6) एक दिन ऐसा हुआ कि स्वर्गदूत प्रभु के सामने उपस्थित हुए और शैतान भी उन में सम्मिलित हो गया।
7) प्रभु ने शैतान से कहा, "तुम कहाँ से आये हो?" शैतान ने प्रभु को उत्तर दिया, "मैंने पृथ्वी का पूरा चक्कर लगाया"।
8) इस पर प्रभु ने कहा, "क्या तुमने मेरे सेवक अय्यूब पर ध्यान दिया है? पृथ्वी भर में उसके समान कोई नहीं; वह निर्दोष और निष्कपट है, वह ईश्वर पर श्रद्धा रखता और बुराई से दूर रहता है।"
9) शैतान ने प्रभु से कहा, "क्या अय्यूब यों ही ईश्वर पर श्रद्धा रखता है?
10) क्या आपने उसके, उसके परिवार और उसकी पूरी जायदाद के चारों ओर मानो घेरा लगा कर उसे सुरक्षित नहीं रखा? आपने उसके सब कार्यों को आशीर्वाद दिया उसके झुण्ड देश भर मैं फैले हुए हैं।
11) आप हाथ बढ़ा कर उसकी सारी सम्पत्ति छीन लें, तो वह निश्चिय ही आपके मुँह पर आपकी निंदा करेगा।"
12) प्रभु ने शैतान से कहा, "अच्छा! उसका सब कुछ तुम्हारे हाथ में है, किंतु अय्यूब पर हाथ मत लगाना"। इसके बाद शैतान प्रभु के सामने से चला गया।
13) अय्यूब के पुत्र-पुत्रियाँ किसी दिन अपने बड़े भाई के यहाँ खा-पी रहे थे
14) कि एक सन्देशवाहक ने आ कर अय्यूब से कहा, "बैल हल में जुते हुए थे और गधियोँ उनके आस-पास चर रही थीं।
15) उस समय शबाई उन पर टूट पड़े और आपके सेवकों को तलवार के घाट उतार कर सब पशुओं को ले गये। केवल मैं बच गया और आप को यह समाचार सुनाने आया हूँ।"
16) वह बोल ही रहा था कि कोई दूसरा आ कर कहने लगा, "ईश्वर की आग आकाश से गिर गयी। उसने भेड़ों और चहवाहों को जला कर भस्म कर दिया। केवल मैं बच गया और आप को समाचार सुनाने आया हूँ"
17) वह बोल ही रहा था कि एक और अंदर से आया और कहने लगा, "खल्दैयी तीन दल बना कर ऊँटों पर टूट पड़े और आपके नौकरों को तलवार के घाट उतार कर पशुओं को ले गये। केवल मैं बच गया और आप को यह समाचार सुनाने आया हूँ"
18) वह बोल ही रहा था कि एक और आ कर कहने लगा, "आपके पुत्र-पुत्रियाँ, अपने बड़े भाई के यहाँ खा-पी रहे थे
19) कि एक भीषण आँधी मरूभूमि की ओर से आयी और घर के चारों कोनो से इतने ज़ोर से टकरायी कि घर आपके पुत्र-पुत्रियों पर गिर गया और वह मर गये। केवल मैं बचा गया हूँ और आप को यह समाचार सुनाने आया हूँ"
20) अय्यूब ने उठ कर अपने वस्त्र फाड़ डाले। उनसे सिर मुडाया और मुँह के बल भूमि पर गिर कर
21) यह कहा, "मैं नंगा ही माता के गर्भ से निकला और नंगा ही पृथ्वी के गर्भ में लौट जाऊँगा! प्रभु ने दिया था, प्रभु ने ले लिया। धन्य है प्रभु का नाम!"
