जून 18, 2024, मंगलवार

वर्ष का ग्यारहवाँ सामान्य सप्ताह

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📒 पहला पाठ : राजाओं का पहला ग्रन्थ 21:17-29

17) इसके बाद तिशबी एलियाह को प्रभु की वाणी यह कहते हुए सुनाई पड़ी,

18) ‘‘समारिया में रहने वाले इस्राएल के राजा अहाब से मिलने जाओ। वह नाबोत की दाखबारी में है। वह उसे अपने अधिकार में करने लिए वहाँ गया है।

19) उस से कहो, ‘प्रभु यह कहता हे: क्या तुम नाबोत की हत्या करने के बाद उसकी विरासत अपने अधिकार में करने आये हो? इसके बाद उस से कहो, प्रभु यह कहता है: जहाँ कुत्तों ने नाबोत का रक्त चाटा, वहाँ वे तुम्हारा भी रक्त चाटेंगे’।’’

20) अहाब ने एलियाह से कहा, ‘‘मेरे शत्रु! क्या तुम फिर मेरे पास आ गये?’’ उसने उत्तर दिया, ‘‘मैं फिर आया हूँ, क्योंकि जो काम प्रभु की दृष्टि में बुरा है, तुमने वही करने का निश्चय किया है।

21) इसलिए मैं तुम विपत्ति ढाऊँगा और तुम्हें मिटा दूँगा। अहाब के घराने में जितने पुरुष हैं, मैं इस्राएल में से उन सब का अस्तित्व समाप्त कर दूँगा- चाहे वे दास हों, चाहे स्वतन्त्र।

22) मैंने नबाट के पुत्र यरोबआम के घराने और अहीया के पुत्र बाशा के घराने के साथ जो किया है, वही तुम्हारे घराने के साथ करूँगा; क्योंकि तुमने मेरा क्रोध भड़काया और इस्राएल से पाप कराया है।

23) ईज़ेबेल के विषय में प्रभु यह कहता है: यिज्ऱएल की चारदीवारी के पास कुत्ते ईजे़बेल को खायेंगे।

24) अहाब के घराने का जो व्यक्ति नगर में मरेगा, वह कुत्तों द्वारा खाया जायेगा और जो खेत में मरेगा, वह आकाश के पक्षियों द्वारा खाया जायेगा।’’

25) अहाब की तरह कभी कोई नहीं हुआ, जिसने जो काम प्रभु की दृष्टि में बुरा है, उसे ही करने का निश्चय किया हो; क्योंकि उसकी पत्नी ईजे़बेल ने उसे बहकाया था।

26) प्रभु ने जिन अमोरियों को एस्राएलियों के सामने से भगा दिया, अहाब ने उन्हीं की तरह देवमूर्तियों का अनुयायी बन कर अत्यन्त घृणित कार्य किया।

27) अहाब ने ये शब्द सुन कर अपने वस्त्र फाड़ डाले और अपने शरीर पर टाट ओढ़ कर उपवास किया। वह टाट के कपड़े में सोता था और उदास हो कर इधर-उधर टहलता था।

28) तब प्रभु की वाणी तिशबी एलियाह को यह कहते हुए सुनाई पड़ी,

29) ‘‘क्या तुमने देखा है कि अहाब ने किस तरह अपने को मेरे सामने दीन बना लिया है? चूँकि उसने अपने को मेरे सामने दीन बना लिया, इसलिए मैं उसके जीवनकाल में उसके घराने पर विपत्ति नहीं ढाऊँगा। मैं उसके पुत्र के राज्यकाल में उसके घराने पर विपत्ति ढाऊँगा।’’

📒 सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 5:43-48

(43) ’’तुम लोगों ने सुना है कि कहा गया है- अपने पड़ोसी से प्रेम करो और अपने बैरी से बैर।

(44) परन्तु में तुम से कहता हूँ- अपने शत्रुओं से प्रेम करों और जो तुम पर अत्याचार करते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो।

(45) इस से तुम अपने स्वर्गिक पिता की संतान बन जाओगे; क्योंकि वह भले और बुरे, दोनों पर अपना सूर्य उगाता तथा धर्मी और अधर्मी, दोनों पर पानी बरसाता है।

(46) यदि तुम उन्हीं से प्रेम करत हो, जो तुम से प्रेम करते हैं, तो पुरस्कार का दावा कैसे कर सकते हो? क्या नाकेदार भी ऐसा नहीं करते ?

(47) और यदि तुम अपने भाइयों को ही नमस्कार करते हो, तो क्या बडा काम करते हो? क्या गै़र -यहूदी भी ऐसा नहीं करते?

