जून 24, 2024, सोमवार

सन्त योहन बप्तिस्ता का जन्म दिवस

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📒 पहला पाठ : इसायाह का ग्रन्थ 49:1-6

1) दूरवर्ती द्वीप मेरी बात सुन¨। दूर के राष्ट्रों! कान लगा कर सुनो। प्रभु ने मुझे जन्म से पहले ही बुलाया, मैं माता के गर्भ में ही था, जब उसने मेरा नाम लिया।

2) उसने मेरी वाणी को अपनी तलवार बना दिया और मुझे अपने हाथ की छाया में छिपा लिया। उसने मुझे एक नुकीला तीर बना दिया और मुझे अपने तरकश में रख लिया

3) उसने मुझे से कहा, “तुम मेरे सेवक हो, मैं तुम में अपनी महिमा प्रकट करूँगा“।

4) मैं कहता था, “मैंने बेकार ही काम किया है, मैंने व्यर्थ ही अपनी शक्ति खर्च की है। प्रभु ही मेरा न्याय करेगा, मेरा पुरस्कार उसी के हाथ में है।“

5) परन्तु जिसने मुझे माता के गर्भ से ही अपना सेवक बना लिया है, जिससे मैं याकूब को उसके पास ले चलँू और उसके लिए इस्राएल को इकट्ठा कर लूँ, वही प्रभु बोला; उसने मेरा सम्मान किया, मेरा ईश्वर मेरा बल है।

6) उसने कहाः “याकूब के वंशों का उद्धार करने तथा इस्राएल के बचे हुए लोगों को वापस ले आने के लिए ही तुम मेरे सेवक नहीं बने। मैं तुम्हें राष्ट्रों की ज्योति बना दूँगा, जिससे मेरा मुक्ति-विधान पृथ्वी के सीमान्तों तक फैल जाये।“

📕 दूसरा पाठ: प्रेरित-चरित 13:22-26

22) इसके बाद ईश्वर ने दाऊद को उनका राजा बनाया और उनके विषय में यह साक्ष्य दिया- मुझे अपने मन के अनुकूल एक मनुष्य, येस्से का पुत्र दाऊद मिल गया है। वह मेरी सभी इच्छाएँ पूरी करेगा।

23) ईश्वर ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उन्हीं दाऊद के वंश में इस्राएल के लिए एक मुक्तिदाता अर्थात् ईसा को उत्पन्न किया हैं।

24) उनके आगमन से पहले अग्रदूत योहन ने इस्राएल की सारी प्रजा को पश्चाताप के बपतिस्मा का उपदेश दिया था।

25) अपना जीवन-कार्य पूरा करते समय योहन ने कहा, ’तुम लोग मुझे जो समझते हो, मैं वह नहीं हूँ। किंतु देखो, मेरे बाद वह आने वाले हैं, जिनके चरणों के जूते खोलने योग्य भी मैं नहीं हूँ।’

26) ’’भाइयों! इब्राहीम के वंशजों और यहाँ उपस्थित ईश्वर के भक्तों! मुक्ति का यह संदेश हम सबों के पास भेजा गया है।

📙 सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 1:57-66,80

57) एलीज़बेथ के प्रसव का समय पूरा हो गया और उसने एक पुत्र को जन्म दिया।

58) उसके पड़ोसियों और सम्बन्धियों ने सुना कि प्रभु ने उस पर इतनी बड़ी दया की है और उन्होंने उसके साथ आनन्द मनाया।

59) आठवें दिन वे बच्चे का ख़तना करने आये। वे उसका नाम उसके पिता के नाम पर ज़करियस रखना चाहते थे,

60) परन्तु उसकी माँ ने कहा, "जी नहीं, इसका नाम योहन रखा जायेगा।"

61) उन्होंने उस से कहा, "तुम्हारे कुटुम्ब में यह नाम तो किसी का भी नहीं है"।

62) तब उन्होंने उसके पिता से इशारे से पूछा कि वह उसका नाम क्या रखना चाहता है।

63) उसने पाटी मँगा कर लिखा, "इसका नाम योहन है"। सब अचम्भे में पड़ गये।

64) उसी क्षण ज़करियस के मुख और जीभ के बन्धन खुल गये और वह ईश्वर की स्तुति करते हुए बोलने लगा।

65) सभी पड़ोसी विस्मित हो गये और यहूदिया के पहाड़ी प्रदेश में ये सब बातें चारों ओर फैल गयीं।

