सितंबर 22, 2024, इतवार

वर्ष का पच्चीसवाँ सामान्य इतवार

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📒 पहला पाठ : प्रज्ञा 2:12अ, 17-20

12) "हम धर्मात्मा के लिए फन्दा लगायें, क्योंकि वह हमें परेशान करता और हमारे आचरण का विरोध करता है।

17) हम यह देखें कि उसका दावा कहाँ तक सच है; हम यह पता लगायें कि अन्त में उसका क्या होगा।

18) यदि वह धर्मात्मा ईश्वर का पुत्र है, तो ईश्वर उसकी सहायता करेगा और उसे उसके विरोधियों के हाथ से छुड़ायेगा।

19) हम अपमान और अत्याचार से उसकी परीक्षा ले, जिससे हम उसकी विनम्रता जानें और उसका धैर्य परख सकें।

20) हम उसे घिनौनी मृत्यु का दण्ड दिलायें, क्योंकि उसका दावा है, कि ईश्वर उसकी रक्षा करेगा।"


📒 दूसरा पाठ : याकूब 3:16-4:3

3:16) जहाँ ईर्ष्या और स्वार्थ है, वहाँ अशान्ति और हर तरह की बुराई पायी जाती है।

17) किन्तु उपर से आयी हुई प्रज्ञा मुख्यतः पवित्र है और वह शान्तिप्रिय, सहनशील, विनम्र, करुणामय, परोपकारी, पक्षपातहीन और निष्कपट भी है।

18) धार्मिकता शान्ति के क्षेत्र में बोयी जाती है और शान्ति स्थापित करने वाले उसका फल प्राप्त करते हैं।

4:1) आप लोगों में द्वेष और लड़ाई-झगड़ा क्यों? क्या इसका कारण यह नहीं है कि आपकी वासनाएं आपके अन्दर लड़ाई करती हैं?

2) आप अपनी लालसा पूरी नहीं कर पाते और इसलिए हत्या करते हैं। आप जिस चीज़ के लिए ईर्ष्या करते हैं, उसे नहीं पाते और इसलिए लड़ते-झगड़ते हैं। आप प्रार्थना नहीं करते, इसलिए आप लोगों के पास कुछ नहीं होता।

3) जब आप माँगते भी हैं, तो इसलिए नहीं पाते कि अच्छी तरह प्रार्थना नहीं करते। आप अपनी वासनाओं की तृप्ति के लिए धन की प्रार्थना करते हैं।


📒 सुसमाचार : मारकुस 9:30-37

30) वे वहाँ से चल कर गलीलिया पार कर रहे थे। ईसा नहीं चाहते थे कि किसी को इसका पता चले,

31) क्योंकि वे अपने शिष्यों को शिक्षा दे रहे थे। ईसा ने उन से कहा, "मानव पुत्र मनुष्यों के हवाले कर दिया जायेगा। वे उसे मार डालेंगे और मार डाले जाने के बाद वह तीसरे दिन जी उठेगा।"

32) शिष्य यह बात नहीं समझ पाते थे, किन्तु ईसा से प्रश्न करने में उन्हें संकोच होता था।

33) वे कफ़रनाहूम आये। घर पहुँच कर ईसा ने शिष्यों से पूछा, "तुम लोग रास्ते में किस विषय पर विवाद कर रहे थे?"

34) वे चुप रह गये, क्योंकि उन्होंने रास्ते में इस पर वाद-विवाद किया था कि हम में सब से बड़ा कौन है।

35) ईसा बैठ गये और बारहों को बुला कर उन्होंने उन से कहा, "जो पहला होना चाहता है, वह सब से पिछला और सब का सेवक बने"।

36) उन्होंने एक बालक को शिष्यों के बीच खड़ा कर दिया और उसे गले लगा कर उन से कहा,

37) "जो मेरे नाम पर इन बालकों में किसी एक का भी स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है और जो मेरा स्वागत करता है, वह मेरा नहीं, बल्कि उसका स्वागत करता है, जिसने मुझे भेजा है।"

