1) इस्राएलियों मैं जिन नियमों तथा आदेशों की शिक्षा तुम लोगों को आज दे रहा हूँ, उन पर ध्यान दो और उनका पालन करो, जिससे तुम जीवित रह सको और उस देश में प्रवेश कर उसे अपने अधिकार में कर सको, जिसे प्रभु, तुम्हारे पूर्वजों का ईश्वर तुम लोगों को देने वाला है।
2) मैं जो आदेश तुम लोगों को दे रहा हूँ, तुम उन में न तो कुछ बढ़ाओ और न कुछ घटाओ। तुम अपने प्रभु-ईश्वर के आदेशों का पालन वैसे ही करो, जैसे मैं तुम लोगों को देता हूँ।
6ब) जब वे उन सब आदेशों की चर्चा सुनेंगे, तो बोल उठेंगे ’उस महान् राष्ट्र के समान समझदार तथा बुद्धिमान और कोई राष्ट्र नहीं है’।
7) क्योंकि ऐसा महान राष्ट्र कहाँ है, जिसके देवता उसके इतने निकट हैं, जितना हमारा प्रभु-ईश्वर हमारे निकट तब होता है जब-जब हम उसकी दुहाई देते हैं?
8) और ऐसा महान् राष्ट्र कहाँ है, जिसके नियम और रीतियाँ इतनी न्यायपूर्ण है, जितनी यह सम्पूर्ण संहिता, जिसे मैं आज तुम लोगों को दे रहा हूँ?
17) सभी उत्तम दान और सभी पूर्ण वरदान ऊपर के हैं और नक्षत्रों के उस सृष्टिकर्ता के यहाँ से उतरते हैं, जिसमें न तो केाई परिवर्तन है और न परिक्रमा के कारण कोई अन्धकार।
18) उसने अपनी ही इच्छा से सत्य की शिक्षा द्वारा हम को जीवन प्रदान किया, जिससे हम एक प्रकार से उसकी सृष्टि के प्रथम फल बनें।
21ब) इसलिए आप लोग हर प्रकार की मलिनता और बुराई को दूर कर नम्रतापूर्वक ईश्वर का वह वचन ग्रहण करें, जो आप में रोपा गया है और आपकी आत्माओं का उद्धार करने में समर्थ है।
22) आप लोग अपने को धोखा नहीं दें। वचन के श्रोता ही नहीं, बल्कि उसके पालनकर्ता भी बनें।
27) हमारे ईश्वर और पिता की दृष्टि में शुद्ध और निर्मल धर्माचरण यह है- विपत्ति में पड़े हुए अनाथों और विधवाओं की सहायता करना और अपने को संसार के दूषण से बचाये रखना।
1 फ़रीसी और येरुसालेम से आये हुए कई शास्त्री ईसा के पास इकट्ठे हो गये।
2) वे यह देख रहे थे कि उनके शिष्य अशुद्ध यानी बिना धोये हाथों से रोटी खा रहे हैं।
3) पुरखों की परम्परा के अनुसार फ़रीसी और सभी यहूदी बिना हाथ धोये भोजन नहीं करते।
4) बाज़ार से लौट कर वे अपने ऊपर पानी छिड़के बिना भोजन नहीं करते और अन्य बहुत-से परम्परागत रिवाज़ों का पालन करते हैं- जैसे प्यालों, सुराहियों और काँसे के बरतनों का शुद्धीकरण।
5) इसलिए फ़रीसियों और शास्त्रियों ने ईसा से पूछा, "आपके शिष्य पुरखों की परम्परा के अनुसार क्यों नहीं चलते? वे क्यों अशुद्ध हाथों से रोटी खाते हैं?