22) इन सब विपत्तियों के होते हुए भी अय्यूब ने कोई पाप नहीं किया और उसने ईश्वर की निंदा नहीं की।
46) शिष्यों में यह विवाद छिड़ गया कि हम में सब से बड़ा कौन है।
47) ईसा ने उनके विचार जान कर एक बालक को बुलाया और उसे अपने पास खड़ा कर
48) उन से कहा, "जो मेरे नाम पर इस बालक का स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है और जो मेरा स्वागत करता है, वह उसका स्वागत करता है, जिसने मुझे भेजा है; क्योंकि तुम सब में जो छोटा है, वही बड़ा है।"
49) योहन ने कहा, “गुरूवर! हमने किसी को आपका नाम ले कर अपदूतों को निकालते देखा है और हमने उसे रोकने की चेष्टा की, क्योंकि वह हमारी तरह आपका अनुसरण नहीं करता“।
50) ईसा ने कहा, “उसे मत रोको। जो तुम्हारे विरुद्ध नहीं है, वह तुम्हारे साथ हैं।“
योब का ग्रन्थ युग युगों के लोगों के मन में उठने वाले करोड़ों लोगों के सवालों के जवाब देता है। वह एक भला व्यक्ति था, ईश्वर का भक्त था। ईश्वर ने उसे सब कुछ से सम्पन्न किया था। उसकी सारी धन संपत्ति ईश्वर की ओर से आशीष का प्रतीक था। जिसके पास कुछ नहीं है उसके बारे में ऐसा माना जाता था, कि ईश्वर उससे नाखुश है। लेकिन योब भला व्यक्ति होते हुए भी अपना सब कुछ एक ही दिन में खो देता है। कभी-कभी हमारे साथ या हमारी जान-पहचान वाले व्यक्तियों के साथ ऐसा होता है तो हमें बड़ा दुख होता है। एक अच्छे व्यक्ति के साथ इतना बुरा कैसे हो सकता है? योब का ग्रन्थ हमें याद दिलाता है कि सब कुछ ईश्वर की मर्जी से और ईश्वर की योजना के अनुसार होता है। कभी-कभी यह हमारी परीक्षा लेने के लिए भी होता है, अब यह हमारे ऊपर है कि हम उस परीक्षा में किस हद तक खरे उतरते हैं।
✍फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
The Book of Job answers the countless questions that arise in the minds of people throughout the ages. He was a good man, a devout follower of God. God had blessed him with abundance. It was often believed that those who had nothing were disliked by God that’s why they had nothing. Yet, despite being a good person, Job loses everything in a single day. When something similar happens to us or to those we know, it brings us great sorrow. How can such misfortune befall a good person? The Book of Job reminds us that everything happens according to God's will and plan. Sometimes, it is also to test us, and it is up to us to see how well we pass in that test.
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)
हमें यह देखकर आश्चर्य होता है कि येसु के शिष्य इस बात पर बहस कर रहे हैं कि उनमें से सबसे बड़ा कौन है। लेकिन क्या हम भी वही काम नहीं करते? प्रसिद्धि, महिमा और महानता की भूख हममें जन्मजात प्रतीत होती है। कौन "बड़ा" होने की महत्वाकांक्षा को संजोता नहीं है, जिसकी दूसरे प्रशंसा करते हैं और उसे ऊंचा मानते हैं? यहाँ तक कि स्तोत्र भी उस महिमा के बारे में बोलते हैं जिसे परमेश्वर ने हमारे लिए नियत किया है। "तू ने उन्हें परमेश्वर से कुछ ही कम बनाया है, और उन्हें महिमा और सम्मान का मुकुट पहनाया है (भजन संहिता 8:5)।
येसु ने अपने शिष्यों को दिखाने के लिए अपने बगल में एक बच्चे को रखकर एक महत्वपूर्ण बात की ओर इशारा किया जो वास्तव में परमेश्वर के राज्य में सबसे महान है। एक छोटा बच्चा हमें महानता के बारे में क्या सिखा सकता है? येसु ने अपने शिष्यों की उपस्थिति में एक छोटे बच्चे को उसके दाहिने तरफ सम्मान की विशेष स्थिति में रखकर ऊपर उठाया। परमेश्वर के राज्य में सबसे बड़ा कौन है? वह जो विनम्र और ह्रदय का दीन है - जो अपने अधिकारों का दावा करने के बजाय सेवक या बच्चे की निम्न छोटी स्थिति को लेकर स्वेच्छा से गर्व और आत्म-अभिमानी महिमा से खुद को दूर कर देता है।
✍ - फादर रोनाल्ड वाँन
We are surprised to see the disciples of Jesus arguing about who is the greatest among them. But don’t we do the same thing? The hunger for glory and greatness seems to be inborn in us. Who doesn't cherish the ambition to be "somebody" whom others admire and uphold high? Even the psalms speak about the glory God has destined for us. You have made them a little lower than God, and crowned them with glory and honor (Psalm 8:5).
