18) कोई अपने को धोखा न दे। यदि आप लोगों में कोई अपने को संसार की दृष्टि से ज्ञानी समझता हो, तो वह सचमुच ज्ञानी बनने के लिए अपने को मूर्ख बना ले;
19) क्योंकि इस संसार का ज्ञान इ्रश्वर की दृष्टि में ’मूर्खता’ है। धर्मग्रन्थ में यह लिखा है- वह ज्ञानियों को उनकी चतुराई से ही फँसाता है
20) और प्रभु जानता है कि ज्ञानियों के तर्क-वितर्क निस्सार हैं।
21) इसलिए कोई मनुष्यों पर गर्व न करे सब कुछ आपका है।
22) चाहे वह पौलुस, अपोल्लोस अथवा कैफ़स हो, संसार हो, जीवन अथवा मरण हो, भूत अथवा भविष्य हो-वह सब आपका है।
23) परन्तु आप मसीह के और मसीह ईश्वर के हैं।
1) एक दिन ईसा गेनेसरेत की झील के पास थे। लोग ईश्वर का वचन सुनने के लिए उन पर गिरे पड़ते थे।
2) उस समय उन्होंने झील के किनारे लगी दो नावों को देखा। मछुए उन पर से उतर कर जाल धो रहे थे।
3) ईसा ने सिमोन की नाव पर सवार हो कर उसे किनारे से कुछ दूर ले चलने के लिये कहा। इसके बाद वे नाव पर बैठे हुए जनता को शिक्षा देते रहे।
4) उपदेश समाप्त करने के बाद उन्होंने सिमोन से कहा, "नाव गहरे पानी में ले चलो और मछलियाँ पकड़ने के लिए अपने जाल डालो"।
5) सिमोन ने उत्तर दिया, "गुरूवर! रात भर मेहनत करने पर भी हम कुछ नहीं पकड़ सके, परन्तु आपके कहने पर मैं जाल डालूँगा"।
6) ऐसा करने पर बहुत अधिक मछलियाँ फँस गयीं और उनका जाल फटने को हो गया।
7) उन्होंने दूसरी नाव के अपने साथियों को इशारा किया कि आ कर हमारी मदद करो। वे आये और उन्होंने दोनों नावों को मछलियों से इतना भर लिया कि नावें डूबने को हो गयीं।
8) यह देख कर सिमोन ने ईसा के चरणों पर गिर कर कहा, "प्रभु! मेरे पास से चले जाइए। मैं तो पापी मनुष्य हूँ।"
9) जाल में मछलियों के फँसने के कारण वह और उसके साथी विस्मित हो गये।
10) यही दशा याकूब और योहन की भी हुई; ये जेबेदी के पुत्र और सिमोन के साझेदार थे। ईसा ने सिमोन से कहा, "डरो मत। अब से तुम मनुष्यों को पकड़ा करोगे।"
11) वे नावों को किनारे लगा कर और सब कुछ छोड़ कर ईसा के पीछे हो लिये।
क्या कभी आपने सोचा है कि जब हम ईश्वर पास वापस जाएंगे तो हमारा हिसाब-किताब किस आधार पर होगा? क्या ईश्वर हमारा नाम और शोहरत देखेंगे और स्वर्ग में स्थान प्रदान करेंगे? या ईश्वर हमारी दरिद्रता और परेशानियों को देखेंगे और हमें स्वर्ग सुख प्रदान करेंगे। जी नहीं! कलिसिया के सत्य हमें बताते हैं कि ईश्वर भले लोगों को अनंत सुख और बुरे लोगों को दंड प्रदान करेगा। अर्थात हमारी अच्छाई और बुराई के आधार पर हमारा न्याय किया जाएगा। आज माता कलिसिया कोलकाता की सन्त मदर तेरेसा का पर्व मनाती है। मदर तेरेसा ने सारी दुनिया के सामने करुणामय ईश्वर का चेहरा प्रस्तुत किया। उनकी अच्छाई के कारण ही संसार ने उन्हें सन्त और मदर की उपाधि प्रदान कर दी थी। उन्होंने हमारे देश में ख्रिस्तीय धर्म का सही अर्थ समझाया। उनके पद चिन्हों पर चलने के लिए हमें बड़ी हिम्मत और ताकत की जरूरत है।
✍फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)Have you ever wondered how our judgment will be when we return to God? Will God consider our name and fame and grant us a place in heaven? Or will God look at our poverty and troubles and grant us heavenly comfort? No! The truths of the Church tell us that God will reward the good with eternal happiness and punish the wicked. In other words, our judgment will be based on our goodness and evil or sinfulness. Today, the Church celebrates the feast of Saint Mother Teresa of Kolkata. Mother Teresa presented the compassionate face of God to the world. Because of her goodness, the world conferred upon her the titles of saint and mother even before the Church. She explained the true meaning of the Christian faith in our country. To follow in her footsteps, we need great courage and strength. May she continue to pray for us.
