सितंबर 25, 2024, बुधवार

वर्ष का पच्चीसवाँ सामान्य सप्ताह

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📒 पहला पाठ : सुक्ति 30:5-9

5) ईश्वर की प्रत्येक प्रतिज्ञा विश्वसनीय है। ईश्वर अपने शरणार्थियों की ढाल है।

6) उसके वचनों में अपनी और से कुछ मत जोड़ो, कहीं ऐसा न हो कि वह तुम को डाँटे और झूठा प्रमाणित करे।

7) मैं तुझ से दो वरदान माँगता हूँ, उन्हे मेरे जीवनकाल में ही प्रदान कर।

8) मुझ से कपट और झूठ को दूर कर दे। मुझे न तो गरीबी दे और न अमीरी- मुझे आवश्यक भोजन मात्र प्रदान कर।

9) कहीं ऐसा न हो कि मैं धनी बन कर तुझे अस्वीकार करते हुए कहूँ "प्रभु कौन है?" अथवा दरिद्र बन कर चोरी करने लगूँ और अपने ईश्वर का नाम कलंकित कर दूँ।


📒 सुसमाचार :लूकस 9:1-6

1) ईसा ने बारहों को बुला कर उन्हें सब अपदूतों पर सामर्थ्य तथा अधिकार दिया और रोगों को दूर करने की शक्ति प्रदान की।

2) तब ईसा ने उन्हें ईश्वर के राज्य का सुसमाचार सुनाने और बीमारों को चंगा करने भेजा।

3) उन्होंने उन से कहा, "रास्ते के लिए कुछ भी न ले जाओ-न लाठी, न झोली, न रोटी, न रुपया। अपने लिए दो कुरते भी न रखो।

4) जिस घर में ठहरने जाओ, नगर से विदा होने तक वहीं रहो।

5) यदि लोग तुम्हारा स्वागत न करें, तो उनके नगर से निकलने पर उन्हें चेतावनी देने के लिए अपने पैरों की धूल झाड़ दो।"

6) वे चले गये और सुसमाचार सुनाते तथा लोगों को चंगा करते हुए गाँव-गाँव घूमते रहे।

📚 मनन-चिंतन

हमारे जीवन जीने के दो पहलू होते हैं - कथनी और करनी; अर्थात हमारे शब्द या वचन और हमारे कार्य। इन दोनों में आपस में सामंजस्य होना चाहिए नहीं तो लोग हमारी बात नहीं सुनेंगे। प्रभु येसु अपने शिष्यों को शक्ति और अधिकार देकर सुसमाचार प्रचार के लिए भेजते हैं। उनको लोगों को सुसमाचार सुनना था और चंगाई प्रदान करनी थी। जब तक वे खुद उसे जियेंगे नहीं तब तक कोई भी उनकी बातों पर विश्वास नहीं करता। इसलिए प्रभु येसु उन्हें अपनी यात्रा और मिशन कार्य के लिए ईश्वर पर निर्भर रहने का आदेश देते हैं। शिष्यों का जीवन और व्यवहार प्रभु येसु की शिक्षाओं का प्रमाणीकरण था, गवाही थी। प्रभु येसु के शिष्य होने के नाते हमें भी प्रभु येसु ने मिशन प्रदान किया है, और उसे पूरा करने का तरीका वही है जो शिष्यों को बताया गया था। क्या हम पूर्ण रूप से ईश्वर पर निर्भर हैं? क्या हम प्रभु येसु की शिक्षाओं का अपने जीवन एवं व्यवहार द्वारा प्रकट और प्रमाणित करते हैं?

फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)

📚 REFLECTION


Our lives have two aspects—words and actions; that is, our speech or words that we speak and our deeds. There should be harmony between these two; otherwise, people will not listen to us. The Lord sends His disciples to preach the Gospel, empowering them with strength and authority. They were to share the Gospel and heal the people. Until they live the message themselves, no one will believe their words. Therefore, the Lord instructs them to depend on God for their journey and mission work. The lives and behavior of the disciples were a testament to the teachings of Jesus. As disciples of the Lord, we too have been given a mission, and the way to fulfill it is the same as what was told to the disciples. Are we completely dependent on God? Do we express and testify the teachings of the Lord Jesus through our lives and behavior?

