जून 12, 2024, बुधवार

वर्ष का दसवाँ सामान्य सप्ताह

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📒 पहला पाठ : राजाओं का पहला ग्रन्थ 18:20-39

20) अहाब ने सब इस्राएलियों को बुला भेजा और नबियों को करमेल पर्वत पर एकत्र किया।

21) तब एलियाह ने जनता के सामने आ कर कहा, ‘‘तुम लोग कब तक आगा-पीछा करते रहोगे? यदि प्रभु ही ईश्वर है, तो उसी के अनुयायी बनो और यदि बाल ईश्वर है, तो उसी के अनुयायी बनो।’’ किन्तु लोगों ने उसे कोई उत्तर नहीं दिया।

22) तब एलियाह ने जनता से कहा, ‘‘मैं प्रभु का अकेला नबी रह गया हूँ। बाल के नबियों की संख्या साढ़े चार सौ है।

23) हमें दो साँ़ड़ दो। वे उन दोनों में से एक को अपने लिए चुन लें, उसके टुकड़े-टुकड़े करें और लकड़ी पर रख दें, किन्तु वे उस में आग नहीं लगायें। मैं दूसरा साँड़ तैयार कर उसे लकड़ी पर रखूँगा और उस में आग नहीं लगाऊँगा।

24) तुम अपने देवता का नाम ले कर प्रार्थना करो और मैं अपने प्रभु का नाम ले कर प्रार्थना करूँगा- जो देवता आग भेज कर उत्तर देगा, वही ईश्वर है।’’ सारी जनता ने यह कहते हुए उत्तर दिया, ‘‘हमें स्वीकार है’’।

25) तब एलियाह ने बाल के नबियों से कहा, ‘‘तुम्हारी संख्या अधिक है, इसलिए तुम अपने लिए एक साँड़ चुन लो और उसे तैयार करो। अपने देवता का नाम ले कर प्रार्थना करो, किन्तु आग नहीं लगाओ।’’

26) उन्होंने अपने को दिया हुआ साँड़ ले कर तैयार दिया। तब वे सुबह से दोपहर तक यह कहते हुए बाल से प्राथना करते रहे, ‘‘बाल! हमारी सून।’’ किन्तु कोई वाणी नहीं सुनाई पड़ी, कोई उत्तर नहीं मिला, यद्यपि वे अपनी बनायी हुई वेदी के चारों ओर घुटने झुकाते हुए नाचते रहे। दोपहर के लगभग एलियाह यह कहते हुए

27) उनका उपहास करने लगा, ‘‘तुम लोग और जोर से पुकारो। वह तो देवता है न? वह किसी सोच-विचार में पड़ा हुआ होगा या किसी काम में लगा हुआ होगा या यात्रा पर होगा। हो कसता है- वह सोया हुआ हो, तो उसे जगाना पड़े।’’

28) वे और जोर से पुकारने और अपने रिवाज के अनुसार अपने को तलवारों और भालों से काट मारने लगे, यहाँ तक कि वे रक्त से लथपथ हो गये।

29) वे दोपहर के बाद भी सान्ध्योपासना के समय तक ऐसा करते रहे, किन्तु न तो कोई वाणी सुनाई पड़ी और न कोई उत्तर मिला। उनकी प्रार्थना पर ध्यान ही नहीं दिया गया।

30) तब एलियाह ने जनता से कहा, ‘‘मेरे पास आओ’’। अब लोग उसके पास आये और एलियाह ने प्रभु की वेदी फिर बनायी, जो गिरा दी गयी थी।

31) प्रभु ने याकूब से कहा था कि तुम्हारा नाम इस्राएल होगा। उसी याकूब के पुत्रों के वंशों की संख्या के अनुसार एलियाह ने बारह पत्थर लिये और उन से प्रभु के लिए एक वेदी बनायी।

32) उसने उसके चारों ओर एक नाला खोदा, जिस में अनाज के दो पैमाने समा सकते थे।

33) तब उसने लकड़ियाँ वेदी पर सजायीं, साँड़ के टूकड़े-टुकड़े कर दिये और उसे लकड़ी पर रखा।

34) तब उसने कहा, ‘‘चार घड़े पानी से भर कर होम-बलि और लकड़ी पर उँढ़ेल दो’’। उसके बाद उसने कहा, ‘‘एक बार और यही करो’’। जब उन्होंने ऐसा किया, तो उसने कहा, ‘‘तीसरी बार यही करो’’।

