सितंबर 14, 2024, शनिवार

पवित्र क्रूस का विजयोत्सव : पर्व

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📒 पहला पाठ : गणना ग्रन्थ 21:4b-9

4) यात्रा करते-करते लोगों का धैर्य टूट गया

5) और वे यह कहते हुए ईश्वर और मूसा के विरुद्ध भुनभुनाने लगे, ''आप हमें मिस्र देश से निकाल कर यहाँ मरुभूमि में मरने के लिए क्यों ले आये हैं? यहाँ न तो रोटी मिलती है और न पानी। हम इस रूखे-सूखे भोजन से ऊब गये हैं।''

6) प्रभु ने लोगों के बीच विषैले साँप भेजे और उनके दंष से बहुत-से इस्राएली मर गये।

7) तब लोग मूसा के पास आये और बोले, ''हमने पाप किया। हम प्रभु के विरुद्ध और आपके विरुद्ध भुनभुनाये। प्रभु से प्रार्थना कीजिए कि वह हमारे बीच से साँपों को हटा दे।'' मूसा ने जनता के लिए प्रभु से प्रार्थना की

8) और प्रभु ने मूसा से कहा, ''काँसे का साँप बनवाओ और उसे डण्डे पर लगाओ। जो साँप द्वारा काटा गया, वह उसकी ओर दृष्टि डाले और वह अच्छा हो जायेगा।''

9) मूसा ने काँसे का साँप बनवाया और उसे डण्डे पर लगा दिया। जब किसी को साँप काटता था, तो वह काँसे के साँप की ओर दृष्टि डाल कर अच्छा हो जाता था।

📙 सुसमाचार : सन्त योहन 3:13-17

13) मानव पुत्र स्वर्ग से उतरा है। उसके सिवा कोई भी स्वर्ग नहीं पहुँचा।

14) जिस तरह मूसा ने मरुभूमि में साँप को ऊपर उठाया था, उसी तरह मानव पुत्र को भी ऊपर उठाया जाना है,

15) जिससे जो उस में विश्वास करता है, वह अनन्त जीवन प्राप्त करे।’’

16) ईश्वर ने संसार को इतना प्यार किया कि उसने इसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया, जिससे जो उस में विश्वास करता हे, उसका सर्वनाश न हो, बल्कि अनन्त जीवन प्राप्त करे।

17) ईश्वर ने अपने पुत्र को संसार मं इसलिए नहीं भेजा कि वह संसार को दोषी ठहराये। उसने उसे इसलिए भेजा कि संसार उसके द्वारा मुक्ति प्राप्त करे।

📚 मनन-चिंतन

पुराने व्यवस्थान में जब लोगों को अपनी गलती का अहसास हुआ तो ईश्वर ने उनके लिए जीने का एक और मौका दिया, उन्हें काँसे के के सांप को सिर्फ देखना भर था, और वे मौत के मुहँ से भी बाहर आ सकते थे। लेकिन उस पर नजर डालने के लिए उसके आस-पास रहना जरूरी था, या जब सांप के काटने से उन पर मौत का संकट था, तो उनके लिए काँसे के उस सांप के आस-पास आना जरूरी था। जहाँ से वह काँसे का सांप नहीं दिख सकता था, वहाँ उनका बचना मुश्किल था। नए व्यवस्थान में जब लोग पाप की दासता में फँस गए तो पिता ईश्वर ने अपने पुत्र को भेजा, जिसने स्वयं को क्रूस पर कुर्बान किया। जो व्यक्ति शैतान के चंगुल और पाप द्वारा मृत्यु के चंगुल से बचना चाहता था, उसे क्रूसित प्रभु की ओर विश्वास से देखना था। क्रूस से आशीष पाने के लिए हमें प्रभु में विश्वास करना है। इसके लिए हमें क्रूस के आस-पास होना जरूरी नहीं है, लेकिन अपने हृदय पर वह क्रूस छाप लेना है। क्रूस ही हमारी सच्ची मुक्ति का साधन है।

फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)

📚 REFLECTION


In the Old Testament, when people realized their sinfulness, God gave them another chance to live. They merely had to look at a bronze serpent to be saved from death. However, to see it, they had to be in its vicinity, especially when facing the threat of death from a serpent bite. If they were unable to look at the bronze serpent, escaping death was impossible. In the New Testament, when people were ensnared by the bondage of sin, God the Father sent His Son, who sacrificed Himself on the cross. Anyone wanting to escape the clutches of Satan and the deathly grip of sin had to look towards the crucified Lord with faith. To receive blessings from the cross, we must have faith in the Lord. It is not necessary to be physically near the cross, but we must imprint that cross on our hearts. The cross is the true means of our liberation from the clutches of the evil.

