12) मनुष्य का शरीर एक है, यद्यपि उसके बहुत-से अंग होते हैं और सभी अंग, अनेक होते हुए भी, एक ही शरीर बन जाते हैं। मसीह के विषय में भी यही बात है।
13) हम यहूदी हों या यूनानी, दास हों या स्वतन्त्र, हम सब-के-सब एक ही आत्मा का बपतिस्मा ग्रहण कर एक ही शरीर बन गये हैं। हम सबों को एक ही आत्मा का पान कराया गया है।
14) शरीर में भी तो एक नहीं, बल्कि बहुत-से अंग हैं।
27) इसी तरह आप सब मिल कर मसीह का शरीर हैं और आप में से प्रत्येक उसका एक अंग है।
28) ईश्वर ने कलीसिया में भिन्न-भिन्न लोगों को नियुक्त किया है- पहले प्रेरितों को, दूसरे भविष्यवक्ताओं को, तीसरे शिक्षकों और तब चमत्कार दिखाने वालों को। इसके बाद स्वस्थ करने वालों, परोपकारकों, प्रशासकों, अनेक भाषाएँ बोलने वालों को।
29) क्या सब प्रेरित हैं? सब भविष्यवक्ता हैं? सब शिक्षक हैं? सब चमत्कार दिखने वाले हैं? सब भाषाएँ बोलने वाले हैं? सब व्याख्या करने वाले हैं?
30) सब स्वस्थ करने वाले हैं? सब भाषाएँ बोलने वाले हैं? सब व्याख्या करने वाले हैं?
31) आप लोग उच्चतर वरदानों की अभिलाषा किया करें। मैं अब आप लोगों को सर्वोत्तम मार्ग दिखाता चाहता हूँ।
11) इसके बाद ईसा नाईन नगर गये। उनके साथ उनके शिष्य और एक विशाल जनसमूह भी चल रहा था।
12) जब वे नगर के फाटक के निकट पहुँचे, तो लोग एक मुर्दे को बाहर ले जा रहे थे। वह अपनी माँ का इकलौता बेटा था और वह विधवा थी। नगर के बहुत-से लोग उसके साथ थे।
13) माँ को देख कर प्रभु को उस पर तरस हो आया और उन्होंने उस से कहा, "मत रोओ",
14) और पास आ कर उन्होंने अरथी का स्पर्श किया। इस पर ढोने वाले रूक गये। ईसा ने कहा, "युवक! मैं तुम से कहता हूँ, उठो"।
15) मुर्दा उठ बैठा और बोलने लगा। ईसा ने उसको उसकी माँ को सौंप दिया।
16) सब लोग विस्मित हो गये और यह कहते हुए ईश्वर की महिमा करते रहे, "हमारे बीच महान् नबी उत्पन्न हुए हैं और ईश्वर ने अपनी प्रजा की सुध ली है"।
17) ईसा के विषय में यह बात सारी यहूदिया और आसपास के समस्त प्रदेश में फैल गयी।
पुराने व्यवस्थान से ही हम देखते हैं कि दरिद्रों, अनाथ और विधवाओं के प्रति ईश्वर के मन में एक विशेष स्थान है। उनका दुःख दर्द और कष्ट प्रभु के पास पहुंचते हैं। प्रभु उनकी पुकार को अनसुना नहीं करते। वे चाहते हैं कि हम भी उन निराश्रितों का ख्याल रखें। प्रभु येसु उस विधवा स्त्री के मनोभाव को भली-भांति समझते थे, और यह पहली बार नहीं था जब किसी के कष्ट को देखकर प्रभु व्यथित हुए हों। ईश्वर करुणा का सागर है। शायद उस विधवा स्त्री ने प्रभु से अपने पुत्र के लिए जीवन दान नहीं मांगा था, और न उन अर्थी ढोने वालों में किसी ने प्रभु से कोई अनुरोध किया था। लेकिन फिर भी प्रभु उस मृत युवक को पुनर्जीवित कर देते हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रभु हमारे कष्टों और हमारी आवश्यकताओं को जानते हैं, और स्वयं ही द्रवित होकर हमें उनसे छुटकारा दिलाना चाहते हैं, बशर्ते हम धीरज रखें और अपना जीवन प्रभु को सौंप दें।
✍फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)From the Old Testament, we see that God holds a special place in His heart for the poor, the orphans, and the widows. Their suffering and distress reach the Lord, who does not ignore their cries. He desires that we also care for those who are without support. The Lord Jesus fully understands the widow’s emotions, and this is not the first time He has been moved by someone's suffering. God is full of compassion. Perhaps the widow did not ask the Lord to grant life to her son, and none of those carrying the bier may have made a request to the Lord. Yet, Jesus on his own initiative revives the dead young man. This signifies that the Lord knows our sufferings and needs, and He wishes to deliver us from them with compassion, provided we remain patient and entrust our lives to Him.