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)
आज का सुसमाचार इस बात पर चिंतन करने के लिए समृद्ध संभावनाएं प्रदान करता है कि कैसे ईश्वर सामान्य लोगों को शिष्य बनने और ईश्वर के राज्य के कार्यो के लिए बुलाता है। पेत्रुस और साथियो के बारे में कुछ भी असाधारण नहीं है। वे साधारण मछुआरे हैं, और वे बस वही कर रहे हैं जो वे हर दिन करते थे।
येसु पेत्रुस और उसके साथियों को वैसे ही बुलाते हैं जैसे वे हैं। पेत्रुस अपनी अयोग्यता से भली-भांति अवगत है, परन्तु येसु इससे विचलित नहीं होते । येसु ने पेत्रुस को अपने कार्य करने के लिए चुनने से पहले उसे सुधरने को नहीं कहा। इसके बजाय, येसु उसे तथा उसके साथियो को वैसे ही अपनाते है जैसे वे है, येसु उन्हें नहीं डरने को कहते है, और प्रेरिताई के कार्यो को करने के एक नए मिशन के लिए उन्हें बुलाते है।
धर्मशास्त्र में हम देखते हैं कि मानवीय पाप, असफलता, और अपर्याप्तता ईशवर की बुलाहट में कोई बाधा नहीं है। परमेश्वर अपरिपूर्ण लोगों को परमेश्वर का कार्य करने के लिए बुलाता है, जो लोग अपनी अयोग्यता के बारे में जानते हैं और अक्सर परमेश्वर की बुलाहट पर संदेह करते हैं और उसका विरोध करते हैं जैसा कि निर्गमन 3:10-12 में हुआ था; मूसा के साथ, भविष्यवक्ता यशायाह के साथ 6:1-6 में; और यिर्मयाह 1:6-8 में। परमेश्वर उनके आकार लेने की प्रतीक्षा नहीं करता। भगवान उन्हें वैसे ही बुलाते हैं जैसे वे हैं और फिर उन्हें वफादार सेवकों के रूप में आकार देने का काम करते हैं।
हम उसकी बुलाहट को सुनने और विश्वास और नम्रता के साथ उत्तर देने के लिए बुलाए गए हैं। आराम वह करेगा।
✍ - फादर रोनाल्ड वाँन
Today’s Gospel passage offers rich possibilities for reflecting on how God calls ordinary people to discipleship and mission. After all, there is nothing extraordinary about Simon Peter and his fishing partners. They are simple fishermen, and they are simply doing what they did every day.
Jesus calls Simon and his partners as they are. Simon is acutely aware of his unworthiness, but Jesus is not put off by this. Jesus does not ask Simon to get his act together, or improvise certain skills etc. and then come back for selection process. Rather, Jesus encounters him as he is, tells him not to be afraid, and calls him to a new mission of catching people.
Throughout Scripture we see that human sin, failure, and inadequacy are no obstacles to God’s call. God calls imperfect people to do God’s work, people who are aware of their unworthiness and are often doubting and resistant to God’s call just as happened in Exodus 3:10-12; with Moses, with Prophet Isaiah in 6:1-6; and Jeremiah in 1:6-8. God doesn’t wait for them to shape up. God calls them as they are and then works on shaping them into faithful servants.
We are called to listen to his calling and answer in faith and humility. Rest he will do.
