सितंबर 09, 2024, सोमवार

वर्ष का तेईसवाँ सामान्य सप्ताह

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📒 पहला पाठ : 1 कुरिन्थियों 5:1-8

1) आप लोगों के बीच हो रहे व्यभिचार की चरचा चारों और फैल गयी है- ऐसा व्यभिचार जो गैर-यहूदियों में भी नहीं होता। किसी ने अपने पिता की पत्नी को रख लिया है।

2) तब भी आप घमण्ड में फूले हुए हैं! आप को शोक मनाना और जिसने यह काम किया, उसका बहिष्कार करना चाहिए था।

3) मैं शरीर से अनुपस्थित होते हुए भी आत्मा से आप लोगों के बीच हूँ। जिसने यह काम किया है, मैं उसका न्याय कर चुका हूँ, मानों मैं वास्तव में वहाँ उपस्थित हूँ।

4) और मेरा निर्णय यह है: प्रभु ईसा के नाम पर हम-अर्थात् आप लोग और मैं आत्मा से - एकत्र हो जायेंगे

5) और अपने प्रभु ईसा के अधिकार से उस व्यक्ति को शैतान के हवाले कर देंगे, जिससे उसके शरीर का विनाश हो, किन्तु प्रभु के दिन उसकी आत्मा का उद्धार हो।

6) आप लोगों का आत्मसन्तोष आप को शोभा नहीं देता। क्या आप यह नहीं जानते कि थोड़ा-सा ख़मीर सारे सने हुए आटे को ख़मीर बना देता है?

7) आप पुराना ख़मीर निकाल कर शुद्ध हो जायें, जिससे आप नया सना हुआ आटा बन जायें। आप को बेख़मीर रोटी-जैसा बनना चाहिए क्योंकि हमारा पास्का का मेमना अर्थात् मसीह बलि चढ़ाये जा चुके हैं।

8) इसलिए हमें न तो पुराने खमीर से और न बुराई और दुष्टता के खमीर से बल्कि शुद्धता और सच्चाई की बेख़मीर रोटी से पर्व मनाना चाहिए।


📒 सुसमाचार : लूकस 6:6-11

6) किसी दूसरे विश्राम के दिन ईसा सभागृह जा कर शिक्षा दे रहे थे। वहाँ एक मनुष्य था, जिसका दायाँ हाथ सूख गया था।

7) शास्त्री और फ़रीसी इस बात की ताक में थे कि यदि ईसा विश्राम के दिन किसी को चंगा करें, तो हम उन पर दोष लगायें।

8) ईसा ने उनके विचार जान कर सूखे हाथ वाले से कहा, "उठो और बीच में खड़े हो जाओ"। वह उठ खड़ा हो गया।

9) ईसा ने उन से कहा, "मैं तुम से पूछ़ता हूँ-विश्राम के दिन भलाई करना उचित है या बुराई, जान बचाना या नष्ट करना?"

10) तब उन सबों पर दृष्टि दौड़ा कर उन्होंने उस मनुष्य से कहा, "अपना हाथ बढ़ाओ"। उसने ऐसा किया और उसका हाथ अच्छा हो गया।

11) वे बहुत क्रुद्ध हो गये और आपस में परामर्श करते रहे कि हम ईसा के विरुद्ध क्या करें।

📚 मनन-चिंतन

प्रभु येसु के आने से पूर्व उस समय के यहूदी समाज में शायद ही किसी ने व्याप्त कमियों और बुराइयों की ओर इंगित किया हो। सिर्फ सन्त योहन बपतिस्ता ने कुछ गलत होने पर आवाज उठाई और गलत करने वालों को धिक्कारा (देखें मत्ती 3:7-10)। उसने राजा हेरोद को भी नैतिकता की चुनौती दी, और शायद इसीलिए उन्हें शहीद होना पड़ा। कभी-कभी अपने आस-पास गलत होते हुए भी हम खामोश रहते हैं, उसका विरोध नहीं करते। कहा जाता है कि गलत का विरोध न करने वाला व्यक्ति भी सजा का उतना ही हकदार है जितना गलत करने वाला। इसलिए प्रभु येसु फरीसियों और शास्त्रियों से सही और गलत के बारे में सवाल पूछते हैं, लेकिन वे लोग कुछ भी जवाब नहीं देते। सन्त पौलुस भी पहले पाठ में लोगों को धिक्कारते हैं कि आप लोगों का आत्मसंतोष आप लोगों को शोभा नहीं देता, अर्थात बुरा या गलत होते हुए भी संतुष्ट या खामोश क्यों हैं? कहीं यही सवाल आज हमारे लिए भी सटीक तो नहीं बैठता?

फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)

📚 REFLECTION


Before the coming of Lord Jesus, it seems that very few in the Jewish society of that time pointed out the prevalent shortcomings and evils. Only Saint John the Baptist raised his voice against wrongdoings and condemned those who were doing wrong (see Matthew 3:7-10). He even challenged King Herod on matters of morality, and perhaps that is why he had to become a martyr. Sometimes, even when wrong is happening around us, we remain silent and do not raise our voice against the wrong happening. It is said that a person who does not oppose wrong is as deserving of punishment as the one who commits the wrong. Therefore, Lord Jesus questions the Pharisees and scribes about what is right and wrong, but they do not provide any answers. Saint Paul, in the first reading, reprimands people, saying that their self-satisfaction does not befit them, meaning why are they content or silent even when things are bad or wrong? Perhaps this question is equally relevant for us today.

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)

📚 मनन-चिंतन -2

आज के सुसमाचार में प्रभु येसु एक सूखे हाथ वाले को विश्राम दिवस के दिन चंगा करता हैं। येसु के प्रतिद्वंदी इस ताक में रहते हैं कि वे उन पर यह दोष लगाए कि उन्होंने विश्राम दिवस के नियम को तोडा है। प्रभु येसु उनके मन की बात जानते थे फिर भी वे उनके भय से भलाई का कार्य करने से पीछे नहीं हटे। वे सब प्रकार के बंधनों से मनुष्यों को छुड़ाने आये थे। यहाँ पर वे ना केवल उस सूखे हाथ वाले को बंधन मुक्त करते हैं पर शास्त्री और फरीसियों के धर्मान्धता के बंधन को तोड़ते हुए उन्हें ये सिखलाते हैं कि मनुष्य का जीवन और उनका कल्याण नियमों से ऊपर होता है। दूसरे शब्दों में नियम मनुष्यों के हित और कल्याण के लिए होने चाहिए और कोई भी नियम यदि मनुष्यों को इससे वंचित करता है तो ऐसी स्थिति में उस नियम के विरुद्ध जाकर मानव कल्याण के कार्य करना उचित है।

हमारे जीवन में कई बार हम भले कार्य करने की ख्वाहिश तो रखते हैं परन्तु लोकलज्जा और भय के कारण कर नहीं पाते। हम उस व्यक्ति के जीवन और उसकी समस्याओं की गंभीरता पर ध्यान न देकर लोगों की क्रिया-प्रतिक्रिया पर ध्यान देते हैं कि यदि मैं ऐसा करूँगा तो कोई क्या कहेगा; कोई मेरा विरोध तो नहीं करेगा; कोई मेरा मज़ाक तो नहीं उड़ाएगा आदि। प्रभु येसु को दूसरों को जीवन देने, चंगाई देने, और बंधनों से छुटकारा देने में कोई भी व्यक्ति या नियम आड़े नहीं आया। हम भी जीवन में जो उचित है, भला है, और दूसरों के कल्याण के लिए है उसे करने में कभी पीछे नहीं हटें।

- फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

In today's gospel, Jesus heals a man with withered hand on the Sabbath. Jesus’ rivals were waiting for a chance to accuse him of breaking the Sabbath law, if he would heal the person on the Sabbath. Jesus knew their mind, yet he did not back down from doing good work. He had come to set free the human kind from all kinds of bondages. Here, not only does he free the bondage of the man with withered hand, but he breaks the bondages of the blind religiosity and observance of the law of the scribes and Pharisees and teaches them that the human life and welfare of man is above the rules and laws. In other words, rules should be for the benefit and welfare of human beings and if any rule deprives humans of it, then in such a situation it is appropriate to go against that rule and work for the human welfare. Many times in our life, we desire to do good work, but we are unable to do it due to shame and fear. We concentrate so much on the reaction of the people thinking what will others say, what will others think, how they would react etc. For Jesus, no person, no rule could come in his way of giving life to others, and releasing the captives of sin and Satan free. We should never hold back in doing what is right in life.

-Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)