17) मैं ये आदेश देते हुए इस पर अपना असन्तोष प्रकट करना चाहता हूँ कि आपकी सभाओं से आप को लाभ से अधिक हानि होती है।
18) पहली बात तो यह है कि मेरे सुनने में आया कि जब आपके यहाँ धर्मसभा होती है, तो दलबन्दी स्पष्ट हो जाती है और मैं एक सीमा तक उस पर विश्वास भी करता हूँ।
19) आप लोगों में फूट होना एक प्रकार से अनिवार्य है, जिससे यह स्पष्ट हो जाये कि आप में कौन से लोग खरे हैं।
20) आप लोग जिस तरह सभा के लिए एकत्र होते हैं, वह प्रभु-भोज कहलाने योग्य नहीं;
21) क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति झटपट अपना-अपना भोजन खाने में लग जाता है। इस तरह कोई भूखा रह जाता है और कोई ज़रूरत से ज्यादा पीता है।
22) क्या खाने पीने के लिए आपके अपने घर नहीं हैं? या क्या आप ईश्वर की कलीसिया का तिरस्कार करना और दरिद्रों को नीचा दिखाना चाहते हैं? मैं आप लोगों से क्या कहूँ? क्या मैं आपकी प्रशंसा करूँ? मैं इस बात के लिए आपकी प्रशंसा नहीं कर सकता।
23) मैंने प्रभु से सुना और आप लोगों को भी यही बताया कि जिस रात प्रभु ईसा पकड़वाये गये, उन्होंने रोटी ले कर
24) धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ी और उसे तोड़ कर कहा-यह मेरा शरीर है, यह तुम्हारे लिए है। यह मेरी स्मृति में किया करो।
25) इसी प्रकार, ब्यारी के बाद उन्होंने प्याला ले कर कहा- यह प्याला मेरे रक्त का नूतन विधान है। जब-जब तुम उस में से पियो, तो यह मेरी स्मृति में किया करो।
26) इस प्रकार जब-जब आप लोग यह रोटी खाते और वह प्याला पीते हैं, तो प्रभु के आने तक उनकी मृत्यु की घोषणा करते हैं।
33) इसलिए, भाइयों! जब आप प्रभु-भोज के लिए एकत्र हों, तो एक दूसरे की प्रतीक्षा करें।
1) जनता को अपने ये उपदेश सुनाने के बाद ईसा कफ़रनाहूम आये।
2) वहाँ एक शतपति का अत्यन्त प्रिय नौकर किसी रोग से मर रहा था।
3) शतपति ने ईसा की चर्चा सुनी थी; इसलिए उसने यहूदियों के कुछ प्रतिष्ठित नागरिकों को ईसा के पास यह निवेदन करने के लिए भेजा कि आप आ कर मेरे नौकर को बचायें।
4) वे ईसा के पास आ कर आग्रह के साथ यह कहते हुए उन से विनय करते रहे, "वह शतपति इस योग्य है कि आप उसके लिए ऐसा करें।
5) वह हमारे राष्ट्र से प्रेम करता है और उसी ने हमारे लिए सभागृह बनवाया।"
6) ईसा उनके साथ चले। वे उसके घर के निकट पहुँचे ही थे कि शतपति ने मित्रों द्वारा ईसा के पास यह कहला भेजा, "प्रभु! आप कष्ट न करें, क्योंकि मैं इस योग्य नहीं हूँ कि आप मेरे यहाँ आयें।
7) इसलिए मैने अपने को इस योग्य नहीं समझा कि आपके पास आऊँ। आप एक ही शब्द कह दीजिए और मेरा नौकर चंगा हो जायेगा।
8) मैं एक छोटा-सा अधिकारी हूँ। मेरे अधीन सिपाही रहते हैं। जब मैं एक से कहता हूँ- ’जाओ’, तो वह जाता है और दूसरे से- ’आओ’, तो वह आता है और अपने नौकर से-’यह करो’, तो वह यह करता है।"
9) ईसा यह सुन कर चकित हो गये और उन्होंने पीछे आते हुए लोगों की ओर मुड़ कर कहा, "मै तुम लोगों से कहता हूँ- इस्राएल में भी मैंने इतना दृढ़ विश्वास नहीं पाया"।
10) और भेजे हुए लोगों ने घर लौट कर रोगी नौकर को भला-चंगा पाया।
आज के सुसमाचार में उल्लेखित शतपति बड़ा ही दिलचस्प व्यक्ति है। एक तरफ तो वह ऐसा व्यक्ति है जो सौ सैनिकों का मुखिया है, उसके पास शक्ति और आदर सम्मान है। वह किसी को भी कुछ भी आदेश दे सकता है और वे उसे पूरा करने के लिए जी जान लगा देंगें। उसके एक बीमार नौकर की उसके लिए कोई अहमियत नहीं है। उसके नौकर का स्थान उसके अधीन सैनिकों के भी बाद आता है, लेकिन फिर भी वह अपने उस तुच्छ नौकर को इतना प्यार करता है, उसका इतना ख्याल रखता है कि प्रभु से उससे चंगा करने का आग्रह करता है। उसका विश्वास इससे प्रकट होता है कि वह सौ सैनिकों और अनेक नौकरों का अधिपति होते हुए भी अपने आप को इतना अयोग्य समझता है कि वह प्रभु का अपने घर में स्वागत कर सके। उसके द्वारा कहे गए विश्वासपूर्ण वे शब्द अमर बन गए और संसार भर के ख्रिस्तीयों के लिए एक आत्मिक प्रार्थना बन गए। प्रभु ने सच ही कहा है - “धन्य हैं वे जो विनम्र हैं उन्हें प्रतिज्ञात देश प्राप्त होगा।”