(48) इसलिए तुम पूर्ण बनो, जैसा तुम्हारा स्वर्गिक पिता पूर्ण है।

📚 मनन-चिंतन

केवल उन लोगों से प्यार करना पर्याप्त नहीं है जो हमसे प्यार करते हैं; उन लोगों से प्यार करना भी पर्याप्त नहीं है जिन्हें हम पसंद करते हैं। येसु चाहते हैं कि हम स्वर्गिक पिता से प्रेम करना सीखें जो “भले और बुरे, दोनों पर अपना सूर्य उगाता तथा धर्मी और अधर्मी, दोनों पर पानी बरसाता है”। यह एक सक्रिय प्रेम है जिसकी येसु वकालत करते हैं। वह हमें सिखाते हैं कि हमें प्रेम करते रहना चाहिए चाहे जिससे प्रेम किया जा रहा है, उसकी प्रतिक्रिया ठंडी या यहां तक कि घृणित ही क्यों न हो। येसु हमें चुनौती देते हैं कि हम स्वर्गिक पिता की तरह पूर्ण बनें। पुराने विधान में पड़ोसी के प्रेम की शिक्षा है, लेकिन येसु अपनी शिक्षाओं में पड़ोसी के प्रेम की समझ को “जैसा मैंने तुमसे प्रेम किया है” कहकर उसकी पूर्णता तक ले जाते हैं। एफेसियों 4:1-3 में, संत पौलुस कहते हैं, “ईश्वर ने आप लोगों को बुलाया है। आप अपने इस बुलावे के अनुसार आचरण करें - यह आप लोगों से मेरा अनुरोध है, जो प्रभु के कारण कै़दी हूँ। आप पूर्ण रूप से विनम्र, सौम्य तथा सहनशील बनें, प्रेम से एक दूसरे को सहन करें और शान्ति के सूत्र में बँध कर उस एकता को बनाये रखने का प्रयत्न करते रहें, जिसे पवित्र आत्मा प्रदान करता है।”

- फादर फ्रांसिस स्करिया (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

It is not enough for us to love those who love us in return; it is not enough for us to love those whom we like. Jesus wants us to learn from the Heavenly Father who “makes his sun rise on the evil and on the good, and sends rain on the righteous and on the unrighteous”. It is a proactive love that Jesus advocates. He teaches us to love in spite of any cold or even hateful response from the one who is loved. Jesus challenges us to become perfect as the Heavenly Father is perfect. There is a teaching of love of neighbor in the Old Testament, but Jesus takes the understanding of the love of neighbor to its perfection in his teachings by adding “as I have loved you”. In Eph 4:1-3, St. Paul says, “I therefore, the prisoner in the Lord, beg you to lead a life worthy of the calling to which you have been called, with all humility and gentleness, with patience, bearing with one another in love, making every effort to maintain the unity of the Spirit in the bond of peace.”

-Fr. Francis Scaria (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन - 2

संत योहन अपने पत्र में कहते हैं, ‘ईश्वर प्रेम है और जो प्रेम में दृढ़ रहता है, वह ईश्वर में निवास करता है और ईश्वर उस में।’ प्रभु का दूसरा नाम ही प्रेम है, अर्थात् ईश्वर का अर्थ ही प्रेम है। इसलिए हमें प्रेम करना ईश्वर से सीखना चाहिए, प्रभु का प्रेम करना इस संसार के प्रेम करने से परे है। प्रभु सब से प्रेम करते है चाहे वह उनका भक्त हो या न हो, वे सब के कल्याण के लिए सबसे एक समान प्यार करते है चाहे हम संत हो या पापी वे प्रेम करने में पक्षपात नहीं करते; और इसी प्रकार से प्रेम करने के लिए वे आज के पाठ के द्वारा हमें आमंत्रित करते है। इस प्रकार से प्रेम करना कठिन तो है परंतु इस प्रकार का प्रेम ही हमें ईश्वरतत्व की अनुभूति कराता है। आइये हम ईश्वर के समान प्रेम करें।

- फादर डेन्नीस तिग्गा


📚 REFLECTION

Saint John says in his letter, 'God is love and whoever is firm in love, he abides in God and God in him.' Another name of God is love, that is, God means love. That's why we should learn to love from God, God’s love is different from what the world loves. The Lord loves everyone whether he is his devotee or not, He loves everyone equally for the welfare of all whether we are saints or sinners He does not do partiality in loving; and he invites us through today's reading to love in the same way. It is difficult to love like him, but it is in this type of love we feel the divinity of God. Let us all love like God.

