1) लोग हमें मसीह के सेवक और ईश्वर के रहस्यों के कारिन्दा समझे।
2) अब कारिन्दा से यह आशा की जाती है कि वह ईमानदार निकले।
3) मेरे लिए इस बात का कोई महत्व नहीं कि आप लोग अथवा मनुष्यों का कोई न्यायालय मुझे योग्य समझे। मैं स्वयं भी अपना न्याय नहीं करता।
4) मैं अपने में कोई दोष नहीं पाता, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि मैं निर्दोष हूँ। प्रभु ही मेरे न्यायकर्ता हैं।
5) इसलिए प्रभु के आने तक कोई किसी का न्याय नहीं करे। वह अन्धकार के रहस्य प्रकाश में लायेंगे और हृदयों के गुप्त अभिप्राय प्रकट करेंगे। उस समय हर एक को ईश्वर की ओर से यथायोग्य श्रेय दिया जायेगा।
33) उन्होंने ईसा से कहा "योहन के शिष्य बारम्बार उपवास करते हैं और प्रार्थना में लगे रहते हैं और फरीसियों के शिष्य भी ऐसा ही करते हैं, किन्तु आपके शिष्य खाते-पीते हैं"।
34) ईसा ने उन से कहा, "जब तक दुलहा उनके साथ हैं, क्या तुम बारातियों से उपवास करा सकते हो?
35) किन्तु वे दिन आयोंगे, जब दुलहा उनके स बिछुड़ जायेगा। उन दिनों वे उपवास करेंगे।"
36) ईसा ने उन्हें यह दृष्टान्त भी सुनाया, "कोई नया कपड़ा फाड़ कर पुराने कपड़े में पैबंद नहीं लगाता। नहीं तो वह नया कपड़ा फाड़ेगा और नये कपड़े का पैबंद पुराने कपड़े के साथ मेल भी नहीं खायेगा।
37) और कोई पुरानी मशकों में नयी अंगूरी नहीं भरता। नहीं तो नयी अंगूरी पुरानी मशकों को फाड़ देगी, अंगूरी बह जायेगी और मशकें बरबाद हो जायेंगी।
38) नयी अंगूरी को नयी मशकों में ही भरना चाहिए।
39) "कोई पुरानी अंगूरी पी कर नयी नहीं चाहता। वह तो कहता है, ’पुरानी ही अच्छी है।"
उपवास का शाब्दिक अर्थ है - पास बैठना या पास निवास करना। अर्थात जब हम उपवास करते हैं तो इसका उद्देश्य है कि हम ईश्वर के पास आ जाएं। अपने शरीर को दुर्बल बनाकर हम अपनी आत्मा को सुदृढ़ बना सकते हैं। शरीर और आत्मा दोनों का विपरीत सम्बन्ध प्रतीत होता है। जब हम शरीर पर अपना सारा ध्यान केंद्रित करते हैं तो आत्मा दुर्बल हो जाती है। प्रभु येसु के शिष्य जब प्रभु येसु के साथ ही थे तो उन्हें उनके और करीब आने के लिए उपवास करने की क्या जरूरत थी? शायद इसलिए प्रभु येसु बताते हैं कि जब दूल्हा उनके साथ नहीं होगा तब वे उपवास करेंगे। हमारे पाप हमें प्रभु से दूर कर देते हैं और पुनः उनके पास आने के लिए हमें उपवास की जरूरत पड़ेगी। क्या मुझे अपने व्यक्तिगत जीवन में अनुभव होता है कि दूल्हा मेरे साथ या फिर मुझे उपवास की आवश्यकता है?
✍फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)The literal meaning of fasting is "to sit near" or "to reside near." When we fast, the purpose is to come closer to God. By weakening our bodies, we can strengthen our souls. There seems to be an inverse relationship between the body and the soul; when we focus all our attention on the body, the soul becomes weak. When the disciples of Jesus were with Him, why did they need to fast? Perhaps this is why Jesus said that when the bridegroom is not with them, they will fast. Our sins distance us from the Lord, and we need fasting to come back near Him. In our personal lives, do we feel that the bridegroom is with us or that we need fasting?