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)
कई जगहों पर, सुसमाचार कहता है कि "येसु का हृदय द्रवित हो उठा" जब वह व्यक्तियों और भीड़ से मिले। एक विधवा के बेटे के भीड़ भरे अंतिम संस्कार के जुलूस के दौरान येसु इतने द्रवित क्यों थे। येसु ने न केवल एक युवक की असामयिक मृत्यु पर शोक व्यक्त किया, बल्कि उन्होंने उस महिला के लिए अपनी चिंता की गहराई दिखाई, जिसने न केवल अपने पति, बल्कि अपने इकलौते बच्चे को भी खो दिया। धर्मग्रंथ स्पष्ट करता है कि ईश्वर किसी की मृत्यु से प्रसन्न नहीं होता ( एजीकीयल 33:11) - वह जीवन चाहता है, मृत्यु नहीं। येसु में न केवल हृदय-अनुकंपा थी, बल्कि उसके पास असाधारण अलौकिक शक्ति भी थी - जीवन को बहाल करने और एक व्यक्ति को फिर से स्वस्थ करने की क्षमता।
येसु ने मृत शरीर की अर्थी को छुआ जो कि धार्मिक और सामाजिक रूप से अस्वीकार्य था। लेकिन येसु ने जानबूझकर ऐसा किया। अपने इकलौते बेटे को खोने वाली विधवा माँ के साथ उनके स्पर्श और व्यक्तिगत पहचान ने न केवल उनके प्रति उनकी करुणा की गहराई को दिखाया, बल्कि सभी को पाप और नैतिक भ्रष्टाचार, और यहां तक कि मृत्यु की शक्ति से मुक्त करने की उनकी इच्छा की ओर इशारा किय। प्रिय येसु, आपकी चंगाई दायक उपस्थिति जीवन ला सकती है और हमें मन, शरीर और आत्मा की पूर्णता में पुनर्स्थापित कर सकती है। अपने वचन के द्रारा मुझे जीवन के दुखों और खुशियों के बीच में आपका अनुसरण करने के लिए नई आशा, शक्ति और साहस प्रदान करें।
✍ - फादर रोनाल्ड वाँन
In a number of places, the Gospel says that Jesus was "moved to the depths of his heart" when he met with individuals and the crowd. Why was Jesus so moved on this occasion when he met a widow and a crowded funeral procession on their way to the cemetery? Jesus not only grieved the untimely death of a young man, but he showed the depth of his concern for the woman who lost not only her husband, but her only child as well.
The Scriptures make clear that God takes no pleasure in the death of anyone (see Ezekiel 33:11) - he desires life, not death. Jesus not only had heart-felt compassion, he also had extraordinary supernatural power - the ability to restore life and to make a person whole again. Jesus touched the bier of the dead body which was ritually and socially unacceptable. But Jesus did it on purpose. His physical touch and personal identification with the widow's loss of her only son not only showed the depths of his compassion for her but pointed to his desire to free everyone from the power of sin and moral corruption, and even death itself.
Jesus, may your healing presence bring life and restores us to wholeness of mind, body, and spirit. Speak your word to me and give me renewed hope, strength, and courage to follow you in the midst of life's sorrows and joys.
✍ -Fr. Ronald Vaughan