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)

📚 मनन-चिंतन -2

गणना 21:1-9 में, हम उस घटना के बारे में पढ़ते हैं जिसका उल्लेख आज के सुसमाचार में किया गया है। इस्राएली लोगों ने ईश्वर और मूसा के विरुद्ध भुनभुनाया और प्रभु ने लोगों के बीच जहरीले सांप भेजे, और उन्होंने लोगों को डस लिया; बहुत से इस्राएली मर गए। जब मूसा ने लोगों के लिथे प्रार्यना की, और ईश्वर की आज्ञा के अनुसार उन्होंने काँसे का एक सर्प बनवाकर खम्भे पर लटकाया; और जब कोई सांप किसी को डसता, तब वह काँसे के सांप को देखता और जीवित रहता। येसु लोगों को यह बताना चाहते हैं कि क्रूस पर उनकी की मृत्यु प्रतीकात्मक रूप से रेगिस्तान में काँसे के सर्प की घटना में प्रकट की गयी है। इब्रानियों के नाम पत्र कहता है, "जब विश्वास के साक्षी इतनी बड़ी संख्या में हमारे चारों ओर विद्यमान हैं, तो हम हर प्रकार की बाधा दूर कर अपने को उलझाने वाले पाप को छोड़ कर और ईसा पर अपनी दृष्टि लगा कर, धैर्य के साथ उस दौड़ में आगे बढ़ते जायें, जिस में हमारा नाम लिखा गया है। ईसा हमारे विश्वास के प्रवर्तक हैं और उसे पूर्णता तक पहुँचाते हैं। उन्होंने भविष्य में प्राप्त होने वाले आनन्द के लिए क्रूस पर कष्ट स्वीकार किया और उसके कलंक की कोई परवाह नहीं की। अब वह ईश्वर के सिंहासन के दाहिने विराजमान हैं।” (इब्रानियों 12:1-2) हम क्रूस पर टंगे येसु को देख कर “अपने को उलझाने वाले पाप” पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। भले डाकू की तरह, आइए हम क्रूस पर चढ़ाए गए प्रभु को देखें और कहें, "येसु! जब आप अपने राज्य में आयेंगे, तो मुझे याद कीजिएगा " (लूकस 23:42)।

- फ़ादर फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

In Num 21:1-9, we read about the incident referred to in the Gospel of today. The people of Israel spoke against God and Moses and the Lord sent poisonous serpents among the people, and they bit the people, so that many Israelites died. When Moses prayed for his people and at the command of the Lord he made a bronze serpent and put it upon a pole; and whenever a serpent bit someone, that person would look at the serpent of bronze and live.” Jesus refers to his own death on the cross as already symbolically present in the incident of the bronze serpent in the desert. The Letter to the Hebrews says, “Therefore, since we are surrounded by so great a cloud of witnesses, let us also lay aside every weight and the sin that clings so closely, and let us run with perseverance the race that is set before us, looking to Jesus the pioneer and perfecter of our faith, who for the sake of the joy that was set before him endured the cross, disregarding its shame, and has taken his seat at the right hand of the throne of God.” (Heb 12:1-2) We can overcome the “sin that clings so closely” by looking at Jesus on the Cross. Like the good thief, let us look at the Crucified Lord and say, “Jesus, remember me when you come into your kingdom” (Lk 23:42).