✍ -Fr. Ronald Vaughan
मित्रो, आज के सुसमाचार में हम पढ़ते हैं कि येसु सिमोन की नाव में सवार होकर सुसमाचार सुनाते है और बाद में वे उनसे कहते है - "नाव को गहरे पानी में ले जाओ और मछलियाँ पकड़ने के लिए जाल डालो।" पेत्रुस ने ऐसा ही किया और भरपूर मात्रा में उन्हें मछलियाँ मिली। शायद उतनी उन्होंने पहले कभी ना पकड़ी होंगी।
मैं येसु के नाव में आने की तुलना पवित्र यूखरिस्त से करना चाहता हूँ। पवित्र यूखरिस्त में प्रभु येसु हमारे जीवन रूपी नाव में आते हैं। वो हमारे दिल में आते और हमारे दिल में रहते हुए हमें बहुत सारी शिक्षा देते हैं। आज हम अपने आप से ये सवाल करें कि क्या मैं मेरे दिल में आने वाले येसु की बातें सुनता हूँ, जैसे पेत्रुस ने न केवल उनका प्रवचन सुना बल्कि उन्होंने येसु के आदेश का अक्षरसः पालन किया। उन्होंने न भीड़ की परवाह की और न ही खुद की बुद्धि पर भरोसा किया। उन्होंने बस जैसा येसु ने कहा वैसा ही किया और देखो एक बड़ा चमत्कार उनके सामने होता है, जिसके बाद से उनकी पूरी ज़िन्दगी बदल जाती है।
हम येसु को अपने जीवन की नाव में अथवा अपने हृदय में बुलाते तो हैं, पर उनकी बात मानने को तैयार नहीं। उनकी वाणी सुनकर जैसा वे हमें करने को कहते हैं, वैसा करने को तैयार नहीं। हम किनारा छोड़कर गहराई में जाने को तैयार नहीं। येसु हमारे जीवन को भरपूर मात्रा में आशीष व अनुग्रह देना चाहते हैं पर हम उनकी आज्ञा मानकर हमारे जीवन की नाव को गहरे पानी में ले जाना नहीं चाहते। येसु पर पूर्ण भरोसा करके उनकी मर्ज़ी अनुसार निर्णय लेना और कार्य करना हम नहीं चाहते। जब तक हम जीवन में खुद की बुद्धि और खुद की योजनाओं के अनुसार कार्य करेंगे तो हमें या तो बहुत थोड़ा ही मिलेगा या फिर कुछ भी नहीं मिलेगा भले ही हम सारी रात मेहनत कर लें । पर जब येसु की मर्ज़ी के अनुसार चलेंगे तो इतना अनुग्रह मिलेगा की जीवन में समा नहीं पायेगा।
✍ - फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)
Friends, in today's gospel we read that Jesus first of all gets into the boat of Simon and preaches the Good News then he tells him - "Take the boat into deep water and put the net to catch the fish." Peter did what Jesus said, and he found fish in plenty. They may have never caught that much before. I would like to compare the coming of Jesus in the boat to the holy Eucharist. In the holy Eucharist, Lord Jesus comes in the boat of our life. He comes to our heart and gives us a lot of teaching while staying in our heart. Today let us ask ourselves whether we listen to the words of Jesus living in our hearts, as Peter did. He not only listened to his preaching but he obeyed Jesus’ order literally. He neither cared for the crowd nor trusted his own intelligence. He did just as Jesus said and see a big miracle happens in front of him, after which his whole life got changed. We do call Jesus in the boat of our lives or in our hearts, but we are not ready to obey him. Hearing his voice, we are not ready to do what he tells us to do. We are not ready to