-Fr. Dennis Tigga

📚 मनन-चिंतन -3

अहाब और ईजेबेल ने बडी ही कू्ररता के साथ नाबोत की हत्या करवाकर उसकी दाखबारी हथिया ली। यह अपराध इसलिये भी जघन्य था क्योंकि यह राजपरिवार, नेताओं तथा प्रतिष्ठित लोगों द्वारा करवाया गया था। ईजेबेल की साजिश बिना किसी रूकावट के सफल हो गयी। इसमें सभी ने अपनी भूमिका अच्छी तरह निभायी। किसी ने इसका विरोध नहीं किया, किसी ने अपनी आवाज नहीं उठायी। सभी राजसी प्रतिशोध के परिणाम की आशंका से डरे हुये थे। नाबोत बिना किसी आहट के मर गया।

इसी के साथ लोगों के सामने सारा मामला खत्म हो गया। लेकिन ईश्वर के सामने यह मामला अभी खुला ही था। ईश्वर हस्तक्षेप करता तथा न्याय करता है। वह अपने नबी को बुलाता और बताता है कि उसे क्या करना चाहिये। ईश्वर जानता है कि अहाब ने क्या किया है। ईश्वर दाखबारी के मालिक को भी जानता है तथा यह भी जानता है कि उसकी हत्या कर उसकी सम्पत्ति हडप ली गयी है। ईश्वर नबी के माध्यम से अहाब पर दूसरे की सम्पत्ति हडपने तथा हत्या की साजिश का आरोप लगाता है।

ईश्वर की निगाहों से कोई नहीं बच सकता, यहॉ तक की राजा और रानी भी नहीं। उसके न्याय के दायरे से कोई बाहर नहीं है। नबी एलियाह सीधे जाकर अहाब को ईश्वर का निर्णय सुनाता है। न कोई सुनवायी और न ही कोई सफाई, केवल निर्णय घोषित किया जाता है। नबी एलियाह अहाब से कहता हैं, ’’मैं फिर आया हूँ क्योंकि जो काम प्रभु की दृष्टि में बुरा है, तुमने वहीं करने का निश्चय किया है।’’

इस मामले में एक चौकाने वाला मोड आता है। अचानक अहाब को अपनी मूर्खता तथा अपराधों का आभास होता है। वह पश्चताता है। वह उपवास तथा शोकित भावों से जीने लगता है। उसके पश्चाताप को देखकर ईश्वर कहता है, ’’क्या तुमने देखा है कि अहाब ने किस तरह अपने को मेरे सामने दीन बना लिया है? चूँकि उसने अपने को मेरे सामने दीन बना लिया, इसलिए मैं उसके जीवनकाल में उसके घराने पर विपत्ति नहीं ढाऊँगा। मैं उसके पुत्र के राज्यकाल में उसके घराने पर विपत्ति ढाऊँगा।’’

हमें शायद ईश्वर के इस रूख पर आश्चर्य हो क्योंकि एक अपराधी को इस प्रकार की दया दिखाना उचित जान नहीं पडता है। अहाब इस माफी के योग्य भी नहीं है। लेकिन यही मुख्य कारण है। इसी को हम दया कहते हैं, जब कोई उसके लायक नहीं हो तब उसे दया या माफी दी जाये। ईश्वर उस पर दया दिखाता है। जब ईश्वर की दया दूसरों पर होती है तो हम उतने हर्षित नहीं होते हैं लेकिन जब यह हमें मिलती है तो हम खुशी मनाते है। किन्तु हमें ईश्वर की दया जिस पर भी हो उसके लिये ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिये।

-फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल


📚 REFLECTION

The Ahab and Jezebel’s saga continues. The scheming and killing of the Naboth was cruel especially when it came from the people of the highest ranks, the royals, the leaders and the nobles. The plot of Jezebel went on like a cloak work. Everyone played his role perfectly well. No one took a stand, there was no second opinion. They feared the consequence. Naboth was killed without a whimper.

The case was closed, in the eyes of all these people. But not so with God.The case has just begun.God intervenes and He judges. He comes to His prophet and instructs him what to do. God knows where Ahab has gone to, He knows about the vineyard. He knows the name of its owner. He knows that his property has been seized and he has been murdered. God charges Ahab for the double crime – seizing someone’s property and conspiring to murder.

No one is exempt from the scrutiny of God and the judgement of God, not even the King or the Queen. No one can get away with it. Prophet Elijahstraight away pronounces God’s judgement. There was no discussion with Ahab. Just declaration. No one, whatever his status or stature, can escape God’s jurisdiction. Wherever he is, God will find him. “I have found you”, Elijah said (21:20)

In this trial there is a surprising twist. Suddenly Ahab realises his folly and crime. He repented. He fasted and went around meekly a sign of remorse. Seeing this God relents, “Because he has humbled himself, I will not bring this disaster in his day, but I will bring it on his house in the days of his son.”

We may not appreciate God’s move. This is not something we prefer. It’s not fair, he doesn’t deserve it. It is precisely so. That’s why we call it MERCY. God grants him mercy. It’s the mercy of God.Usually when it comes to others getting it, we are unhappy. But if we are the ones getting it, that’s a different story. Let us live in the fear of God and enjoy his mercy.

-Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal