9) युवक! अपनी जवानी में आनन्द मनाओं अपनी युवावस्था में मनोरंजन करो। अपने हृदय और अपनी आँखों की अभिलाषा पूरी करो, किन्तु याद रखो कि ईश्वर तुम्हारे आचरण का लेखा माँगेगा।
10) अपने हृदय से शोक को निकाल दो और अपने शरीर से कष्ट दूर कर दो, क्योंकि जीवन का प्रभात क्षणभंगुर है।
12:1) अपनी जवानी के दिनों में अपने सृष्टिकर्ता को याद रखों: बुरे दिनों के आने से पहले, उन वर्षों के आने से पहले, जिनके विषय में तुम कहोगे- "मुझे उन में कोई सुख नहीं मिला";
2) उस समय से पहले, जब सूर्य, प्रकाश, चन्द्रमा और नक्षत्र अन्धकारमय हो जायेंगे; और वर्षा के बाद बादल छा जायेंगे;
3) उस समय से पहले, जब घर के रक्षक काँपने लगेंगे, बलवानों का शरीर झुक जायेगा, चबाने वाले इतने कम होंगे कि अपना काम बन्द कर देंगे और जो खिड़कियों से झाँकती है वे धुँधली हो जायेगी ;
4) उस समय से पहले, जब बाहरी दरवाजे बन्द होंगे, चक्की की आवाज मन्द होगी, चिड़ियों की चहचहाहट धीमी पड़ जायेगी और सभी गीत मौन हो जायेंगे;
5) उस समय से पहले, जब ऊँचाई पर चढ़ने से डर लगेगा और सड़को पर खतरे-ही-खतरे दिखाई देंगे, जब बादाम का स्वाद फीका पड़ जायेगा, टिड्डियाँ नहीं पचेंगी और चटनी में रूचि नहीं रहेगी, क्योंकि मनुष्य परलोक सिधारने पर है और शोक मनाने वाले सड़क पर आ रहे हैं;
6) उस समय से पहले, जब चाँदी का तार टूट जायेगा और सोने का पात्र गिर पड़ेगा, जब घड़ा झरने के पास फूटेगा और कुएँ का पहिया टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा;
7) उस समय से पहले, जब मिट्टी उस पृथ्वी में मिल जायेगी, जहाँ से वह आयी है और आत्मा ईश्वर के पास लौट जायेगी, जिसने उसे भेजा है।
8) उपदेशक कहता है: व्यर्थ ही व्यर्थ; सब कुछ व्यर्थ है।
सब लोग ईसा के कार्यों को देख कर अचम्भे में पड़ जाते थे; किन्तु उन्होंने अपने शिष्यों से कहा,
44) "तुम लोग मेरे इस कथन को भली भाँति स्मरण रखो-मानव पुत्र मनुष्यों के हवाले कर दिया जायेगा"।
45) परन्तु यह बात उनकी समझ में नहीं आ सकी। इसका अर्थ उन से छिपा रह गया और वे इसे नहीं समझ पाते थे। इसके विषय में ईसा से प्रश्न करने में उन्हें संकोच होता था।
आज का पहला पाठ आज के युवाओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण संदेश देता है। इसे कई बार धीरे-धीरे पढ़ेंगे तो हमें पता चलेगा कि यह हमारे लिए अत्यंत मूल्यवान सलाह है। अपनी जवानी के दिनों में अपने सृष्टिकर्ता को याद रखो! लोगों में अक्सर देखा जाता है कि वे धार्मिक कार्यों, ईश्वर के भजन-ध्यान को बुढ़ापे की विषय-वस्तु समझते हैं। जवानी में जिंदगी का आनंद लिया जाए, ईश्वर का ध्यान तो बुढ़ापे में कर लेंगे लेकिन यह पाठ हमें याद दिलाता है कि ईश्वर के बिना जवानी या बुढ़ापा दोनों ही व्यर्थ हैं। बुढ़ापे में शरीर के अंग ठीक से अपना कम करना बंद कर देते हैं, आँखें धुंधली हो जाती हैं, कान मंद पड़ जाते हैं, हाथ-पैर कांपने लगते हैं, पाचन शक्ति कमजोर पड़ जाती है, किसी भी चीज में आनंद नहीं आता, मन संतुष्ट नहीं हो पाता। अर्थात पूरी तरह से विवश, लाचार और मजबूर होने से पहले ईश्वर को याद करो, उसका ध्यान लगाओ ताकि बाद में पछतावा न हो।