📚 मनन-चिंतन

पहले पाठ में बुरे लोग अपनी बुराई को सही ठहराते हैं। वे ईश्वर भक्त या ईश्वर के सेवक पर अत्याचार करते हैं और उसकी परीक्षा लेते हैं। वे अपने द्वारा किए गए अत्याचार और अन्याय को धार्मिक कार्य और धर्म के लिए भला कार्य समझते हैं। यह तस्वीर आज की दुनिया से ज्यादा भिन्न नहीं है। आज भी जो व्यक्ति भला कार्य करता है, ईश्वरीय ज्ञान फैलाता है, मानव सेवा का संदेश देता है तो बहुत सारे लोग उस पर तरह-तरह के लांछन लगाते हैं, उसे झूठे अपराधों में फँसा देते हैं, उस पर अत्याचार करते हैं, और ऐसा करते समय वे ये सोचते हैं कि वे धर्म का कार्य कर रहे हैं। ऐसा करने से उन्हें पुण्य मिलेगा। जो व्यक्ति सत्य और ईश्वर के रास्ते पर चलना चाहता है, उसे इस तरह के अत्याचार और अन्याय का सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। प्रभु येसु अपने दुखभोग की भविष्यवाणी में इस बात को स्पष्ट कर देते हैं। आखिर उनका अपराध क्या था जो उन्हें ऐसी क्रूर मृत्यु मिली? कठोर अपराधियों जैसी मृत्यु दिलाने के लिए कौन जिम्मेदार था? अगर हम देखें तो वे धार्मिक नेता थे जिन्होंने प्रभु येसु को मृत्युदण्ड दिलवाया। भले ही वे निष्पाप और निर्दोष व्यक्ति को सजा दिलवाकर अन्याय कर रहे थे, अत्याचार कर रहे थे, लेकिन इसे वे ईश्वर का कार्य मानते थे, एक धार्मिक और पुण्य का कार्य मानते थे। जब गुरु के साथ लोगों ने ऐसा किया तो शिष्य उस अन्याय और अत्याचार से कैसे बच सकते हैं? इसलिए प्रभु येसु के पद चिन्हों पर चलना इतना आसान नहीं है। इसके लिए बहुत तपस्या करनी पड़ेगी। लेकिन हमारे लिए प्रभु की कृपा ही पर्याप्त है।

फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)

📚 REFLECTION


In the first reading of today, we see that the wicked justify their evil actions. They oppress and test those who are devout or serve God, believing that their acts of cruelty and injustice are righteous and religious. We see similar situation in the world of today. Even now, those who do good, spread God’s message of love, and promote humanitarian service often face various accusations, false charges, and oppression. Those who inflict such wrongs may think they are performing a religious duty and gaining merit. Anyone who wishes to walk the path of truth and God must be prepared to face such injustice and oppression. Jesus clearly outlines this in His foretelling about his passion and death on the cross. What was His crime that led to such a brutal death? Who was responsible for inflicting a criminal’s death upon Him? If we look closely, it was the religious leaders who sentenced Jesus to death. Although they were committing injustice and cruelty by condemning an innocent person, they believed they were carrying out God's work, a religious and meritorious act. If people did this to their Master, how can the disciples expect to escape such injustice and oppression? Therefore, following in the footsteps of Jesus is not easy and requires much penance. Yet, the Lord’s grace is sufficient for us.

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)

📚 मनन-चिंतन - 2

संत मदर तेरेसा कहती है, ‘‘विनम्रता सभी गुणों की जननी है; पवित्रता, दान और आज्ञाकारिता। विनम्र होने से ही हमारा प्रेम वास्तविक, समर्पित और उत्साही बनता है। यदि तुम विनम्र हो तो कुछ भी आपको परेशान नही कर सकता, न ही प्रशंसा और न ही अपमान, क्योंकि आप जानते हैं कि आप क्या हैं।’’ विनम्रता को सभी गुणों की शुरूआत माना जाता है। विनम्रता एक ऐसा गुण है जो हर एक को संतो के जीवन की ओर अ्रग्रसर करता है। प्रभु येसु ने निरंतर अपने वचनों में विनम्र बनने की शिक्षा प्रदान की है। क्यांेकि वह जानते थे कि मनुष्यों में एक बहुत ही प्रबल प्रवृत्ति है वह है अपने को बड़ा मानना, लोगो की बीच मंे महान समझा जाना। दूसरों की नजरों में बड़ें बनने की प्रवृत्ति हमारे स्वार्थ को बतलाती है जहॉं पर हम सिर्फ अपने विषय में सोचते है। यह स्वार्थ तभी दूर हो सकती जब हम अपने को छोड़ ईश्वर के बारे में सोचे, उन्हे अपने जीवन का कर्ता समझे तब जाकर हमारे अंदर विनम्रता का गुण उत्पन्न होगा।