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)

📚 मनन-चिंतन - 2

आज के सुसमाचार पाठ में जब येसु अपने शिष्यों मिशन पर भेजते है, तो वे उन्हें कम से कम सामान के साथ की यात्रा करने की हिदायत हैं। ऐसा कहकर वे उन्हें खुद पर ज़्यादा निर्भर न रहकर ईश्वर और उन लोगों के आतिथ्य पर निर्भर रहने के लिए कहते हैं, जिनको सुसमाचार सुनाते हैं। खुद पर अत्यधिक निर्भर होने के बजाय, ईश्वर पर भरोसा करने से हम सांसारिकता से खुद को दूर रखेंगे और अपना मन-ध्यान प्रभु और उनके वचनों पर लगाएंगे। कभी-कभी संसांरिक शक्तियों जैसे धन -दौलत, पद या फिर शारीरिक ताकत लोगों को इस भ्रम में डाल देती है कि वे अपने आप में पूर्ण हैं और उन्हें किसी की ज़रूरत नहीं।

आज का सुसमाचार हमें याद दिलाता है कि हम कभी भी पूरी तरह से खुद पर निर्भर नहीं हो सकते। हमने पाने जीवन के शुरुआत ही पूरी तरह से दूसरों पर निर्भर रहते हुए शुरू की है, और जैसे-जैसे हम अपने जीवन के अंत की ओर आते हैं हम एक बार फिर खुद को दूसरों पर पूरी तरह से निर्भर पाते हैं। और पूर्ण- निर्भरता के इन दो मुकामों के बीच की ज़िन्दगी में भी, हम कई प्रकार से दूसरों पर निर्भर रहना जारी रखते हैं। अपने पूरे जीवन में हम दूसरों पर निर्भर रहते हैं कि दूसरे लोग हमें वो चीज़ें दे जो हमारे पास नहीं और हम उन चीजों के लिए उनपर निर्भर रहते हैं जो हमारे पास नहीं।

प्रभु हमेशा हमें उस सेवा के लिए खुले रहने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं जो वह हमें, दूसरों के माध्यम से प्रदान करता है। हम में से प्रत्येक को देने के लिए बहुत कुछ है और प्राप्त करने के लिए बहुत कुछ है। जो प्रभु, हमारे माध्यम से दूसरों की सेवा करना चाहता है, वह दूसरों के माध्यम से हमारी भी सेवा करना चाहता है। तो आइये हमारे जीवन में खुद पर ही भरोसा ना करके ईश्वर और ईश्वर द्वारा हमें दिए गए लोगों और संसाधनों पर भरोसा करें और ईश्वर के वचन की सेवा में लगे रहें।

- फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

In today's Gospel, when Jesus sends his disciples on a mission, He instructs them to travel with very little luggage. By saying this, He tells them not to depend too much on themselves but to depend on the providence of God and the hospitality of the people to whom they preach the Gospel. Instead of relying too much on ourselves, trusting in God will keep us away from worldliness and will help to focus our attention on the Lord and His words. Sometimes the worldly powers such as money, position or physical strength mislead people that they are complete in themselves and that they do not need anyone.

Today's gospel reminds us that we can never be completely self-sufficient. We began our life completely depending on others, and as we come to the end of our lives we once again find ourselves completely dependent on others. And even in the life between these two polar positions of complete dependence, we continue to depend on others in many ways. Throughout our lives we depend on others to give us things that we do not have.

The Lord invites us to be open to the service that He provides to us, through others. Each of us has so much to give and so much to receive. The Lord, who wants to serve others through us, also wants to serve us through others. So, instead of trusting arrogantly, on ourselves, let us trust God and the people and resources given to us by God and continue to serve the Word of God with whatever way we can.

-Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)