trust our Lord and go deep into the sea of life. Jesus wants to give abundant blessings and graces in our lives, but we do not want to take the risk of taking the boat of our life into the deep water. We do not want to trust and believe in Jesus and act according to his will. As long as we work according to our own intelligence and our own plans in life, we will either get very a little or will get nothing, even if we work hard all night. But when we walk according to the will of Jesus, we will get so much grace that we will not be able to contain it.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)
14) "मैं उसे लुभा कर मरुभूमि को ले चलूँगा और उसे सान्त्वना दूँगा।
15) वहाँ मैं उसे उसकी दाखबारियाँ लौटा दूँगा; मैं कष्ट की घाटी को आशा के द्वार में परिणत करूँगा। वहाँ वह मुझे स्वीकार करेगी, जैसा कि उसने अपनी जवानी के दिनों में किया था- उस समय, जब वह मिस्र से निकली थीं।
19) मैं सदा के लिए तुम्हें अपनाऊँगा। मैं तुम्हें धर्म और विधि के अनुसार कोमलता और प्यार से अपनाऊँगा।
20) मैं सच्ची निष्टा से तुम्हें अपनाऊँगा और तुम प्रभु को जान जाआंगी।
31) "जब मानव पुत्र सब स्वर्गदुतों के साथ अपनी महिमा-सहित आयेगा, तो वह अपने महिमामय सिंहासन पर विराजमान होगा
32) और सभी राष्ट्र उसके सम्मुख एकत्र किये जायेंगे। जिस तरह चरवाहा भेड़ों को बकरियों से अलग करता है, उसी तरह वह लोगों को एक दूसरे से अलग कर देगा।
33) वह भेड़ों को अपने दायें और बकरियों को अपने बायें खड़ा कर देखा।
34) "तब राजा अपने दायें के लोगों से कहेंगे, ’मेरे पिता के कृपापात्रों! आओ और उस राज्य के अधिकारी बनो, जो संसार के प्रारम्भ से तुम लोगों के लिए तैयार किया गया है;
35) क्योंकि मैं भूखा था और तुमने मुझे खिलाया; मैं प्यासा था तुमने मुझे पिलाया; मैं परदेशी था और तुमने मुझको अपने यहाँ ठहराया;
36) मैं नंगा था तुमने मुझे पहनाया; मैं बीमार था और तुम मुझ से भेंट करने आये; मैं बन्दी था और तुम मुझ से मिलने आये।’
37) इस पर धर्मी उन कहेंगे, ’प्रभु! हमने कब आप को भूखा देखा और खिलाया? कब प्यासा देखा और पिलाया?
38) हमने कब आपको परदेशी देखा और अपने यहाँ ठहराया? कब नंगा देखा और पहनाया ?
39) कब आप को बीमार या बन्दी देखा और आप से मिलने आये?"
40) राजा उन्हें यह उत्तरदेंगे, ’मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- तुमने मेरे भाइयों में से किसी एक के लिए, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, जो कुछ किया, वह तुमने मेरे लिए ही किया’।
41) "तब वे अपने बायें के लोगों से कहेंगे, ’शापितों! मुझ से दूर हट जाओ। उस अनन्त आग में जाओ, जो शैतान और उसके दूतों के लिए तैयार की गई है;
42) क्योंकि मैं भूखा था और तुम लोगों ने मुझे नहीं खिलाया; मैं प्यासा था और तुमने मुझे नहीं पिलाया;
43) मैं परदेशी था और तुमने मुझे अपने यहाँ नहीं ठहराया; मैं नंगा था और तुमने मुझे नहीं पहनाया; मैं बीमार और बन्दी था और तुम मुझ से नहीं मिलने आये’।
44) इस पर वे भी उन से पूछेंगे, ’प्रभु! हमने कब आप को भूखा, प्यासा, परदेशी, नंगा, बीमार या बन्दी देखा और आपकी सेवा नहीं की?"
