शनिवार, 09 मार्च, 2024

चालीसे का तीसरा सप्ताह

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📒 पहला पाठ : होशेआ का ग्रन्थ 6:1-6

1) ’’ आओ! हम प्रभु के पास लौटें। उसने हम को घायल किया, वही हमें चंगा करेगा; उसने हम को मारा है, वही हमारे घावों पर पट्टी बाँधेगा।

2) वह हमें दो दिन बाद जिलायेगा; तीसरे दिन वह हमें उठोयेगा और हम उसके सामने जीवित रहेंगे।

3) आओ! हम प्रभु का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करें। उसका आगमन भोर की तरह निश्चित है। वह पृथ्वी को सींचने वाली हितकारी वर्षा की तरह हमारे पास आयेगा।’’

4) एफ्राईम! मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ? यूदा! मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ? तुम्हारा प्रेम भोर के कोहरे के समान है, ओस के समान, जो शीघ्र ही लुप्त हो जाती है।

5) इसलिए मैंने नबियों द्वारा तुम्हें घायल किया। अपने मुख के शब्दों द्वारा तुम्हें मारा है;

6) क्योंकि मैं बलिदान की अपेक्षा प्रेम और होम की अपेक्षा ईश्वर का ज्ञान चाहता हूँ।

📙 सुसमाचार : सन्त लूकस 18:9-14

9) कुछ लोग बड़े आत्मविश्वास के साथ अपने को धर्मी मानते और दूसरों को तुच्छ समझते थे। ईसा ने ऐसे लोगों के लिए यह दृष्टान्त सुनाया,

10) ‘‘दो मनुष्य प्रार्थना करने मन्दिर गये, एक फ़रीसी और दूसरा नाकेदार।

11) फ़रीसी तन कर खड़ा हो गया और मन-ही-मन इस प्रकार प्रार्थना करता रहा, ’ईश्वर! मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ कि मैं दूसरे लोगों की तरह लोभी, अन्यायी, व्यभिचारी नहीं हूँ और न इस नाकेदार की तरह ही।

12) मैं सप्ताह में दो बार उपवास करता हूँ और अपनी सारी आय का दशमांश चुका देता हूँ।’

13) नाकेदार कुछ दूरी पर खड़ा रहा। उसे स्वर्ग की ओर आँख उठाने तक का साहस नहीं हो रहा था। वह अपनी छाती पीट-पीट कर यह कह रहा था, ‘ईश्वर! मुझ पापी पर दया कर’।

14) मैं तुम से कहता हूँ-वह नहीं, बल्कि यही पापमुक्त हो कर अपने घर गया। क्योंकि जो अपने को बड़ा मानता है, वह छोटा बनाया जायेगा; परन्तु जो अपने को छोटा मानता है, वह बड़ा बनाया जायेगा।’’

📚 मनन-चिंतन

येसु के समय में कई फरीसी अच्छे, धर्मी और पवित्र व्यक्ति होने का दिखावा करते थे जबकि वे वास्तव में बुराई से भरे हुए थे। प्रभु येसु इसी बात को फरीसी और नाकेदार के दृष्टांत में प्रस्तुत करते हैं। येसु के समय में बहुत से फरीसी अपने आप को धर्मी के रूप में प्रस्तुत करते थे। उसी के साथ-साथ वे दूसरों को नीचे दिखाने की कोशिश भी करते थे। ठीक से प्रार्थना करने के लिए हमें विनम्र बनना चाहिए। यद्यपि लोग नाकेदारों से घृणा करते हैं, दृष्टान्त का नाकेदार कोई दिखावा नहीं करता। वह ईश्वर के सामने अपनी अयोग्यता को स्वीकार कर लेता है और ईश्वर की दया की याचना करता है। इसका बिलकुल विपरीत, ऐसा लगता है कि फरीसी ईश्वर से अपना हक मांग रहा है। येसु ने उसे 'ढ़ोंगी' कहा और उसे ईश्वर के न्याय के बारे में चेतावनी दी। हमारे जीवन में हम ऐसे लोगों से मिलते हैं जो अच्छा होने का दिखावा करते हैं, जबकि उनके इरादे बुरे होते हैं। कभी-कभी हम अच्छे लोगों को बुरे मानते हैं और बुरे लोगों को अच्छे। संत पौलुस कहते हैं, "वे झूठे प्रचारक और कपटपूर्ण कार्यकर्ता है, जो मसीह के सन्देशवाहकों का स्वाँग रचते हैं। यह आश्चर्य की बात नहीं, क्योंकि स्वयं शैतान ज्योतिर्मय स्वर्गदूत का स्वाँग रचता है। इसलिए उसके कार्यकर्ता भी सहज ही धर्म के सेवकों का स्वाँग रचते हैं, किन्तु उनकी अन्तगति उनके आचरण के अनुरूप होगी। (2 कुरिन्थियों 11:13-15) हमें हमेशा ढोंग और पाखंड की बुराइयों से दूर रहना चाहिए।

- फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

Many Pharisees pretended to be good, righteous and holy persons while they were actually full of evil. Jesus exposes them in the parable of the Pharisee and the publican. Many Pharisees at the time of Jesus were self-righteous people who found fault with others while presenting themselves as holy people. The right attitude in prayer is one of deep humility. The tax-collector, although he is hated by people, has no pretentions. He accepts his unworthiness before God and seeks God’s mercy. Pharisee sought what he considered to his ‘right’. Jesus called them ‘hypocrites’ and warned them about God’s judgment. In our life we come across people who pretend to be good, while their intentions are evil. Sometimes we misunderstand people who are good to be evil. St. Paul says, “For such boasters are false apostles, deceitful workers, disguising themselves as apostles of Christ. And no wonder! Even Satan disguises himself as an angel of light. So it is not strange if his ministers also disguise themselves as ministers of righteousness. Their end will match their deeds.” (2Cor 11:13-15). We need to keep away from the evils of pretention and hypocrisy.

-Fr. Francis Scaria

📚 मनन-चिंतन -2

दृष्टांत में फरीसी प्रार्थना का मजाक बनाता प्रतीत होता है। यदि हम मान भी ले कि जो कुछ वह अपनी प्रार्थना में कह रहा था वह सत्य था लेकिन फिर भी अपनी सारी अच्छाईयों को एक सूचीबद्ध रूप से ईश्वर को सुनाना उसकी धार्मिकता का प्रदर्शन मात्र था। यह वैसा ही है जैसे कोई घमण्डी व्यक्ति विनम्रता सीख ले तो वह उस विनम्रता पर भी घमण्ड करेगा। फरीसी को अपने कार्यों पर गर्व था। वह ईश्वर को धन्यवाद की प्रार्थना में केवल स्वयं के कार्यों का बखान करता है। वह अपनी धार्मिकता का सारा श्रेय स्वयं को ही देता है। वह न केवल अपने कार्यों पर घमण्ड करता था बल्कि दूसरों के जीवन को तुच्छ मानता था। ऐसे दृष्टिकोण एवं मानसिकता ईश्वर की दृष्टि में घृणित है। उसकी स्वयं, दूसरों तथा ईश्वर के प्रति सोच एवं रवैया प्रथम दृष्टि में ही निंदनीय है।

लेकिन सबसे बडा मुद्दा यह नहीं है कि फरीसी अपनी प्रार्थना में क्या कर रहा था। बडी बात यह है कि हम अपनी प्रार्थनाओं में क्या करते हैं? हम फरीसी के समान खुलकर एवं स्पष्टरूप से तो ऐसी बातें प्रार्थनाओं में नहीं करते होंगे किन्तु सूक्ष्म तथा फुसफुसाकर शायद यही करते हैं। हम स्वयं के जीवन एवं आचारण को उच्च तथा दूसरों के कार्यों की कमियॉ देखते हैं। यदि हम रोजाना चर्च जाते, उपवास, प्रार्थना तथा दान-दक्षिणा के कार्य करते हो और ऐसा करने के बाद भी विपत्तियॉ आ जाये तो सोचते हैं कि सब धार्मिक कार्य करने के बावजूद भी मैं तकलीफ में हूँ जबकि दूसरे लोग भ्रष्टता का जीवन जी कर भी आनन्द और संमपन्नता का जीवन जीते हैं! हम ईश्वर का ध्यान आकर्षित अपने धार्मिक कार्यों तथा दूसरों के बुरे कार्यों की ओर करते हैं। ऐसी मनोवृत्ति का हमारे आध्यात्मिक में होना संभव है किन्तु यह इतनी सूक्ष्म है कि हम इसे महसूस नहीं कर पाते हैं। आज का दृष्टंात हमें याद दिलाता है कि हम अपने अंतरतम की जॉच करे तथा प्रयास करे कि हम फरीसी जैसी मानसिकता को त्याग सके।

- फादर रोनाल्ड वाँन


📚 REFLECTION

The prayer of the Pharisees in the parable is the mockery of the spirit of prayers. Let us presume everything he spoke about himself is true. But to enlist it before God is nothing but parading of one’s piety is against the very nature of it. It was like a proud man can learn humility, but he will be proud of it. Pharisee’s prayer of gratitude is spoken to the Lord, but it is really about himself. He attributes his righteousness entirely in his own actions. He not only prided himself but also belittled the other for his way of life. Such attitude stands no ground before God. His attitude towards himself, others and God can be condemned at the first sight.

However, issue is not what the Pharisees was doing but what do we do in our worship. We may not be bold and explicit like the Pharisee but in some subtle and hidden way we too justify ourselves and our doings. We do feel how good we are specially in comparison with others. We judge ourselves high and all our faults and shortcomings have reason to be justified. If we are regular at going to Church and other pious activities, we may in our prayers say, ‘Lord I have been faithful to you, to your church, giving alms, fasting etc. but yet all the problems have befallen upon me. So, in this way don’t we act like pharisee. And if we find our rivals growing stronger and prosper we often draw God’s attention to their wrong doings saying, how corrupt and sinfully they have been yet flourishing etc. Such kind of utterances are very common yet fail to arrest our attention because we are too sentimental and deeply involved into situations. Today’s parable reminds us to examine ourselves and try to behave not to be like the Pharisee.

-Fr. Ronald Vaughan