सितंबर 13, 2024, शुक्रवार

वर्ष का तेईसवाँ सामान्य सप्ताह

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📒 पहला पाठ : 1 कुरिन्थियों 9:16-19, 22-27

16) मैं इस पर गौरव नहीं करता कि मैं सुसमाचार का प्रचार करता हूँ। मुझे तो ऐसा करने का आदेश दिया गया है। धिक्कार मुझे, यदि मैं सुसमाचार का प्रचार न करूँ!

17) यदि मैं अपनी इच्छा से यह करता, तो मुझे पुरस्कार का अधिकार होता। किन्तु मैं अपनी इच्छा से यह नहीं करता। मुझे जो कार्य सौंपा गया है, मैं उसे पूरा करता हूँ।

18) तो, पुरस्कार पर मेरा कौन-सा दावा है? वह यह है कि मैं कुछ लिये बिना सुसमाचार का प्रचार करता हूँ और सुसमाचार-सम्बन्धी अपने अधिकारों का पूरा उपयोग नहीं करता।

19) सब लोगों से स्वतन्त्र होने पर भी मैंने अपने को सबों का दास बना लिया है, जिससे मैं अधिक -से-अधिक लोगों का उद्धार कर सकूँ।

20) मैं यहूदियों के लिए यहूदी-जैसा बना, जिससे मैं यहूदियों का उद्धार कर सकँू। जो लोग संहिता के अधीन हैं, उनका उद्धार करने के लिए मैं संहिता के अधीन-जैसा बना, यद्यपि मैं वास्तव में संहिता के अधीन नहीं हूँ।

21) जो लोग संहिता के अधीन नहीं है, उनका उद्धार करने के लिए मैं उनके जैसा बना, यद्यपि मैं मसीह की संहिता के अधीन होने के कारण मैं वास्तव में ईश्वर की संहिता से स्वतन्त्र नहीं हूँ।

22) मैं दुर्बलों के लिए दुर्बल-जैसा बना, जिससे मैं उनका उद्धार कर सकूँ। मैं सब के लिए सब कुछ बन गया हूँ, जिससे किसी-न-किसी तरह कुछ लोगों का उद्धार कर सकूँ।

23) मैं यह सब सुसमाचार के कारण कर रहा हूँ, जिससे मैं भी उसके कृपादानों का भागी बन जाऊँ।

24) क्या आप लोग यह नहीं जानते कि रंगभूमि में तो सभी प्रतियोगी दौड़ते हैं, किन्तु पुरस्कार एक को ही मिलता है? आप इस प्रकार दौड़ें कि पुरस्कार प्राप्त करें।

25) सब प्रतियोगी हर बात में संयम रखते हैं। वे नश्वर मुकुट प्राप्त करने के लिए ऐसा करते हैं, जब कि हम अनश्वर मुकुट के लिए।

26) इसलिए मैं एक निश्चित लक्ष्य सामने रख कर दौड़ता हूँ। मैं ऐसा मुक्केबाज़ हूँ, जो हवा में मुक्का नहीं मारता।

27) मैं अपने शरीर को कष्ट देता हूँ और उसे वश में रखता हूँ। कहीं ऐसा न हो कि दूसरों को प्रवचन देने के बाद स्वयं मैं ही ठुकरा दिया जाऊँ।


📒 सुसमाचार : लूकस 6:39-42

39) ईसा ने उन्हें एक दृष्टान्त सुनाया, "क्या अन्धा अन्धे को राह दिखा सकता है? क्या दोनों ही गड्ढे में नहीं गिर पडेंगे?

40) शिष्य गुरू से बड़ा नहीं होता। पूरी-पूरी शिक्षा प्राप्त करने के बाद वह अपने गुरू-जैसा बन सकता है।

41) "जब तुम्हें अपनी ही आँख की धरन का पता नहीं, तो तुम अपने भाई की आँख का तिनका क्यों देखते हो?

42) जब तुम अपनी ही आँख की धरन नहीं देखते हो, तो अपने भाई से कैसे कह सकते हो, ’भाई! मैं तुम्हारी आँख का तिनका निकाल दूँ?’ ढोंगी! पहले अपनी ही आँख की धरन निकालो। तभी तुम अपने भाई की आँख का तिनका निकालने के लिए अच्छी तरह देख सकोगे।

📚 मनन-चिंतन

एक अंधे व्यक्ति का कष्ट वास्तव में वह व्यक्ति स्वयं ही समझ सकता है। आँखों के बिना किसी भी व्यक्ति का संसार अधूरा है, उसे छोटे से छोटे कार्य के लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति का यदि इलाज संभव नहीं है तो उसे सिर्फ मृत्यु के साथ ही अपने कष्ट से मुक्ति मिलेगी। प्रभु येसु आज के सुसमाचार में शारीरिक अंधेपन के बारे में नहीं बल्कि आध्यात्मिक अंधेपन के बारे में बताते हैं। जो व्यक्ति ईश्वर के बारे में अन्जान है, उसके प्रेम से अनभिज्ञ है, उसका जीवन अधूरा है, व्यर्थ है। शारीरिक अंधेपन वाले व्यक्ति को तो मृत्यु के साथ मुक्ति मिल जाती है लेकिन आध्यात्मिक अंधेपन वाले व्यक्ति का मृत्यु के बाद भी विनाश निश्चित है। जिसे स्वयं ईश्वर का ज्ञान नहीं है, ईश्वर का अनुभव नहीं है, वह दूसरों को ईश्वर के नाम पर सिर्फ गुमराह कर सकता है, ईश्वर के दर्शन नहीं करा सकता।

फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)

📚 REFLECTION


The suffering of a blind person can truly be understood only by the blind person himself. Without eyes, a person's world is incomplete; they must rely on others for even the smallest tasks. If such a person cannot be treated, then only death will bring them relief from their suffering. In today's Gospel, Jesus speaks not about physical blindness but about spiritual blindness. A person who is ignorant of God, unaware of His love, lives an incomplete and futile life. While a physically blind person finds relief in death, a person who is spiritually blind faces certain destruction even after death. One who does not have knowledge of God, who has not experienced God, can only mislead others in the name of God and cannot lead them to true experience of God.