66) सभी सुनने वालों ने उन पर मन-ही-मन विचार कर कहा, "पता नहीं, यह बालक क्या होगा?" वास्तव में बालक पर प्रभु का अनुग्रह बना रहा।

80) बालक बढ़ता गया और उसकी आत्मिक शक्ति विकसित होती गयी। वह इस्राएल के सामने प्रकट होने के दिन तक निर्जन प्रदेश में रहा।

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार भाग में योहन बपतिस्ता के जन्म का वर्णन है। जकरियस के लिए यह एक बड़ी संघर्ष की बात रही होगी कि धूप चढ़ाते समय मंदिर में उन्हें जो अनुभव हुआ था, उसके बारे में किसी को न बोल पायें। यह उनके लिए एक दुर्लभ अवसर था जो उन्हें चिट्ठी से मिला था। वहाँ उन्हें एक स्वर्गदूत दिखाई दिया और उन्हें उनकी वृद्धावस्था में उनकी पत्नी एलिजाबेथ से जन्म लेने वाले बच्चे के बारे में सूचित किया, जो एलिय्याह की शक्ति और आत्मा के साथ मसीह का अग्रदूत बनकर आयेगा। जकरियस अपने हृदय में एक महान दिव्य रहस्य को संजोए हुए थे जिसे साझा किया जाना था। जकरियस की मौनता को अविश्वास के लिए दंड के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि यह उस रहस्य को गहराई से समझने का एक अवसर था जो उन्हें प्रकट किया गया था। ईश्वर हमारे पास अविश्वसनीय तरीकों से आ सकते हैं, लेकिन विश्वास हमारे हृदय में रहस्य को संजोते हुए विकसित होता है। आइए हम जकरियस और येसु की माँ मरियम की तरह, अपने हृदय में प्रेम के साथ हमारे विश्वास के रहस्यों पर चिंतन करना सीखें।

- फादर फ्रांसिस स्करिया (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Today’s Gospel passage describes the birth of John the Baptist. It must have been a great struggle for Zachariah not to speak about the experience he had in the temple at the time of offering the incense. It was one of the rarest chances he got by lot. There he had an angel appearing to him and informing him about the child to be born in his old age from his wife Elizabeth, who with the power and spirit of Elijah would go before the Messiah. Zachariah was holding a great Divine Mystery in his heart waiting to be shared. The muteness of Zachariah need not be perceived as a punishment for disbelief, but it was a chance for delving deep into the mystery that had been revealed to him. God can come to us in unbelievable ways, but faith develops as we go on treasuring the mystery in our heart. Let us learn to ponder over the mysteries of our faith with love in our hearts, like Zachariah and like Mary, the Mother of Jesus.

-Fr. Francis Scaria (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन -2

कलिसिया अपने पूजन-पध्दति-वर्ष के दौरान तीन जन्मदिनों को हर्षोल्लास के साथ मनाती है। वे हैं – प्रभु येसु, माता मरियम और संत योहन बपतिस्ता के। ये तीनों अपने जन्म के समय मूल पाप से मुक्त थे। ईश्वर होने के नाते येसु में मूल पाप नहीं था। कलीसिया के विश्वास के अनुसार ईश्वर की योजना के तहत माता मरियम को पापरहित जन्म लेने की विशेष कृपा दी गयी थी। स्वर्गदूत ने संत योहन बपतिस्ता के बारे में ज़कर्याह को बताया कि, "वह अपनी माता के गर्भ में ही पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो जायेगा"। जब मरियम ने एलिज़बेथ का अभिवादन किया, तो एलिज़बेथ के गर्भ में बच्चा "आनन्द के मारे उछल पड़ा" (लूकस 1:44)। संत योहन येसु और मरियम की उपस्थिति को पहचानने लगते हैं। ऐसा माना जाता है कि संत योहन बपतिस्ता अपने जन्म के समय मूल पाप से मुक्त थे। उसके जन्म के असाधारण परिवेश को देखकर लोग पूछने लगे, “पता नहीं, यह बालक क्या होगा?” हर बच्चा इस दुनिया में एक मिशन लेकर आता है। संत योहन अपने मिशन के बारे में बहुत स्पष्ट थे "निर्जन प्रदेश में पुकारने वाले की आवाज़" (योहन 1:23)। उन्होंने जिस सत्य का साक्ष्य दिया, उसके लिए अपने प्राणों की आहुति देने तक भी वे तैयार हो गये। हम भी संत योहन बपतिस्ता से अपनी बुलाहट और मिशन के प्रति ईमानदार बने रहना सीखें।

- फ़ादर फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

आज के सुसमाचार भाग में योहन बपतिस्ता के जन्म का वर्णन है। जकरियस के लिए यह एक बड़ी संघर्ष की बात रही होगी कि धूप चढ़ाते समय मंदिर में उन्हें जो अनुभव हुआ, उसके बारे में न बोल पायें। यह उनके लिए एक दुर्लभ अवसर था जो उन्हें चिट्ठी से मिला था। वहाँ उन्हें एक स्वर्गदूत दिखाई दिया और उन्हें उनकी वृद्धावस्था में उनकी पत्नी एलिजाबेथ से जन्म लेने वाले बच्चे के बारे में सूचित किया, जो एलिय्याह की शक्ति और आत्मा के साथ मसीह का अग्रदूत बनकर आयेगा। जकरियस अपने हृदय में एक महान दिव्य रहस्य को संजोए हुए थे जिसे साझा किया जाना था। जकरियस की मौनता को अविश्वास के लिए दंड के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि यह उस रहस्य को गहराई से समझने का एक अवसर था जो उन्हें प्रकट किया गया था। ईश्वर हमारे पास अविश्वसनीय तरीकों से आ सकते हैं, लेकिन विश्वास हमारे हृदय में रहस्य को संजोते हुए विकसित होता है। आइए हम जकरियस और येसु की माँ मरियम की तरह, अपने हृदय में प्रेम के साथ हमारे विश्वास के रहस्यों पर चिंतन करना सीखें।

-Fr. Francis Scaria

📚 मनन-चिंतन-3

योहन बपतिस्ता का जीवन हमें सिखाता है कि कैसे हमें अपने उस लक्ष्य के प्रति जिसके लिये ईश्वर ने हमें बनाया है, एकाग्रचित होकर कार्य करते रहना चाहिये। योहन का जन्म एक विशेष उददेश्य के लिये हुआ था। उन्हें प्रभु का मार्ग तैयार करना था। योहन बपतिस्ता अपने सार्वजनिक की शुरूआत से ही प्रसिद्ध हो गये, उनके बहुत से शिष्य बन गये थे। लगभग सभी लोग उनके पास बपतिस्मा के लिये आते हैं। हेरोद स्वयं उन्हें सुनना पसंद करता था।

येसु के बपतिस्मा तथा सार्वजनिक जीवन में आने के बाद लोकप्रियता के स्तंभ बदल गये। सारी भीड़ येसु के पीछे जाने लगी और योहन के पास तुलनात्मक रूप से कम ही लोग जाते थे। योहन के शिष्य इस बदलाव को देखकर दुखी थे वे शिकायती लहजे में कहते हैं, ’’गुरुवर! देखिए, जो यर्दन के उस पार आपके साथ थे और जिनके विषय में आपने साक्ष्य दिया, वह बपतिस्मा देते हैं और सब लोग उनके पास जाते हैं।’’ (योहन 3:26) लेकिन योहन इस बदले परिदृश्य से बहुत अविचलित थे। वे ईश्वरीय योजना में उनकी भूमिका को भली-भांति जानते थे। उन्होंने अपने शिष्यों से मात्र इतना कहा, ’’मनुष्य को वही प्राप्त हो सकता हे, जो उसे स्वर्ग की ओर से दिया जाये।तुम लोग स्वयं साक्षी हो कि मैंने यह कहा, ‘मैं मसीह नहीं हूँ’। मैं तो उनका अग्रदूत हूँ।’’ (योहन 3:27-28)उन्होंने पूर्व में ही स्वयं येसु से कहा था कि, ’’मुझे तो आप से बपतिस्मा लेने की जरूरत है और आप मेरे पास आते हैं?’’ (मत्ती 3:14)उन्होंने कभी भी प्रभु से प्रतिस्पर्धा नहीं करनी चाही और लोकप्रियता के जाल में नहीं फंसे।

जब कभी भी उनसे पूछा गया कि क्या वे मसीहा है उन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी स्थिति प्रकट की।इस प्रकार हम देखते है कि योहन बपतिस्ता के मिशन में कोई गलतफहमी या संदेह नहीं था। कोई मानवीय विचार या महत्वकांक्षा उन्हें उनके, ’प्रभु का मार्ग सीधा करवाने, प्रभु का अग्रदूत बनने’ के लक्ष्य में बाधा नहीं बन सकी।

विशाल संस्थायें, महान संस्कृतियां, पहुॅचे हुये लोग अपने लक्ष्य से भटक कर, गलत महत्वकांक्षाओं के फेर विनाश की ओर गये है। अंह और अंहकार ने कई परिवारों एवं रिश्तों को नष्ट कर दिया। संत योहन बपतिस्ता का जीवन हमें सिखाता है कि किस प्रकार हमें अपनी भूमिका का पता होना चाहिये तथा केवल उसे ही पूरी मेहनत और एकाग्रता के साथ निभाना चाहिये।

-फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल


📚 REFLECTION

Life of John the Baptist teaches us profusely how to be focused for the purpose we have been created. John the Baptist was born with a specific purpose. He was to prepare the way of the Lord. John soon shot to fame with immense followers. Practically all the people were going to him for the baptism. Harrod himself was one of his admirers. He liked to listen to him.

However, with the entry of Jesus into his public ministry the poles of popularity shifted. Jesus received baptism from John and began his public ministry. soon Jesus has pulled great crowds to himself. People were all around him. Some of John the Baptist disciples perhaps did not appreciate the shift of gear. Now all were going to him, few were coming to John. So they complained, ““Rabbi, he who was with you across the Jordan, to whom you bore witness—look, he is baptizing, and all are going to him.” (John 3:26) John was never disturbed by this scenario. He was perfectly at home with these developments. He knew his role in the scheme of things. “No one can receive anything except what has been given from heaven.You yourselves are my witnesses that I said, ‘I am not the Messiah,but I have been sent ahead of him.” (John 3:27-28) He himself had offered to be second to Jesus at the baptism, “I am the one who needs to be baptized by you,” he said, “so why are you coming to me?” (Matthew 3:14)

He never tried to steal the limelight from the Lord. Whenever he confronted with a question if he was the messiah he clearly and firmly stated his position.Therefore, there was no confusion and misgiving in John the Baptist’s mission. No human thoughts or desire deterred him from fulfilling the role as the front runner of the Messiah.

How many great organizations have fallen prey to the individualistic mentality? Egos have destroyed relationships and the families. We need to learn from John the baptism, to learn the role one has to play in the family, organisation or relationships and pursue it with passion.

-Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal

📚 मनन-चिंतन -4

आज हम सब एक कलीसिया के रूप में संत योहन बपतिस्ता के जन्म का पर्व दिवस मना रहंे हैं। काथलिक कलीसिया में हम केवल तीन व्यक्तियों का ही जन्मोंत्सव मनाते है - प्रभु येसु ख्रीस्त का, मॉं मरियम का और संत योहन बपतिस्ता का। संत योहन के विषय में संत मत्ती का सुसमाचार 11:11 में प्रभु येसु ने कहा है, ‘‘मनुष्यों में योहन बपतिस्ता से बड़ा कोई पैदा नहीं हुआ।’’ भले ही योहन बपतिस्ता का जीवन इस संसार में बहुत ही साधारण से रूप में रहा हो परंतु वे ईष्वर की दृष्टि में महान थे। इस हेतु काथलिक कलीसिया उनके जन्म दिवस को पर्व के रूप में मनाती हैं। मुक्ति इतिहास में संत योहन की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण बतायी जाती है क्योंकि इन्होंने ही सार्वजनिक रूप से मसीहा को देख इंगित किया था। हम क्या कार्य करते है, साधारण या बड़ा कार्य ये महत्वपूर्ण नहीं है परंतु प्रभु की दृष्टि में प्रभु द्वारा दी गयी भूमिका को उनके ईच्छा अनुसार निभाना भले ही वह छोटी सी भूमिका क्यों न हो वह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।

- फादर डेन्नीस तिग्गा


📚 REFLECTION

Today as a church we are all celebrating the feast day of the birth of Saint John the Baptist. In the Catholic Church, we celebrate only three people birthdays- that of the Lord Jesus Christ, of the Mother Mary and of Saint John the Baptist. The Lord Jesus said about Saint John the Baptist in the Gospel of Saint Matthew 11:11, "No one has been born greater than John the Baptist." John the Baptist may have lived a very simple life in this world, but he was great in the eyes of God. For this reason the Catholic Church celebrates his birthday as a feast. The role of Saint John in salvation history is said to be very important one because it was he who publicly pointed that who the Messiah is. Whatever work we do either simple or big one, it is not the important thing, but in the eyes of GOD, performing the role given by GOD according to His Will, even if it is a small role, that is the most important thing.

-Fr. Dennis Tigga