6) ईसा ने उत्तर दिया, "इसायस ने तुम ढोंगियों के विषय में ठीक ही भविष्यवाणी की है। जैसा कि लिखा है- ये लोग मुख से मेरा आदर करते हैं, परन्तु इनका हृदय मुझ से दूर है।
7) ये व्यर्थ ही मेरी पूजा करते हैं; और ये जो शिक्षा देते हैं, वे हैं मनुष्यों के बनाये हुए नियम मात्र।
8) तुम लोग मनुष्यों की चलायी हुई परम्परा बनाये रखने के लिए ईश्वर की आज्ञा टालते हो।"
14) ईसा ने बाद में लोगों को फिर अपने पास बुलाया और कहा, "तुम लोग, सब-के-सब, मेरी बात सुनो और समझो।
15) ऐसा कुछ भी नहीं है, जो बाहर से मनुष्य में प्रवेश कर उसे अशुद्ध कर सके; बल्कि जो मनुष्य में से निकलता है, वही उसे अशुद्ध करता है।
21) क्योंकि बुरे विचार भीतर से, अर्थात् मनुष्य के मन से निकलते हैं। व्यभिचार, चोरी, हत्या,
22) परगमन, लोभ, विद्वेष, छल-कपट, लम्पटता, ईर्ष्या, झूठी निन्दा, अहंकार और मूर्खता-
23) ये सब बुराइयाँ भीतर से निकलती है और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं।
जब हम अपने मोबाईल फोन में कोई एप इंस्टॉल करते हैं या कोई सॉफ्टवेयर इंस्टॉल करते हैं तो उसमें एक पेज आता है नियम व शर्तों का जिसे हमें स्वीकार करना होता है। इसका मतलब यह है कि अगर हम किसी कंपनी का सॉफ्टवेयर उपयोग में ले रहे हैं तो हमें उसकी नियम व शर्तें माननी होंगी और उनका पालन करना होगा। जब हम ईश्वर के साथ जुडते हैं तो उसकी भी कुछ नियम व शर्तें हैं जिनका हमें पालन करना है। ईश्वर अपनी तरफ से कभी भी इन नियम व शर्तों को नहीं तोड़ते लेकिन हम अपनी लापरवाही व गैर जिम्मेदाराना व्यवहार से ईश्वर के साथ अपने सम्बन्ध की नियम व शर्तों को तोड़ देते हैं। ये नियम व शर्ते हैं प्रभु की आज्ञायें। हमें क्यों ऐसा लगता है कि हम ईश्वर की आज्ञाओं का पालन किए बिना भी ईश्वर के साथ सम्बन्ध बनाए रख सकते हैं?
अपने स्वर्गीय पिता की आज्ञा पालन करना ही प्रभु येसु के पिता से सम्बन्ध का आधार था। यहाँ तक कि प्रभु येसु अपने पिता की आज्ञा पालन करने को ही अपना भोजन समझते थे (देखें योहन 4:34). इसे हम इस तरह से भी देख सकते हैं कि जिस तरह से हमारे जीने के लिए भोजन जरूरी है उसी तरह से ईश्वर से हमारे सम्बन्ध को बनाए रखने के लिए उनकी आज्ञाओं का पालन करना जरूरी है। अगर हमें प्रभु येसु से भी अपना सम्बन्ध बनाए रखना है तो भी हमें अपने स्वर्गीय पिता की बात सुननी है और उसका पालन करना है। प्रभु येसु हमसे वही सवाल करते हैं - कौन है मेरी माता, कौन हैं मेरे भाई-बहन? क्या हम पिता ईश्वर की प्रिय संतान बनने के लिए तैयार हैं? प्रभु येसु के सगे संबंधी बनने के लिए तैयार हैं?
✍फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)When we install an app or software on our mobile phone, a page appears with terms and conditions that we have to accept. This means that if we are using software from a company, we must agree to and follow its terms and conditions. Similarly, when we connect with God, there are terms and conditions that we must adhere to. God never breaks these terms and conditions, but through our negligence and irresponsible behavior, we can break the terms of our relationship with God. These terms and conditions are the Lord's commandments. Why do we think that we can maintain a relationship with God without following His commandments?
Obeying our heavenly Father’s commands was the basis of Jesus’ relationship with His Father. In fact, Jesus considered obeying His Father’s commands to be His food (see John 4:34). Just as food is essential for our living, following God's commandments is essential for maintaining our relationship with Him. If we want to maintain our relationship with Jesus, we must listen to and follow our heavenly Father’s commandments. Jesus asks us the same question: Who is my mother, and who are my brothers and sisters? Are we ready to become the beloved children of God the Father? Are we prepared to be true relatives of Jesus?
