1) पृथ्वी पर हर बात का अपना वक्त और हर काम का अपना समय होता है:
2) प्रसव करने का समय और मरने का समय; रोपने का समय और पौधा उखाड़ने का समय;
3) मारने का समय और स्वस्थ करने का समय; गिराने का समय और उठाने का समय;
4) रोने का समय और हँसने का समय; विलाप करने का समय और नाचने का समय;
5) पत्थर बिखेरने का समय और पत्थर एकत्र करने का समय; आलिंगन करने का समय और आलिंगन नहीं करने का समय;
6) खोजने का समय और खोने का समय; अपने पास रखने का समय और फेंक देने का समय;
7 फाड़ने का समय और सीने का समय; चुप रहने का समय और बोलने का समय;
8) प्यार करने का समय और बैर करने का समय; युद्ध का समय और शान्ति का समय।
9) मनुष्य को अपने सारे परिश्रम से क्या लाभ ?
10) ईश्वर ने मनुष्यों को जो कार्य सौंपा है, मैंने उस पर विचार किया।
11) उसने सब कुछ उपयुक्त समय के अनुसार सुन्दर बनाया है। उसने मनुष्य को भूत और भविष्य का विवेक दिया है; किन्तु ईश्वर ने प्रारम्भ से अन्त तक जो कुछ किया, उसे मनुष्य कभी नहीं समझ सका।
18) ईसा किसी दिन एकान्त में प्रार्थना कर रहे थे और उनके शिष्य उनके साथ थे। ईसा ने उन से पूछा, "मैं कौन हूँ, इस विषय में लोग क्या कहते हैं?"
19) उन्होंने उत्तर दिया, "योहन बपतिस्ता; कुछ लोग कहतें-एलियस; और कुछ लोग कहते हैं-प्राचीन नबियों में से कोई पुनर्जीवित हो गया है"।
20) ईसा ने उन से कहा, "और तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ?" पेत्रुस ने उत्तर दिया, "ईश्वर के मसीह"।
21) उन्होंने अपने शिष्यों को कड़ी चेतावनी दी कि वे यह बात किसी को भी नहीं बतायें।
22) उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, "मानव पुत्र को बहुत दुःख उठाना होगा; नेताओं, महायाजकों और शास्त्रियों द्वारा ठुकराया जाना, मार डाला जाना और तीसरे दिन जी उठना होगा"।
प्रभु येसु को जानने और उन्हें अनुभव करने में बहुत अंतर है। आज की दुनिया में प्रभु येसु के बारे जानकारी से दुनिया भरी पड़ी है। उनके बारे में बड़े-बड़े विद्वानों ने बहुत कुछ लिखा है, उन पर शोध किए हैं। लेकिन जो ज्ञान प्रभु को अनुभव करने के बाद हमें मिलता है, वह कहीं और नहीं मिल सकता। आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि पहले तो शिष्य दूसरे लोगों कि राय बताते हैं कि लोग उनके बारे में क्या कहते हैं। और बाद में वे शिष्यों की राय भी लेते हैं। उनके शिष्य हमेशा उनके साथ थे इसलिए प्रभु येसु उनसे आशा करते थे कि उनका ज्ञान और अधिक गहरा होगा, क्योंकि जो ज्ञान प्रभु के साथ रहने के अनुभव से मिलता है उसकी तुलना करना कठिन है। हम अपने हृदय को जाँचें कि हमने प्रभु को कितनी गहराई से अनुभव किया है, और हम उन्हें कितना समझते हैं।
✍फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
There is a significant difference between knowing the Lord Jesus and experiencing Him. Today, the world is filled with information about the Lord Jesus. Great scholars have written extensively about Him and conducted research on His life. However, the knowledge we gain from experiencing the Lord is unparalleled. In today’s Gospel, we see that the disciples first share what others say about Him, and later they express their own opinions. Since the disciples were always with Him, the Lord expected that their understanding would be deeper, as the knowledge gained from being with Him is hard to compare with anything else. We should examine our hearts to see how deeply we have experienced the Lord and how well we truly understand Him.