-Fr. Francis Scaria

📚 मनन-चिंतन-3

सम्राट कॉन्स्टेंटाइन की मां, संत हेलेना द्वारा येसु के वास्तविक क्रूस के अवशेषों की खोज 14 सितंबर, 320 को की गई। उस घटना का वार्षिक स्मरणोत्सव तब से मनाया जाता आ रहा है। येसु के समय में 'क्रूस की विजय' इस अभिव्यक्ति का शायद ही कुछ अर्थ कोई समझ पता होगा। क्योंकि क्रूस पर मौत किसी की महिमा अथवा सम्मान, को नहीं दर्शाता अपितु इसके विपरीत क्रूस पर मृत्यु सबसे शर्मनाक मौत थी, यह तो महिमा, सम्मान और प्रतिष्ठा की पूर्ण अनुपस्थिति थी। पर जो पर्व आज हम मना रहे हैं वह यही है 'क्रूस की विजय का पर्व।' येसु, सूली पर चढ़ाए गए, और विजय हुए। यह घृणा पर प्रेम की विजय थी।

जैसा कि संत योहन आज के सुसमाचार में बताते हैं - ईश्वर ने संसार को इतना प्यार किया कि उसने इसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया, जिससे जो उस में विश्वास करता हे, उसका सर्वनाश न हो, बल्कि अनन्त जीवन प्राप्त करे। यीशु ने अपने वचनो और कार्यों के द्वारा ईश्वर के प्रेम का खुलासा किया, और इस प्रेम को उन्होंने पूरी तरह से क्रूस पर प्रकट किया। संत योहन कहते हैं कि क्रूस पर येसु ने ईश्वर की महिमा को प्रकट किया। सच्चा प्रेम हमेशा जीवन देने वाला होता है और यही ईश्वर के प्रेम की विशेषता है।

घृणा पर प्रेम की विजय होने के साथ-साथ, यीशु का क्रूस-मरण जीवन की विजय है। येसु को सबसे क्रूर तरीके से मारा गया, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद वे एक नए जीवन में प्रवेश करते हैं और अपने पुनरुत्थान द्वारा हम सबों को जीवन प्रदान करते हैं। संत योहन के सुसमाचार में येसु की बगल से बहने वाला रक्त और जल हमें उस जीवन के बारे में बताता है जो येसु की मृत्यु के दौरान बहता है और हमें अनंत जीवन देता है। विभिन्न कलाकारों ने क्रूस को जीवन के वृक्ष के रूप में दर्शाया है । क्रूस की विजय, जो ईश्वर की विजय है और येसु की शैतान और बुराई और मृत्यु की सभी शक्तियों पर विजय है, यही एक विजय है,जिसमें हम सभी भागिदार हैं। येसु ने क्रूस पर से हम सभी को परमेश्वर के प्रेम और जीवन की ओर खींचा है । जैसा कि वह योहन के सुसमाचार में कहते हैं - और मैं, जब पृथ्वी के ऊँपर उठाया जाऊँगा तो सब मनुष्यों को अपनी ओर आकर्षित करूँगा।

हम इस व विजयमान क्रूस को गले लगाएं और हमारी मुक्ति के इस साधन की आध्यात्मिकता को आत्मसात करें और अपना निजी क्रूस उठाकर येसु का अनुसरण करें।

- फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

On September 14, 320, the relics of the real cross of Jesus were discovered by Saint Helena, the mother of Emperor Constantine. The annual commemoration of that event has been celebrated since then, as the Feast of the Exaltation of the Cross or the victory or the triumph of the Holy Cross. In Jesus' time, the expression 'Victory of the Cross' hardly could make any sense, because death on the cross does not signify one's glory or honor, but on the contrary death on the cross was the most shameful death, it was a complete absence of glory, honor and dignity. But the feast, we are celebrating today is the feat of the Victory of the Cross.' Jesus was crucified, and he conquered: It was the victory of love over hatred.

As St. John says in today's gospel - “For God so loved the world that he gave his only Son, so that everyone who believes in him may not perish but may have eternal life.” Jesus revealed the love of God through his words and actions, and he fully revealed this love on the cross. St. John says that Jesus revealed the glory of God on the cross. True love is always life-giving and this is the specialty of God's love. Along with the triumph of love over hatred, Jesus' death on the Cross is the triumph of life. Jesus is killed in the cruelest way, but after his death he enters a new life and through his resurrection gives life to all of us. The blood and water flowing from the side of Jesus in the Gospel of St. John tells us about the life that flows during the death of Jess and gives us eternal life. Various artists have depicted the cross as a tree of life. The victory of the Cross is the victory of God, over Satan and all the forces of evil and death. From the Cross, Jesus has drawn all of us to the love and life of God, as he says in the Gospel of John – “When I am lifted up from the earth, will draw all people to myself.” (Jn12:32) Let us embrace this victorious Cross and imbibe the spirituality of this instrument of our salvation and follow Jesus by taking up our personal cross.

-Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)