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)
सदा से अपना अस्तित्व रखने वाले यहोवा ईश्वर ने अपनी प्रज्ञा व अपने विधान को इस्राएली की अपनी प्रजा को दिया और इस प्रकार उसे संसार में एक अलग पहचान दी। ईश्वर इस्राएलियों को उसके अपने लोग होने की पहचान देकर अन्य लोगों को उनसे सिखने के लिए उन्हें तैयार करते हैं। वे चाहते हैं कि दुनियां में उनकी पहचान ईश्वर के विधान और वचनों पर चलने वाले लोगों के रूप में हो। पहले पाठ में वे उनसे कहते हैं - "इस्राएलियों मैं जिन नियमों तथा आदेशों की शिक्षा तुम लोगों को आज दे रहा हूँ, उन पर ध्यान दो और उनका पालन करो" और दूसरे पाठ में याकूब अपने पत्र में अपनी कलीसिया से कहते है - वचन के श्रोता ही नहीं, बल्कि उसके पालनकर्ता भी बनें।
वचन सुनना एक बात है और उसका पालन करना दूसरी बात। सिर्फ सुनने से काम नहीं चलता। वचन को सुनना शायद आसान काम है पर उस पर चलना एक चुनौती है। सुसमाचार में हम पढ़ते है कि फरीसी लोग बाहरी कर्म कांडों का बारीकी से पालन करते थे पर ईश्वर के वचन पर चलते हुए अंदर से आत्मिक सफाई करना नहीं चाहते थे। येसु आज हमें उनके वचनों को सुनकर उन्हें अपनी आत्मा मेंउतारने और वचनों द्वारा हमारे दिल व आत्मा को शुद्ध करने के लिए आह्वान करते है ताकि उनके वचनों से भरकर हम हमारे जीवन से हमेशा पवित्र चीज़ें बहार निकालें।
✍फादर प्रीतम वसुनिया - इन्दौर धर्मप्रांतEternally existing God, Yahweh, gave his wisdom and his law to the people of Israel and thus gave them a different identity in the world. making Israelite his own people God makes them the role models for the other nations. He wants that they should be recognized in the world as people who follow the laws and words of their God. In the first reading He tells them - "O Israel, listen to the statutes and the rules that I am teaching you, and do them" and in the second lesson, James tells his church in an - "But be doers of the word, and not hearers only, deceiving yourselves." It is one thing to hear the word and it is another to obey it. Just listening doesn't work. Listening to the Word may be an easy task, but it is a challenge to follow it.
In the Gospels, we read that the pharisees closely followed the outer rituals, but did not want to do spiritual cleansing from within, following the word of God. Jesus calls us today to listen to His words, bring Him into our souls and purify our hearts and souls through His words, so that by being filled with His words, we may always bring forth the holy things from our lives.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya
आज के पाठों का सन्देश है - मनुष्य की भलाई के लिये ईश्वर द्वारा प्रदत्त नियम। पहले पाठ में पिता ईश्वर नबी मूसा के द्वारा लोगों से कहते हैं कि प्रतिज्ञात देश में भली-भाँति प्रवेश करने एवं जीने के लिये उन्हें ईश्वर के द्वारा दिये हुए नियमों का पालन करना चाहिए है। उन नियमों का पालन करने से ईश्वर उनके करीब रहेगा। दूसरे पाठ में सन्त याकूब हमें बताते हैं कि विनम्रता से ईश्वर के वचन को ग्रहण करें व पालन करें जो आपकी आत्माओं को मुक्ति प्रदान करेगा। और सुसमाचार में प्रभु येसु फरीसियों और शास्त्रियों की निन्दा करते हैं जो ईश्वर के नियमों को भुलाकर स्वयं के द्वारा बनाये हुए नियमों से लोगों को गुमराह करते हैं।