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)

📚 मनन-चिंतन- 2

एक अंधे मार्गदर्शक और आंख में तिनका वाले का दृष्टांत हमें क्या कहता है? आँख में तिनका और अंधा मार्गदर्शक केवल एक ही चीज की ओर ले जा सकता है - आपदा! हम दूसरों को वही सिखा सकते हैं जो हमें खुद सिखाया गया है। और अगर हम अपने ही दोषों से अंधे हो जाते हैं तो हम दूसरों को उनके दोषों को दूर करने में कैसे मदद कर सकते हैं? शिष्य वह है जो गुरु की आवाज सुनता है और जो ईश्वरीय चिकित्सक की सहायता से अपने दोषों पर विजय प्राप्त करता है। अगर हमें दूसरों के लिए मार्गदर्शक और शिक्षक बनना है, तो हमारे पास एक स्पष्ट दृष्टि होनी चाहिए कि हम कहाँ जा रहे हैं और एक नक्शा जो रास्ता दिखाता है।

हमें अपनी सीमाओं और अज्ञानता को महसूस करने के लिए खुलापन और अपनी गलतियों को स्वीकार करने का साहस रखने की आवश्यकता है। हमें सलाह का स्वागत करना चाहिए और फटकार को स्वीकार करना चाहिए। हमारा प्रयास निर्माण करने का होना चाहिए न की विनाश का और लोगों के बारे में उनके बुरे पहलू के बजाय उनकी अच्छाइयों बारे में सोचना चाहिए।

- फादर रोनाल्ड वाँन


📚 REFLECTION

What does the illustration of a blind guide and a bad eye (the log in the eye) say to us? A bad eye and a blind guide can only lead to one thing -- disaster! We can only teach others what we have been taught ourselves. And how can we help others overcome their faults if we are blinded by our own faults? A disciple is one who listens to the voice of the Master and who overcomes his faults through the help of the Divine Physician. If we are to be guides and teachers for others, then we must have clear vision for where we are going and a map that shows the way.

We need to have the openness to realise our own limitations and ignorance and courage to admit the mistakes. We need to welcome advice and accept the rebuke. Our attempt should be to build rather the destroy and to think of people at their best rather than at their worst.

-Fr. Ronald Vaughan

📚 मनन-चिंतन- 3

आज के सुसमाचार में प्रभु येसु हम सबसे दूसरों में गलतियां तलाशने से पहले अपनी गिरेबाँह में झाँकने के लिए आह्वान करते हैं। दूसरों में दोष देखना बहुत आसान है पर खुद की कमज़ोरियों पर ध्यान देना और उन्हें स्वीकार करना मुश्किल होता है। यदि आज की आधुनिक फोटोग्राफी तकनिकी की भाषा में बोले, तो हम दुसरों की बुराइयों को हाईलाइट अथवा zoom करके दिखाते हैं पर खुद की कमज़ोरियों को blur कर देते हैं।

दुनिया का नजरिया दूसरों में दोष ढूंढकर उस पर स्पॉट लाइट फोकस करने का होता है परन्तु प्रभु येसु हमारे दोषों व गुनाहों को अपने लहू से ढककर हम पर अपनी दया प्रदर्शित करते हैं. योहन 8:1-11 में हम पढ़ते हैं लोगों को उस व्यभिचारिणी नारी में सिर्फ गुनाह ही दिखा, पर येसु ने उसके गुनाहों पर फोकस न करके उसपर दया की और उसे उस पाप के दल-दल से बहार निकाला। वैसे ही लुकस 19 में हम देखते ज़केउस में लोगों ने सिर्फ एक पापी को ही देखा, परन्तु परन्तु येसु ने उसमे इब्राहम के बेटे को देखा और उसका उद्धार किया।

आइये आज हम विचार करें कि उत्तम क्या है दूसरोंको को दोषी ठहराना या उन पर दया दिखना। किसी को बदनाम करके उसे और अधिक बुराई करने के लिए मज़बूर करना या उसके साथ नरमी से पेश आते हुए उसे प्रेम व दया के साथ सही मार्ग पर लाना। आइये हम जो सही व उत्तम है उसका चयन करें व अपने व औरों के जीवन को सुन्दर बनायें.

- फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

In today's gospel, Jesus calls us to look into our own faults, before looking for the faults of others. It is very easy to see faults in others, but it is difficult to focus on our own weaknesses and accept them. If I speak in the language of today's photography, then, we show the evils of others by highlighting or zooming them, but we tend to blur our own weaknesses.

The trend of the world is to focus the spot light on others by finding faults in them, but Lord Jesus shows his mercy to us by covering our faults and sins with his precious blood. In John 8: 1-11, we read that people saw only sin in that adulterous woman, but Jesus did not focus on her sins and took pity on her and drove her out of the sinful situation. Likewise in Luke 19 we see, in the story of Zacchaeus, people saw only a sinner in him, but Jesus saw Abraham's son in him and saved him.

Let us consider today what is best: to blame others or to show compassion; to discredit someone and force him/her to do more evil or to treat him/her tenderly and to bring him/her to the right path with love and kindness. Let us choose what is right and good and make the life of others beautiful.

-Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)