Jesus made a dramatic gesture by placing a child next to himself to show his disciples who really is the greatest in the kingdom of God. What can a little child possibly teach us about greatness? Jesus elevated a little child in the presence of his disciples by placing the child in a privileged position of honor at his right side. Who is the greatest in God's kingdom? The one who is humble and lowly of heart — who instead of asserting their rights willingly empty themselves of pride and self-seeking glory by taking the lowly position of a servant or child.
✍ -Fr. Ronald Vaughan
दूसरों के साथ खुद की तुलना करने का प्रलोभन हम में से बहुतों में होता है। हम अपने आप से आसानी से सवाल पूछ सकते हैं, कि मैं अमुक की तुलना में कितना अच्छा हूं? कितना बेहतर हूँ? या किसकी ज़यादा अहमियत है इत्यादि।
आज के सुसमाचार में हम शिष्यों के बीच उस प्रतिस्पर्धात्मकता को देखते हैं। उनमें एक वाद विवाद खड़ा हो जाता है कि उनमें कौन सबसे बड़ा है। उन में से प्रत्येक अपने समुदाय का सर्वश्रेष्ठ बनने के लिए संघर्ष करते दिखाई देते हैं। इस बात को लेकर येसु ने कभी अपने जीवन में संघर्ष नहीं किया। उनके विवाद को नजरअंदाज करते हुए, येसु अपनी बात एक जीवंत उदाहरण के द्वारा देने हेतु उनके बीच में एक छोटे बच्चे खड़ा कर देते है और घोषणा करता है कि जो कोई भी उसके नाम पर इस तरह के बच्चे का स्वागत करता है वह उसका स्वागत करता है।
वे जिस महानता के बारे में सोचते हैं, उसके लिए प्रतिस्पर्धा करने के बजाय, शिष्यों को जो छोटे विनम्र और सबसे कमजोर हैं उनका स्वागत करना है। परमेश्वर के राज्य में, सच्ची महानता हेतु उन लोगों का स्वागत करना और उनकी सेवा करना शामिल है, जो बिना किसी पद के या सामाजिक प्रतिष्ठा की लालसा के बच्चों जैसा जीवन जीते हैं। प्रभु की राहों पर चलने के किये किसी से प्रतिस्पर्धा करने की नहीं पर विनम्र बनकर सेवा करने की ज़रूरत है।
✍ - फादर प्रीतम वसुनिया (इन्दौर धर्मप्रांत)
The temptation to compare ourselves with others is always there in us. We can easily ask ourselves the question, how good am in comparison to others? Or how much valuable or important am I before others etc. In today's gospel we see such competitiveness among the disciples. A debate arises in them as to who is the greatest among them. Each of them appears to be struggling to become the best of their community. Jesus never struggled with this in his life.
Jesus places a small child in their midst to give them a live example and declares that whoever welcomes such a child in His name would welcome him. Instead of competing for the greatness, the disciples are to welcome the little humble and the weakest. In the kingdom of God, true greatness includes welcoming and serving those who live a childlike life without longing for a social prestige or place of honour. There is a need to serve humble ones, and not to compete with anyone.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya (Indore Diocese)