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)
सुसमाचार आज हमें उपवास के बाहरी पहलू पर ध्यान केंद्रित करने के लिए नहीं बल्कि उसके सार या मर्म पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहता है, अर्थात्, हमारे शरीर और आत्मा को इस तरह से अनुशासित करना कि हम येसु के बहुत करीब हो सकें। जबकि हम मानते हैं कि उपवास एक बहुत अच्छी धार्मिक क्रिया है, हम यह भी जानते हैं कि येसु के साथ व्यक्तिगत संबंध विकसित करने का यही एकमात्र तरीका नहीं है। लोग येसु की आलोचना कर रहे थे क्योंकि वे उन्हें नहीं जानते थे। वे इस सत्य को नहीं जानते और समझते थे कि जिस कारण से हमें धार्मिक गतिविधि का अभ्यास करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, वह उसके साथ एक व्यक्तिगत संबंध विकसित करने के लिए है। और उसके शिष्यों ने सही भाग का चुनाव किया। अब सवाल यह है कि क्या हम उनके शिष्यों में से हैं या वे लोग जिन्होंने उनकी आलोचना की?
✍ - फादर रोनाल्ड वाँन
The gospel today tells us not to focus on the external aspect of fasting but on its very essence, that is, to discipline our body and soul in such a way that we may become much closer to Christ. While we believe that fasting is a very good religious practice, we are also aware that is not the only way to develop a personal relationship with Christ. The people were criticizing Christ because they did not know him. They did not know that the very reason why we are encouraged to practice a religious activity is in order to develop a personal relationship with him. And his disciples did the right choice. Now the question is, are we one of his disciples or those people who criticized him?
✍ -Fr. Ronald Vaughan
आज के सुसमाचार में हम पढ़ते हैं शास्त्री और फरीसी येसु से उपवास को लेकर सवाल करते हुए कहते हैं कि योहन के शिष्य और फरीसियों के शिष्य उपवास करते हैं पर उनके शिष्य क्यों खाते - पीते हैं। प्रभु येसु उनके प्रश्न का जवाब अन्य प्रश्न से ही देते हैं। वे उनसे पूछते हैं कि जब तक दूल्हा साथ है क्या तुम बारातियों से उपवास करा सकते हो ? जब दूल्हा उनसे बिछुड़ जायेगा तब वे उपवास करेंगे।
यहाँ पर दो बिंदु मनन-चिंतन के लिए हमारा ध्यान खींचते हैं। 1 ) हमारे उपवास या फिर किसी भी भले कार्य के पीछे एक उद्द्देश्य होना चाहिए। कई बार देखा जाता है कि कई लोगों की धार्मिक क्रियाएं या तो किसी की देखा देखी में की जाती है या फिर दूसरों को दिखने के लिए की जाती है। कुछ - कुछ काम हम बस रिवाज के नाम पर करते रहते हैं जिसका ना हमें अर्थ पता होता है और न कारण ही।
2 ) हर कार्य का अपना एक समय होता है। बारात के समय शोक और मौत के समय जश्न मनाना उचित नहीं है। उपदेशक ग्रन्थ 3:1 में उपदेशक कहता है पृथ्वी पर हर बात का अपना वक्त और हर काम का अपना समय होता है। उस समय जब येसु शरीर रूप में अपने शिष्यों के साथ थे उनका उपवास करना बेवजह था। पर आज, हमें उपवास करने की ज़रुरत है। ये उपवास, प्रार्थना, पश्चाताप और प्रायश्चित का समय है। आइये हम सब विश्वासी मिलकर उपवास प्रार्थना व प्रायश्चित करते हुए कोरोना महामारी, प्राकृतिक आपदायें, दुर्घटनाएँ, और हिंसा झेल रहे हमारे संसार के लिए प्रार्थना करें।
✍ - फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)
Today's gospels we read, the scribes and Pharisees question Jesus about fasting, saying that the disciples of John and the disciples of the Pharisees fast but why his disciples eat and drink. Lord Jesus answers the question with another question saying – “You cannot make wedding-guests fast while the bridegroom is with them, can you? The days will come when the bridegroom will be taken away from them, and then they will fast in those days.” Two points here draw our attention for our reflection: (1) There should be a purpose behind our fasting or any good work. Many a times it is seen that some people's religious activities are done either blindly following someone or to make show of their religiosity. We just keep doing some work in the name of custom, of which we neither know the meaning nor the reason. (2) Every work has its own time. It is not appropriate to celebrate mourning and death at the time of marriage procession. The preacher says in Ecclesiastes 3:1- For everything there is a season, and a time for every matter under heaven: At that time when Jesus was with his disciples in body form, it was improper for them to fast, but today we need to fast. It is a time of fasting, prayer, repentance and atonement. Come, let us pray together for the Corona pandemic, natural calamities, accidents, and violence in our world as fast, pray and make atonement.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)