ईश्वर ने पंचग्रन्थ (तौराह) में इस्रायलियों को कई नियम दिये हैं जिनमें से दस आज्ञाओं से हम भली-भाँति परिचित हैं। यहूदियों के पंचग्रन्थ पर आधारित ये सारे नियम संख्या में कुल 613 हैं जिनमें से 365 नियम निषेधाज्ञाओं के रूप में हैं और अन्य सकारात्मक आज्ञायें 248 हैं। निषेधाज्ञाओं में ऐसे नियम व आज्ञायें हैं जिनमें कुछ चीजें/कार्य करने से मना किया गया है। सकारात्मक आज्ञायें या नियम वे हैं जिनका पालन करना है और उन कार्यों को करना ज़रूरी है। फरीसियों और शास्त्रियों के अनुसार ये सारे नियम ईश्वर द्वारा प्रदत्त हैं और उनकी परम्परा उन्हें सिखाती है कि सभी को उनका पूर्ण रूप से पालन करना है और फरीसियों एवं शास्त्रियों को विशेष रूप से यह देखना है कि लोग उनका पालन भली-भाँति कर रहे हैं कि नहीं। यही कारण है कि आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि उन्हें यह बात अखरती है कि प्रभु येसु के शिष्य बिना हाथ धोये भोजन कर रहे थे।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और बिना नियमों के हम एक सभ्य समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते। हमारे चारों ओर हम नियमों से घिरे रहते हैं। स्कूली दिनों में स्कूल के नियम, बड़े होकर समाज के नियम, सरकार के नियम, धर्म के नियम, संस्कृति के नियम इत्यादि। अगर कोई व्यक्ति इनमें से किसी प्रकार के नियमों का पालन नहीं करता है तो वह समूह या समाज में रहने के योग्य नहीं है। इन सारे नियमों में सभी नियमों का कुछ न कुछ उद्देश्य है। अगर कोई नियम ऐसा है जिसका उद्देश्य लोगों को नहीं मालूम तो ऐसे नियमों का पालन करना व्यर्थ है। जिस नियम का उद्देश्य जिस क्षेत्र से है उस नियम का महत्व उसी क्षेत्र में है। उदाहरण के लिये स्कूल के नियमों की सार्थकता तभी है जब उनका पालन स्कूल के सन्दर्भ में किया जाये। अगर हम स्कूल के नियमों को संविधान के नियमों के सन्दर्भ में देखें अथवा धार्मिक क्षेत्र में लागू करें तो इसमें कोई सार्थकता नहीं रहेगी।
आज का पहला पाठ हमें समझाता है कि ईश्वर ने जो नियम हमें दिये हैं उनका उद्देश्य है कि हम अपना जीवन सफलतापूर्वक जियें और हम ईश्वर के और करीब आयें इतने करीब कि स्वयं गर्व हो और कहें ’’...ऐसा महान राष्ट्र कहाँ है, जिसके देवता उसके इतने निकट हैं, जितना हमारा प्रभु ईश्वर हमारे निकट है...’’ (विधि विवरण 4:7)। अतः ईश्वर के नियम हमें ईश्वर के करीब लाते हैं। और इसके विरूद्ध हम सोचें कि जो नियम हमें ईश्वर के करीब ना लायें ऐसे नियमों का पालन करने में क्या फायदा? प्रभु येसु को फरीसियों और शास्त्रियों से इसी बात पर आपत्ति है कि वे ईश्वर द्वारा दिये हुए नियमों का वास्तविक उद्देश्य भुलाकर स्वयं के बनाये नियमों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं (देखें मारकुस 7:7-8)। उन्होंने बहुत सारे ऐसे नियम बनाये थे जिनका वास्तविक उद्देश्य ईश्वर के उद्देश्य से कोसों दूर था।
दूसरे शब्दों में, हम समझ सकते हैं कि नियम हमें ईश्वर के पास आने के योग्य बनाने में सहायक होने चाहिये। हम ईश्वर के पास आने के तभी योग्य होंगे जब हमारा हृदय पवित्र होगा (स्त्रोत्र ग्रन्थ 24:3-4अ)। जो हृदय के निर्मल हैं वे ही प्रभु के दर्शन कर पायेंगे (मत्ती 5:8)। प्रभु येसु भी यही चाहते हैं कि बाहरी पवित्रता से अधिक हमारे लिये आन्तरिक पवित्रता आवश्यक है (मारकुस 7:15) बाहर से अन्दर जाने वाली चीजें हमें अशुद्ध नहीं करती बल्कि हमारे मन के भाव, विचार आदि हमें अपवित्र बनाते हैं जिसके कारण हम ईश्वर से दूर हो जाते हैं(मारकुस 7:6ब)। आईये हम ईश्वर से कृपा माँगें कि हमारा एकमात्र उद्देश्य अपने आप को ईश्वर के योग्य बनाने का हो।
✍फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)