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)
आपके लिए येसु कौन है? इस्राएल में कई लोगों ने येसु को ईश्वर के एक शक्तिशाली व्यक्ति के रूप में पहचाना, यहाँ तक कि उनकी तुलना महान नबियो से भी की। पेत्रुस, हमेशा उत्तर देने के लिए तत्पर था, उसने यह घोषित किया कि येसु ही वास्तव में मसीह है। कोई मनुष्य पेत्रुस को यह रहस्य नहीं बता सकता था, परन्तु केवल स्वंय ईश्वर। विश्वास की आँखों से, पेत्रुस ने समझ लिया कि येसु वास्तव में कौन थे। वह पहला प्रेरित था जिसने सार्वजनिक रूप से येसु को अभिषिक्त या मसीहा घोषित किया।
पेत्रुस विश्वास की परीक्षा तब हुई जब येसु ने समझाया कि मसीह के लिए दुःख उठाना और मर जाना आवश्यक है ताकि ईश्वर की मुक्ति का कार्य पूरा हो सके। यह शब्द सुनकर शिष्य चौंक गए। उन्होंने महसूस किया कि ईश्वर के विचार और तरीके हमारे विचारों और तरीकों से कितने अलग हैं! अपमान, पीड़ा, और क्रूस पर मृत्यु के द्वारा, येसु ने पाप और मृत्यु की शक्तियों को तोड़ा और हमारे लिए मुक्ति को प्राप्त किया। यदि हम मसीह की विजय में सहभागी होना चाहते हैं, तो हमें भी अपना क्रूस उठाकर, उसका अनुसरण करना चाहिए।
"क्रूस" क्या है? जब मेरी इच्छा ईश्वर की इच्छा से टकराती हो, तो ईश्वर इच्छा पूरी करना की क्रूस है । पवित्र आत्मा हमें व्यक्तिगत रूप से येसु को जानने के लिए विश्वास का वरदान देता है, तथा सुसमाचार को ईमानदारी से जीने की शक्ति, और दूसरों को इसके आनंद और सच्चाई को देखने का साहस देता है।
✍ - फादर रोनाल्ड वाँन
Who is Jesus for you? Many in Israel recognized Jesus as a mighty man of God, even comparing him with the greatest of the prophets. Peter, always quick to respond, professed that Jesus is truly the Christ. No mortal being could have revealed this to Peter, but only to God. Through the eyes of faith, Peter grasped who Jesus truly was. He was the first apostle to publicly recognize Jesus as the Anointed One; the Messiah or Christ.
Peter's faith, however, was tested when Jesus explained that it was necessary for the Messiah to suffer and die in order that God's work of redemption might be accomplished. The disciples were startled when they heard this word. They realized how different are God's thoughts and ways from our thoughts and ways! Through humiliation, suffering, and death on the cross, Jesus broke the powers of sin and death and won for us our salvation. If we want to share in Christ's victory, then we must also take up our cross and follow him where he leads us.
What is the "cross"? When my will crosses with God's will, then his will must be done. The Holy Spirit gives us the gift of faith to know Jesus personally, the power to live the gospel faithfully, and the courage to witness to others the joy and truth of the gospel.
✍ -Fr. Ronald Vaughan
जब शिष्यों यीशु की पीड़ा और विश्वासघात की भविष्यवाणी को सुना, तो वे उनसे और प्रश्न पूछने से डरते थे। जिस प्रकार एक व्यक्ति डॉक्टर से ट्यूमर या बीमारी के बारे में बुरी खबर प्राप्त करता है जिससे उसकी जान को खतरा है तो वह डॉक्टर से फिर कोई और प्रश्न पूछने से इंकार कर देता है, उसी प्रकार येसु के शिष्य संभावित पीड़ा, हार, और दुखभोग के परिणामों के बारे में और जानना नहीं चाहते थे। वे यह नहीं समझ सके कि क्रूस पर मृत्यु कैसे विजय दिला सकती है और मसीह में उन्हें नए जीवन और स्वतंत्रता की ओर ले जा सकता है।
अक्सर हम जिसे देखना नहीं चाहते उसे ठुकरा देते हैं। हम ईश्वर के वचन को सुनते हैं और हम इसे स्वीकार करने या अस्वीकार करने के परिणामों को जानते हैं। लेकिन क्या हम इसे अपनी पूरी प्रतिबद्धता देते हैं और उसके अनुसार अपने जीवन को ढालते हैं? हमें प्रभु येसु से उनकी शक्ति और महिमा के दर्शन कराने के निवेदन करने की आवश्यकता है ताकि हम उसके प्रति श्रद्धा और उसके वचन के प्रति ईश्वरीय श्रद्धा में बढ़ सकें।
✍ - फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)
When the disciples heard Jesus' prediction of suffering and betrayal, they were afraid to ask further questions. Like a person who receive bad news from the doctor about some tumour or disease that could destroy them and then refuse to ask any further questions, the disciples of Jesus didn't want to know any more about the consequences of possible suffering, defeat, and death on a cross. They couldn't understand how the cross could bring victory and lead to new life and freedom in Christ.
Very often we reject what we do not wish to see. We hear God's word and we know the consequences of accepting it or rejecting it. But do we give it our full commitment and mould our lives according to it? We need to ask the Lord Jesus to show us his power and glory that we may grow in reverence of him and in godly fear of his word.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)