10) ईश्वर ने अपने आत्मा द्वारा हम पर वही प्रकट किया है, क्योंकि आत्मा सब कुछ की, ईश्वर के रहस्य की भी, थाह लेता है।
11) मनुष्य के निजी आत्मा के अतिरिक्त कौन किसी का अन्तरतम जानता है? इसी तरह ईश्वर के आत्मा के अतिरिक्त कोई ईश्वर का अन्तरतम नहीं जानता।
12) हमें संसार का नहीं, बल्कि ईश्वर का आत्मा मिला है, जिससे हम ईश्वर के वरदान पहचान सकें।
13) हम उन वरदानों की व्याख्या करते समय मानवीय प्रज्ञा के शब्दों का नहीं, बल्कि आत्मा द्वारा प्रदत्त शब्दों का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार हम आध्यात्मिक शब्दावली में आध्यात्मिक तथ्यों की विवेचना करते है।।
14) प्राकृत मनुष्य ईश्वर के आत्मा की शिक्षा स्वीकार नहीं करता। वह उसे मूर्खता मानता और उसे समझने में असमर्थ है, क्योंकि आत्मा की सहायता से ही उस शिक्षा की परख हो सकती है।
15) आध्यात्मिक मनुष्य सब बातों की परख करता है, किन्तु कोई भी उस मनुष्य की परख नहीं करता है, किन्तु कोई भी उस मनुष्य की परख नहीं कर पाता;
16) क्योंकि (लिखा है) - प्रभु का मन कौन जानता है? कौन उसे शिक्षा दे सकता है? हम में तो मसीह का मनोभाव विद्यमान है।
31) वे गलीलिया के कफ़रनाहूम नगर आये और विश्राम के दिन लोगों को शिक्षा दिया करते थे।
32) लोग उनकी शिक्षा सुन कर अचम्भे में पड़ जाते थे, क्योंकि वे अधिकार के साथ बोलते थे।
33) सभागृह में एक मनुष्य था, जो अशुद्ध आत्मा के वश में था। वह ऊँचे स्वर से चिल्ला उठा,
34) "ईसा नाज़री! हम से आप को क्या? क्या आप हमारा सर्वनाश करने आये हैं? मैं जानता हूँ कि आप कौन हैं-ईश्वर के भेजे हुए परमपावन पुरुष।"
35) ईसा ने यह कहते हुए उसे डाँटा, " चुप रह, इस मनुष्य से बाहर निकल जा"। अपदूत ने सब के देखते-देखते उस मनुष्य को भूमि पर पटक दिया और उसकी कोई हानि किये बिना वह उस से बाहर निकल गया।
36) सब विस्मित हो गये और आपस में यह कहते रहे, "यह क्या बात है! वे अधिकार तथा सामर्थ्य के साथ अशुद्ध आत्माओं को आदेश देते हैं और वे निकल जाते हैं।"
37) इसके बाद ईसा की चर्चा उस प्रदेश के कोने-कोने में फैल गयी।
अगर आपसे पूछा जाए कि क्या आप प्रभु येसु को जानते हैं तो शायद आपका जवाब हाँ में होगा। लेकिन अगर आपसे पूछा जाए कि क्या आपने प्रभु येसु अनुभव किया है तो इसका जवाब देने में हम झिझकेंगे। क्योंकि प्रभु येसु को जानना आसान है, क्योंकि उनके बारे में ही शायद संसार में सबसे अधिक साहित्य उपलब्ध है। लेकिन क्या प्रभु येसु के जानने भर से हमारी मुक्ति संभव है? प्रभु को शैतान भी अच्छी तरह से जानता और पहचानता है, वह प्रभु के वचन को भी जानता है और उसमें से जरूरत पड़ने पर सटीक उदाहरण भी दे सकता है। प्रभु येसु अधिकार के साथ शिक्षा देते थे। यह अधिकार तभी आता है जब हम उस शिक्षा को जी पाएंगे। जब हम प्रभु की शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारेंगे तभी हम उन्हें अनुभव कर पाएंगे, वरना प्रभु जानना पर्याप्त नहीं है।
✍फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)If you were asked whether you know Jesus, you would probably answer yes. But if you were asked whether you have experienced Jesus, you might hesitate to answer. Knowing Jesus is relatively easy, as there is perhaps more literature about Him in the world than anyone else. But is knowing Jesus alone sufficient for our salvation? Even Satan knows and recognizes Jesus well; he knows the Word of God and can even provide precise examples from it when necessary. Jesus taught with authority, and this authority comes when we live out His teachings. Only by incorporating His teachings into our lives can we truly experience Him; otherwise, simply knowing Jesus is not enough, experiencing him is important.