हर कोई अपने को बड़ा बनना चाहता है या ऊॅंचा पद पाना चाहता है परंतु प्रभु बताते है बड़ा वही बन सकता है जो अपने को सबसे पिछला और सबका सेवक बनाये अर्थात् अपने को विनम्र बनाये। प्रभु कहना चाहते है जो व्यक्ति विनम्रता से परिपूर्ण है वही सच्चाई में महान है। संत याकूब 4ः10 में कहते है, ‘‘प्रभु के सामने दीन-हीन बनें और वह आप को ऊॅंचा उठायेगा।’’ हमें ऊपर उठाने वाला हमें बड़ा बनाने वाला प्रभु है और जो व्यक्ति अपने को विनम्रता बनाता है वह प्रभु की कृपा पाने के लिए अपने को योग्य बनाता है।

बाईबिल मूसा के बारे में बताती है, ‘‘मूसा अत्यन्त विनम्र था। वह पृथ्वी के सब मनुष्यों में सब से अधिक विनम्र था। (गणना 12ः3) व्यक्ति की सच्ची पहचान दुख या तकलीफ में होती है, जिस प्रकार प्रज्ञा ग्रंथ में लिखा है, ‘‘हम अपमान और अत्याचार से उसकी परीक्षा ले, जिससे हम उसकी विनम्रता जाने और उसका धैर्य परख सकें।’’ मूसा के सामने भी कई परेशानियॉं आयी और उसे विनम्रता में आगे बढ़ने में मदद करी जिस प्रकार प्रवक्ता ग्रंथ 2ः5 में लिखा है, ‘‘अग्नि में स्वर्ण की परख होती है और दीन-हीनता की घरिया में ईश्वर के कृपापात्रों की।’’ आईये हम विनम्रता का गुण अपने जीवन में अपनायें।

फादर डेन्नीस तिग्गा

📚 REFLECTION


Saint Mother Teresa said, “Humility is the mother of all virtues; purity, charity and obedience. It is in being humble that our love becomes real, devoted and ardent. If you are humble nothing will touch you, neither praise nor disgrace, because you know what you are.” Humility is known to be the starting of all virtues. Humility is that virtue which leads a person towards the life of a Saint. Lord Jesus in his words taught many times to be humble; because he knew that in humans there is a strong tendeny to make oneself great, to be called great among others. The tendency to become great in front of others tells about the selfishness in us where we only think about oneself. This selfishness can be removed only when we think about God instead of oneself, to acknowledge him to be the doer of our lives then only the virtue of humility will grow within us.

Everyone wants to become great or to reach great position but Lord tells that only that person can become great who makes himself to be the very last and the servant of all that is to say to make oneself a humble person. Lord wants to tell that a person who is filled with humility is great in the real sense. St James says in 4:10, “Humble yourselves before the Lord and he will lift you up.” Making us great and lifting us up is upto God and one who makes himself a humble being he/she makes oneself worthy to receive God’s grace.

Bible tells about Moses, “Moses was a very humble man, more humble than anyone else on the face of the earth” (Num 12:3). The reality of person comes during the time of troubles and sorrows, as it is written in book of Wisdom, “Let us test him with cruelty and with torture, and thus explore this gentleness of his and put his patience to the test.” Many challenges came in front of Moses which helped him to grow in humility as it is written in Sirach 2:5, “For gold is tested in the fire, and those found acceptable, in the furnace of humiliation. Let’s imbibe the virtue of humility in our lives.

-Fr. Dennis Tigga