45) तब राजा उन्हें उत्तर देंगे, ’मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - जो कुछ तुमने मेरे छोटे-से-छोटे भाइयों में से किसी एक के लिए नहीं किया, वह तुमने मेरे लिए भी नहीं किया’।
46) और ये अनन्त दण्ड भोगने जायेंगे, परन्तु धर्मी अनन्त जीवन में प्रवेश करेंगे।"
हम सभी को अपनी मृत्यु और अंतिम न्याय की चिंता है। हम स्वर्ग में प्रवेश करना चाहते हैं। आज का सुसमाचार हमारे सामने अंतिम न्याय का मानदंड रखता है। येसु चाहते हैं कि हम यह जानें कि गरीबों, भूखों, प्यासों, वस्त्रहीनों, पीड़ितों, बीमारों, कैदियों, उपेक्षितों और परित्यक्त लोगों की देखभाल करने से हमें स्वर्ग में जगह मिल सकती है। ऐसा करने में विफलता हमें नरक में भेज सकती है। जबकि ईश्वर, संसार और मनुष्य स्वयं अथाह रहस्य बने हुए हैं, येसु चाहते हैं कि हम स्वर्ग के सरल मार्ग के बारे में बहुत स्पष्ट हों। इस मार्ग की सरलता यह है कि यह हर उस व्यक्ति की पहुंच में है जो अपने पड़ोसी के लिए कुछ त्याग करने को तैयार है। हो सकता है कि कोई ईश्वर के वचन की व्याख्या करने की सभी पहलुओं को न जानता हो, जटिल नियमों से परिचित न हो, फिर भी प्रेम के साधारण कृत्यों के द्वारा वह स्वर्ग में प्रवेश कर सकता है। मीकाह 6:8 में हम पढ़ते हैं, “मनुष्य! तुम को बताया गया है कि उचित क्या है और प्रभु तुम से क्या चाहता है। यह इतना ही है - न्यायपूर्ण व्यवहार, कोमल भक्ति और ईश्वर के सामने विनयपूर्ण आचरण।” कलकत्ता की संत तेरेसा ने जोर-शोर से और स्पष्ट रूप से प्रभु येसु की इस शिक्षा का प्रचार और अभ्यास किया। ईसाई धर्म दिमाग का धर्म नहीं है, बल्कि हृदय का धर्म है। आइए हम सभी मनुष्यों से प्रेम करने के लिए अपने हृदयों को खोलें और प्रत्येक जरूरतमंद का स्वागत करने की प्रवृत्ति का विस्तार करें।
✍ - फ़ादर फादर फ्रांसिस स्करिया
All of us worry about our death and final judgement. We want to enter heaven. Today’s Gospel places before us the measuring rod for the final judgement. Jesus wants us to know that caring for the poor, the hungry, the thirsty, the naked, the suffering, the sick, the imprisoned, the marginalised and the abandoned can ensure us a place in heaven. Failure to do so can send us to hell. While God, the world and man himself remain unfathomable mysteries, Jesus wants us to be very clear about the simple way to heaven. The simplicity of this way is that it is within the reach of everyone who is willing to make some sacrifices for the sake of his neighbour. One may not know all the intricacies of interpreting the Word of God. One may not be familiar with the complex canon law. Yet through simple acts of love, one can enter heaven. In Micah 6:8 we read, “He has told you, O mortal, what is good; and what does the Lord require of you but to do justice, and to love kindness, and to walk humbly with your God?” St. Teresa of Calcutta loudly and clearly preached and practised this teaching of Jesus. Christianity is not a religion of the head, but of the heart. Let us open our hearts to love all human beings and extend our hands to welcome everyone in need.
✍ -Fr. Francis Scaria
येसु सभागृह में शिक्षा दे रहे थे और फरीसियों द्वारा निगरानी की जा रही थी कि क्या वे विश्राम दिवस के सख्त नियमों का पालन कर रहे है या नहीं। इस दौरान येसु ने एक सूखे हाथ वाले व्यक्ति को देखा। साथ ही साथ, येसु शास्त्रियों और फरीसियों के विचारों से भी अवगत थे। जब येसु का सामना उस किसी पीड़ित व्यक्ति के साथ होता है तो येसु करुणा से द्रवित हो उठते हैं और सूखे हाथ वाले उस व्यक्ति को चंगा करते हैं। येसु ने कर्मकांडों का पालन करने के बजाय करुणा को अधिक महत्व दिया। येसु हमें बताते है कि "वे इसलिए आये है कि हम जीवन पाएं, और परिपूर्ण जीवन"। हमें इस तथ्य को समझने की जरूरत है कि हम सभी को खुश नहीं रख सकते और हर कोई येसु के अनुयायियों के रूप में हमारे कार्यों से खुश नहीं होगा, लेकिन हमें इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि हम जरूरतमंद लोगों की ज़रूरत में कैसे मदद कर सकते हैं। उस सूखे हाथ वाले व्यक्ति के बारे में सोचें और येसु द्वारा चंगा किए जाने के बाद उसे कैसा लगा होगा। हमें अपने आप से यह पूछने की जरूरत है कि क्या हम अपने दैनिक जीवन में जरूरतमंद लोगों की मदद करने के लिए अवसरों की तलाश करते हैं, या क्या हम खुद को अनुष्ठानों का पालन करने तक सीमित रखते हैं?