✍फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
Today's first reading delivers a very important message for today's youth. If we read it slowly several times, we will realize that it offers us extremely valuable advice: Remember your Creator in the days of your youth! It is often observed that people consider religious activities and devotion to God as matters for old age. They think they will enjoy life in their youth and turn to God in their old age. However, this reading reminds us that life, whether in youth or old age, is meaningless without God. In old age, the body begins to fail; the eyes become dim, hearing diminishes, hands and feet start to tremble, and digestion weakens. There is no joy in anything, and the mind remains unsatisfied. In other words, remember God and focus on Him before becoming completely helpless and constrained, so that you do not have regrets later.
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)
जब शिष्यों यीशु की पीड़ा और विश्वासघात की भविष्यवाणी को सुना, तो वे उनसे और प्रश्न पूछने से डरते थे। जिस प्रकार एक व्यक्ति डॉक्टर से ट्यूमर या बीमारी के बारे में बुरी खबर प्राप्त करता है जिससे उसकी जान को खतरा है तो वह डॉक्टर से फिर कोई और प्रश्न पूछने से इंकार कर देता है, उसी प्रकार येसु के शिष्य संभावित पीड़ा, हार, और दुखभोग के परिणामों के बारे में और जानना नहीं चाहते थे। वे यह नहीं समझ सके कि क्रूस पर मृत्यु कैसे विजय दिला सकती है और मसीह में उन्हें नए जीवन और स्वतंत्रता की ओर ले जा सकता है।
अक्सर हम जिसे देखना नहीं चाहते उसे ठुकरा देते हैं। हम ईश्वर के वचन को सुनते हैं और हम इसे स्वीकार करने या अस्वीकार करने के परिणामों को जानते हैं। लेकिन क्या हम इसे अपनी पूरी प्रतिबद्धता देते हैं और उसके अनुसार अपने जीवन को ढालते हैं? हमें प्रभु येसु से उनकी शक्ति और महिमा के दर्शन कराने के निवेदन करने की आवश्यकता है ताकि हम उसके प्रति श्रद्धा और उसके वचन के प्रति ईश्वरीय श्रद्धा में बढ़ सकें।
✍ - फादर रोनाल्ड वाँन
When the disciples heard Jesus' prediction of suffering and betrayal, they were afraid to ask further questions. Like a person who receive bad news from the doctor about some tumour or disease that could destroy them and then refuse to ask any further questions, the disciples of Jesus didn't want to know any more about the consequences of possible suffering, defeat, and death on a cross. They couldn't understand how the cross could bring victory and lead to new life and freedom in Christ.
Very often we reject what we do not wish to see. We hear God's word and we know the consequences of accepting it or rejecting it. But do we give it our full commitment and mould our lives according to it? We need to ask the Lord Jesus to show us his power and glory that we may grow in reverence of him and in godly fear of his word.