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)
आज के सुसमाचार में हम प्रभु येसु के दैनिक कार्यों की एक झलक देखते हैं। उनकी सेवकाई के दो मुख्य पहलु थे (1) सुसमाचार का प्रचार, (2) चिन्ह और चमत्कार अथवा चंगाई। उनकी शिक्षा को सुनकर लोग अचम्भे में पड़ जाते थे क्योंकि वे अधिकार के साथ बोलते थे। प्रभु येसु की शिक्षा में बहुत ही गहराई और उनकी बातों में सच्चाई थी। वे गहरी से गहरी और जटिल से भी जटिल बात को बड़े सहज लहजे में समझा देते थे, इसलिए लोग, शास्त्रियों की तुलना में उनकी बातों को सुनना अधिक पसंद करते थे (मत्ती 7:29) स्वर्ग की बातों को समझाने के लिए उन्होंने धरती के उदाहरण व कहानियों का इस्तेमाल किया। वे प्रकृति व तत्कालीन परिस्थितियों से वाकिफ थे। इसलिए उनकी शिक्षा सहज पर प्रभावशाली थी।
उनकी शिक्षा इसलिए भी प्रभावशाली थी की जो वे सिखाते थे उसे वे करते भी थे। यदि उन्होंने प्रेम की शिक्षा दी तो उन्होंने प्रेम करके भी दिखाया; क्षमा की शिक्षा दी तो क्षमा भी किया; सेवा की शिक्षा दी तो सेवा भी की। आज के सुसमाचार में भी हम देखते है कि उन्होंने पहले तो लोगों को वचन सुनाया फिर अपने कार्यों द्वारा उसकी पुष्टि की। उन्होंने स्वर्ग राज्य की शिक्षा दी और फिर अपने ही समय में रोगियों को चंगा करके, उपदूतों को निकालकर, बंधनों से आज़ादी देकर उन्हें स्वर्ग राज्य का पूर्वाभास कराया जहाँ ईश्वर - "उनके सब आंसू पौंछ डालेगा। इसके बाद ना मृत्यु होगी, न शोक, न विलाप, और न दुःख। " (प्रकाशना 21:4)
हम प्रभु येसु के समान हमारी ज़मीनी हकीकत से वाकिफ रहें। देश दुनियां और लोगों के जीवन और उनकी परेशानियों से परिचित रहकर ही हम उनके हित में कार्य कर सकते हैं।
✍ - फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)
In today's Gospel we see a glimpse of the daily work of Lord Jesus. There were two main aspects of his ministry: 1- Preaching the Gospel, 2- Signs and miracles or healing. People were amazed to hear his teaching as he spoke with authority. There was a lot of depth in the teaching of Lord Jesus and truth in his words. . He used to explain profound and complicated things in a very simple manner, so people preferred to listen to him more than the scribes (Matthew 7:29). He used examples and stories of the earth to explain the things of heaven. He was aware of the nature and natural things and also was aware of the prevailing circumstances of the society. Therefore his teaching was simple, down to earth and effective.
His teaching was also influential because he used to do what he taught. If he taught about love, he showed love; if he taught forgiveness, then he forgives also; If he was preached about service, he did serve. Even in today's gospel, we see that he first gave the Word to them and then confirmed it through his actions. He taught the kingdom of heaven and then in his own time healed the sick and cast out demons, and restored the joy and happiness to the lives of people thus giving them the foretaste of the Kingdom of heaven where “God will wipe out all their tears. After this there will be no death, neither mourning, nor sorrow"(Revelation 21: 4).
Let us be aware of our ground reality; let us be aware of everyday happenings, like Lord Jesus did. Only by being familiar with the world and the life of the people around us, can we really work for them, for their welfare.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)