35) जब उन्होंने तीसरी बार ऐसा किया, तो पानी वेदी पर से चारों और बहने लगा और नाला पानी से भर गया।

36) सान्ध्योपासना के समय नबी एलियाह ने आगे बढ़ कर कहा, ‘‘इब्राहीम, इसहाक और इस्राएल के ईश्वर! आज यह दिखाने की कृपा कर कि तू इस्राएल का ईश्वर है और यह कि मैं - तेरे सेवक- ने यह सब तेरे आदेश के अनुसार किया है।

37) मेरी सुन! प्रभु! मेरी सुन! जिससे यह प्रजा स्वीकार करे कि तू, प्रभु सच्चा ईश्वर है। इस प्रकार तू इसका हृदय फिर अपनी ओर उन्मुख कर देगा।’’

38) इस पर प्रभु की आग बरस पड़ी। उसने होम-बलि, लकड़ी, पत्थर और मिट्टी- सब कुछ भस्म कर दिया और नाले का पानी भी सुखा दिया।

39) लोग यह देख मुँह के बल गिर पड़े और बोल उठे, ‘‘प्रभु ही ईश्वर है! प्रभु ही ईश्वर है!’’

📒 सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 5:17-19

(17) ’’यह न समझो कि मैं संहिता अथवा नबियों के लेखों को रद्द करने आया हूँ। उन्हें रद्द करने नहीं, बल्कि पूरा करने आया हूँ।

(18) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- आकाश और पृथ्वी भले ही टल जाये, किन्तु संहिता की एक मात्रा अथवा एक बिन्दु भी पूरा हुए बिना नहीं टलेगा।

(19) इसलिए जो उन छोटी-से-छोटी आज्ञाओं में एक को भी भंग करता और दूसरों को ऐसा करना सिखाता है, वह स्र्वगराज्य में छोटा समझा जायेगा। जो उनका पालन करता और उन्हें सिखाता है, वह स्वर्गराज्य में बड़ा समझा जायेगा।

📚 मनन-चिंतन

कई यहूदी नेताओं का मानना था कि येसु उनके कानूनों को तोड़ रहे थे और उनके अपने धर्मग्रंथ के खिलाफ जा रहे थे। वास्तव में, येसु कानून की पूर्ति कर रहे थे। उन्होंने स्पष्ट किया कि वे संहिता को समाप्त करने के लिए नहीं बल्कि संहिता की पूर्ति करने के लिए आए थे। “संहिता और नबी” से आशय पुराने नियम से था जिसमें ईश्वर का प्रेरित वचन था। लेकिन अक्सर पुराने नियम के ईश्वर के वचन की गलत व्याख्या की जाती थी और उसे गलत समझा जाता था। येसु ऐसी गलत व्याख्याओं और गलतफहमियों को सही करना चाहते थे। मत्ती 19:7-9 में एक उदाहरण है जहाँ हम पढ़ते हैं, “उन्होंने ईसा से कहा, "तब मूसा ने पत्नी का परित्याग करते समय त्यागपत्र देने का आदेश क्यों दिया? ईसा ने उत्तर दिया, "मूसा ने तुम्हारे हृदय की कठोरता के कारण ही तुम्हें पत्नी का परित्याग करने की अनुमति दी, किन्तु प्रारम्भ से ऐसा नहीं था। मैं तुम लोगों से कहता हूँ कि व्यभिचार के सिवा किसी अन्य कारण से जो अपनी पत्नी का परित्याग करता और किसी दूसरी स्त्री से विवाह करता है, वह भी व्यभिचार करता है।" येसु चाहते थे कि लोग ईश्वर के मूल इरादे की ओर लौटें। इसके अलावा, पुराने नियम की सभी भविष्यवाणियाँ येसु में पूरी हुईं।

- फादर फ्रांसिस स्करिया (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Many Jewish leaders thought that Jesus was breaking their laws and going against their own Scripture. Jesus was, in fact, fulfilling the Law. He clarified that he had come not to abolish the Law but to fulfill the Law. The “Law and the Prophets” meant the Old Testament which contained the inspired Word of God. But very often Word of God of the Old Testament was misinterpreted and misunderstood. Jesus wanted to correct such misinterpretations and misunderstanding. We have an example in Mt 19:7-9 where we read, “They said to him, “Why then did Moses command us to give a certificate of dismissal and to divorce her?” He said to them, “It was because you were so hard-hearted that Moses allowed you to divorce your wives, but from the beginning it was not so. And I say to you, whoever divorces his wife, except for unchastity, and marries another commits adultery.” Jesus wanted the people to go back to the original intention of God. Besides, all the Old Testament prophecies were fulfilled in Jesus.