✍ -Fr. Ronald Vaughan
जीवन में बहुत कुछ है जो हम पूरी तरह से नहीं समझत पाते । दुख का अनुभव जीवन के उन रहस्यों में से एक है जिनसे हम थाह लेने के लिए कोशिश करते रहते हैं। घातक बीमारी, किसी को भी उनकी उम्र की परवाह किए बिना किसी भी समय अपना शिकार बना सकती है। आये दिन हम त्रासदियों और अनहोनी घटनाओं के बारे में सुनते हैं और यह देख कर हम आवाक रह जाते हैं कि ये सब निर्दोष क्यों बेमौत मारे जाते हैं। मानव दुःख हमारे लिए एक रहस्य बना हुआ है। हमारा कैथोलिक विश्वास हमें अपने दुख या किसी प्रियजन की पीड़ा से निपटने में मदद कर सकता है।
आज के सुसमाचार पाठ में, जब लोग येसु के महान कार्यों को देखकर विस्मित थे उन्हें एक बहुत शक्तिशाली व्यक्ति मानने लगे थे, उसी समय येसु अपने शिष्यों के सामने यह घोषणा करते हैं कि वे मनुष्यों के हवाले कर दिए जायेंगे और वे उन्हें मार डालेंगे। सुसमाचार हमें बतलाता है कि शिष्यों ने येसु की इस बात को समझा नहीं था, और वे उससे पूछने से डरते थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि ईश्वर का यह जन, जो इतने सारे लोगों द्वारा प्रशंसित था, दूसरों के हाथों कैसेअत्याचार सह सकता है। उन्होंने उसके अंतिम मुकाम या लक्ष्य के रहस्य को नहीं समझा, जो दुख और मृत्यु से घनिष्ठता से जुड़ा हुआ था। कोई इतना भला और निर्दोष जो की बहुत ही शक्तिशाली और चमत्कार करने वाला था कैसे वह उन लोगों के अधीन हो सकता है, जो उसे मरना चाहते थे? केवल येसु के पुनरुत्थान के बाद ही शिष्यों ने येसु के दुखभोग की प्रासंगिकता को समझा। उनकी मृत्यु उनके मिशन के प्रति उनकी प्रेममय निष्ठा का परिणाम थी। शायद, हम भी हमारे पुनरुत्थान के बाद के जीवन याने, अनंत काल के जीवन को निगाह में रखकर ही अपने जीवन में और दूसरों के जीवन में आने वाले दुखों के रहस्य को समझेंगे। इस बीच, पहला पाठ हमें विश्वास दिलाता है कि प्रभु हमारे बीच में निवास करने के लिए आए हैं और आग की दीवार की तरह हमारे चारों ओर हैं। हमारे अपने कलवारी अनुभव में, ईश्वर हमारे साथ हैं, जैसे कि ईश्वर येसु के साथ क्रूस पर थे। जब हम खुद को सबसे कमजोर अवस्था में पाते हैं, हमारा ईश्वर हमारे चारों ओर आग की दीवार की तरह उपस्थित रहता और हमारी रक्षा करता है।
✍ - फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)
There are many things in life that we do not fully understand. The experience of grief is one of the mysteries of life which we keep trying to fathom. A deadly disease can prey on anyone at any time, regardless of their age. Every day we hear about tragedies and unpleasant incidents and we are left stunned to see why the innocents are killed. Human grief remains a mystery to us. Our Catholic faith can help us deal with our suffering or the suffering of a loved one. In today's Gospel, when people were astonished to see the great works of Jesus, they considered Him to be a very powerful person, at the same time, Jesus announced to his disciples that he would be handed over to humans and that they would kill him. The gospel tells us that the disciples did not understand this, and they were afraid to ask him. They could not understand how this man of God, who was admired by so many people, could bear atrocities at the hands of others. They did not understand the secret of his final goal, which was intimately connected with suffering and death. How can someone so good and innocent who was very powerful and performed miracles be subject to those who wanted him dead? Only after the resurrection of Jesus did the disciples understand the relevance of the suffering of Jesus. His death was the result of his loving loyalty to his mission. Perhaps, we too will understand the mystery of the miseries that come in our lives and in the lives of others, when we understand the meaning of the life after death that is our resurrection. Meanwhile, the first reading assures us that the Lord has come to dwell among us and surround us like a wall of fire. In our own Calvary experience, God is with us, just as God was with Jesus on the cross. When we find ourselves in the weakest state of life, our God is present around us like a wall of fire and protects us.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)