✍फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)The centurion mentioned in today’s Gospel is a fascinating character. On one hand, he is a person of significant authority, commanding a hundred soldiers and enjoying power and respect. He can issue commands, and his soldiers will go to great lengths to fulfill them. The position of his sick servant is insignificant compared to that of his soldiers, yet he cares for his humble servant so deeply that he requests the Lord to heal him. His faith is evident in that, despite being a commander of many, he considers himself so unworthy that he feels unfit to have the Lord come to his house. His words of faith have become immortal and serve as a spiritual prayer for Christians around the world. The Lord truly said, “Blessed are the meek, for they will inherit the earth.”
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)
क्या हम विश्वास और अपेक्षित विश्वास के साथ प्रभु येसु के पास जाते हैं? एक रोमन अधिकारी साहसपूर्वक येसु के पास आकर उनसे विश्वासपूर्वक अनुरोध करता है। किस बात ने उसे विश्वास दिलाया कि येसु उसका अनुरोध स्वीकार करेंगे और उसके प्रति अनुकूल कार्य करेंगे? एक सच्चे सैनिक की तरह, वह कमान की शक्ति को जानता था। और उसने येसु को चंगा करने और जीवन को पुनर्स्थापित करने की ईश्वर की शक्ति और दया दोनों को देखा था।
सैनिक अधिकारी न केवल साहसी था, बल्कि विश्वास से भी भरा था। वह इतने ऊँचे पद का अधिकारी होने के बावजूद भी स्वयं को प्रभु के सामने दीन बनाता और आता है। यह सूबेदार विश्वास और नम्रता के साथ येसु के पास पहुंचा। संत आइस्टीन का कहना है कि अधिकारी ने खुद को अपने घर में ईश्वर को आने के लिए अयोग्य माना: "विनम्रता वह द्वार था जिसके माध्यम से प्रभु ने उस पर पूर्ण अधिकार करने के लिए प्रवेश किया, जिसके पास वह पहले से ही था।"
यह अधिकारी एक असाधारण व्यक्ति था क्योंकि वह अपने नौकर से प्यार करता था जो गंभीर रूप से बीमार हो गया था और वह उसकी जान बचाने के लिए वह सब कुछ करने के लिए तैयार था जो वह कर सकता था। वह अद्रितीय विश्वास का के एक असाधारण व्यक्ति थे। उनका मानना था कि येसु के पास अपने प्रिय दास को चंगा करने की शक्ति थी। येसु उसके विश्वास के लिए उसकी सराहना करते हैं और तुरंत उसके अनुरोध को स्वीकार करते हैं।
✍ - फादर रोनाल्ड वाँन
Do we approach the Lord Jesus with confident trust and expectant faith? A Roman centurion boldly sought Jesus with a daring request. What made him confident that Jesus would receive his request and act favourably towards him? Like a true soldier, he knew the power of command. And he saw in Jesus both the power and the mercy of God to heal and restore life.
The centurion was not only courageous, but faith-filled as well. He being the officer of such a high rank, humbled himself before the Lord and became a bagger. This centurion approached Jesus with confidence and humility. St. Augustine says that the centurion regarded himself as unworthy to receive the Lord into his house: "Humility was the door through which the Lord entered to take full possession of one whom he already possessed."
This centurion was an extraordinary man because he loved his servant who had become seriously ill and he was ready to do everything he could to save his life. The centurion was also an extraordinary man of faith. He believed that Jesus had the power to heal his beloved slave. Jesus commends him for his faith and immediately grants him his request.
✍ -Fr. Ronald Vaughan