✍ - फादर रोनाल्ड वाँन
Jesus was teaching in the synagogue and he was being watched by the Pharisees to see if he is obeying the strict rules of the Sabbath. During this time Jesus saw a man with a withered hand. At the same time Jesus was also aware of the thoughts of the scribes and Pharisees. However, when faced with someone who is suffering, Jesus is moved by compassion and cures the man with a withered hand. Jesus places more importance on compassion rather than following rituals. Jesus tells us that “he has come that we may have life and have it more abundantly”.
We need to realise the fact that we cannot keep everyone happy. And not everyone will be happy with our actions as followers of Jesus, but we need to focus on how we can help our fellow people in need. Think of the man with the withered hand and how he would have felt after he was cured by Jesus. We need to ask ourselves that in our daily lives, do we seek out opportunities to help those in need, or do we limit ourselves to following rituals?
✍ -Fr. Ronald Vaughan
आज हम ईश्वर के प्रेम की प्रतिमूर्ति व करुणा की माँ कलकत्ता की संत मदर तरेसा का पर्व मना रहे हैं। संत मत्ती 25:31-46 को मैंने बचपन से आज तक कितनी ही बार पढ़ा और सुना है, पर हर बार जब मैं इसे पढता हूँ, प्रभु का वचन मुझे चुनौती देता हैं - "तुमने मेरे इन भाइयों में से किसी एक के लिए, चाहे वो कितना ही छोटा क्यों न हो, जो कुछ भी किया, वह तुमने मेरे लिए ही किया " मदर टेरेसा ने अपने जीवन में प्रभु के इन वचनों को न केवल पढ़ा और मनन-चिंतन किया जैसा कि हम किया करते हैं, पर उन्होंने इन वचनों को अपने कार्यों में परिणित कर दिया, उन्होंने इन वचनों का अपने कार्यों में अनुवाद कर दिया। उन्होंने सचमुच में हर इंसान में येसु को देखा। विशेषकर के दुखित, पीड़ित, व लाचार लोगों में। उनका एक कथन मुझे बहुत प्रेरित करता है - "सबों में येसु को देखें , और सबों के लिए येसु बनें।" याने किसी भी व्यक्ति से बात-व्यव्हार करते समय मैं इस ख्याल में रहूं कि सामने वाला व्यक्ति येसु है और यदि वह येसु है तो मैं उनके साथ कैसा बर्ताव करूँगा, मैं उनसे कैसे पेश आऊंगा? और मेरी और से, मेरी हर परिस्तिथि में यही सोचूं कि यदि मैं येसु होता तो दूसरों के लिए इस परिस्थिति में क्या करता? यदि यह नजरिया हम सब अपना लें तो आज हम सारे ख्रीस्तीय अपने-अपने क्षेत्रों में येसु की जीवित मौजूदगी के पर्याय बन जायेंगे, जैसा की मदर तेरेसा ने किया और हमारे लिए एक मिसाल कायम की। आज वो हमारे लिए प्रार्थना कर रही है और हमारा आह्वान कर रही है कि हम उन राहों पर येसु के पीछे चलें जिनपर चलकर उन्होंने संत का मुकुट हासिल किया है।
✍ - फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)
Today we are celebrating the feast of St. Mother Teresa, of Calcutta, the mother of compassion and the symbol of God's love. From childhood until today how many times I have read and heard saint Matthew 25: 31-46. But every time I read it, the words of God challenge me Truly I tell you, just as you did it to one of the least of these who are members of my family, you did it to me.”(Mt. 2540) Mother Teresa not only read and meditated these words of the Lord in her life as we do, but she translated these words into her work. She truly saw Jesus in every human being especially, among the grieved, sorrowful, afflicted, and helpless people. One of his statements inspires me a lot - "See Jesus in everyone and be Jesus to everyone." ie. While dealing with any person, I keep in mind that the person in front me is Jesus so how should I treat him knowing that he is Jesus. From my part, in every circumstance I would think that if I were Jesus, what would I act and behave with any individual in a given situation. If all of us put on this attitude, then today all Christians will become tantamount of the living presence of Jesus wherever we are as Mother Teresa did and set an example for us. Today she is praying for us and is asking us to follow Jesus on the paths on which she walked and achieved the crown of sainthood.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)