍ -Fr. Francis Scaria
हिंसक आसामियों का दृष्टांत इस्राएलियों के इतिहास का संक्षिप्त चित्रण है। ईश्वर ने स्वयं पहल कर उनके साथ विधान की स्थापना की थी। दृष्टांत के दाखबारी के भूमिधर जिसने दाखबारी स्थापित करने के लिये सभी बारीक से बारीक बातों का ध्यान रखा था ईश्वर ने भी इस्राएलियों को अपनी प्रजा बनाने के लिये ऐसा ही किया था। उसने उन्हें गुलामी की दासता से मुक्त कर एक राष्ट्र के रूप में स्थापित किया था। ईश्वर ने उनके साथ ऐसा किया क्योंकि वे चाहते थे उनकी प्रजा उनके प्रति वफादार रहेगी तथा फल उत्पन्न करेगी।
निर्गमन ग्रंथ में इस बात का उल्लेख मिलता है, ’’प्रभु ने मूसा से कहा, ’फिराउन के यहाँ जा कर उस से कहो कि इब्रानियों का ईश्वर प्रभु कहता है कि मेरे लोगों को चले जाने दो, जिससे वे मेरी पूजा कर सकें।’’ (निर्गमन 9ः1) किन्तु इस्राएली न सिर्फ विश्वाघाती बल्कि विद्रोही प्रजा भी सिद्ध हुये। नबी आमोस उनके इस व्यवहार पर सवाल उठाते हुये पूछते हैं, ’’इस्राएल के घराने! क्या तुमने उन चालीस वर्षों में, मरुभूमि में कभी मुझे बलि और नैवेद्य चढाते थे? कदापि नहीं।’’ (आमोस 5ः25)
उन्होंने ईश्वर की वाणी को नजरअंदाज किया तथा उसके नबियों की हत्या की। यह दृष्टांत भविष्य की तीन बातों को बताता है, पहला पुत्र की हत्या, सजा तथा दाखबारी को यहूदियों से वापस लेना।
दृष्टांत हरेक की व्यक्तिगत कहानी है। ईश्वर पहल करता तथा हमें सबकुछ प्रदान करता है। वह हमारे दोषपूर्ण आचरण को सहता ताकि हम एक दिन उसके ओर अभिमुख हो। वह हमें एक के बाद अनेक अवसर प्रदान करता है तथा धैर्य के साथ हमारा इंतजार करता है। लेकिन एक दिन न्याय का दिन भी आयेगा। यदि हम ईश्वर की चेतावनी एवं उसके धैर्य की परीक्षा लेते रहेंगे तो नरक की सजा हमारा अंत होगा।
✍ - फादर रोनाल्ड वाँन
The parable of the wicked tenants is a history in a glance of the people of Israel. It was God who took initiative and established convent with them. Like the landowner in parable who takes care of the minutest details of the vineyard God took care of the people of Israel. He set them free of the slavery and established them as a nation. God did all these so that they would be faithful to him in producing fruits.
As in the book of Exodus we see, “Then the Lord said to Moses, ‘Go to Pharaoh and say to him, “Thus says the Lord: Let my people go, so that they may worship me.” (Exodus 8:1) However, they proved not only infidel but also rebellious. Prophet Amos would recount the infidelity of Israelites in the wilderness and ask, “Did you bring to me sacrifices and offerings the forty years in the wilderness, O house of Israel? (Amos 5:25)
They brushed aside God’s message and killed the prophets. The parable indicates three futurist things. The killing of the son, punishment and the taking away of the vineyard from the Jews.
This parable is a story of every individual. God takes initiative and provides everything. He bears our infidelity so that one day we may turn to him. He keeps waiting for us patiently and generously. However, there would be a day of reckoning. If we continue to neglect his love and warning then the eternal condemnation will be our fate.
✍ -Fr. Ronald Vaughan