-Fr. Francis Scaria (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन - 2

ईश्वर में विश्वास एक निर्णय है जो हमारी सफलता की संभावनाओं पर निर्भर नहीं करता है। ऐसी परिस्थिति में लाभ-हानि का हमारा मानवीय समीकरण कोई महत्व नहीं रखता है। इब्राहिम को धार्मिक माना गया क्योंकि उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी ईश्वर पर अपना विश्वास कायम रखा था। ’’इब्राहिम ने निराशाजनक परिस्थति में भी आशा रख कर विश्वास किया और बहुत से राष्ट्रों के पिता बने गये, जैसा कि उन से कहा था’’। (रोमियों 4:18)

नबी एलियस की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं थी। राजा अहाब के शासनकाल के दौरान इस्राएल अपने मार्ग से भटक गया था। वे बाल तथा अन्य देवताओं को मानने लगे थे। अहाब ने अपनी पत्नी ईजैबेल के उकसाने तथा सहयोग से ईश्वर की वेदी को नष्ट कर दिया था तथा उसके स्थान पर बाल तथा अन्य देवताओं की वेदियॉ तथा उपासना स्थल बनवाये थे। परिस्थितियॉ इतनी खराब थी कि नबी एलियस को बाल के नबियों को कार्मल पर्वत पर सच्चे ईश्वर को साबित करने के लिये चुनौती देनी पडी। एलियस बाल के चार सौ पचास नबियों के बीच अकेला था। उन्होंने बाल के अस्तित्व को साबित करने के लिये बहुत सारे आडंबरों का सहारा लिया किन्तु वे बाल के अस्तित्व को साबित नहीं कर सके। इसके बाद नबी एलियस ने बारह पत्थरों से ईश्वर की वेदी का निर्माण किया तथा अपनी बलि को ईश्वर को समर्पित किया। उन्होंने बलि तथा वेदी को पानी से तरबतर कर दिया जिससे उसके जलने पर किसी को संदेह न हो। ईश्वर ने नबी एलियस की प्रार्थना तथा बलि को स्वीकार किया तथा सभी जान गये कि एलियस का ईश्वर ही सच्चा ईश्वर है।

एलियस ये सब अविश्वसनीय कार्य कर सका क्योंकि वह जानता था कि ईश्वर सच्चा ईश्वर है। उसने इस बात की परवाह नहीं की कि बाल के नबियों की संख्या ज्यादा थी तथा राजकीय तंत्र भी उनके पक्ष में थे। एलियस का ईश्वर में विश्वास दृढ़ था। उन्होंने विश्वास के द्वारा अविश्वसनीय को भी हासिल कर लिया। हम भी सारी परिस्थितियों में विश्वासी बने रहने के लिये बुलाये गये है। हमें अपने अटल विश्वास को ईश्वर की शक्ति में रख कर जीवन की सभी छोटी-बडी चुनौतियों का सामना करना चाहिये।

-फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल


📚 REFLECTION

Trust in God is a decision no matter how much chances are there for success or survival. In such situation human arithmetic calculation does not stand a ground. Abraham is called righteous because he believed in him against all odds, “Abraham was reckoned righteous because he hoped and believed when there was no reason to believe.” (Romans 4:18)

The situation of prophet Elijah was no better. During the reign of King Ahab, Israel had drifted from God, worshiping Baal and other gods instead. King Ahab with the support of his manipulative wife, Jezebel, destroyed the altar of the Living God and built altars and high places for Baal and other gods. The situation was so bad that Elijah had to challenge the prophets of Baal on Mount Carmel, where a dramatic showdown took place. Elijah was all alone against the 450 prophets of Baal. They used all sorts of tricks and performed many rituals but to no avail. Their god Baal would not answer because there was no God. and Elijah built the altar of God with twelve stones and prepared his offering. He drenched it or soak it with water so that there is no doubt about it. then God answered Elijah’s prayers in a way that convinced the Israelites to turn their hearts back to God.

Elijah could do this unbelievable act because he knew that the God is true. He didn’t pay attention to what others had prepared or would do. Those prophets of Baal were many in number, the king and the royal support was with them but nothing could shake Elijah’s faith in God. he believed and achieved the unbelievable. We are called to be the believers in all seasons, putting our trust in God against all odds with unwavering faith and hope. God would never let us go down or put to shame.

-Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal