नवंबर 27, 2024, बुधवार

वर्ष का चौंतीवाँ सामान्य सप्ताह

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📒 पहला पाठ : प्रकाशना 15:1-4

1) मैंने स्वर्ग में एक और महान् एवं आश्चर्यजनक चिन्ह देखा। सात स्वर्गदूत सात विपत्तियाँ लिये थे। ये अन्तिम विपत्तियाँ हैं, क्योंकि इनके द्वारा ईश्वर का क्रोध पूरा हो जाता है।

2) मैंने आग से मिले कुए काँच के समुद्र-सा कुछ देखा। जो लोग पशु उसकी प्रतिमा और उसके नाम की संख्या पर विजयी हुए थे, वे काँच के समुद्र पर खड़े थे। वे ईश्वर की वीणाएं लिये

3) ईश्वर के दास मूसा का गीत और मेमने का गीत गाते हुए कहते थे। "सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर! तेरे कार्य महान् और अपूर्व हैं। राष्ष्ट्रों के राजा! तेरे मार्ग न्यायसंगत और सच्चे हैं।

4) "प्रभु! कौन तुझ पर श्रद्धा और तेरे नाम की स्तुति नहीं करेगा? क्योंकि तू ही पवित्र है। " सभी राष्ष्ट्र आ कर तेरी आराधना करेंगे, क्योंकि तेरे न्यायसंगत निर्णय प्रकट हो गये हैं।"

📙 सुसमाचार : लूकस 21:12-19

12) "यह सब घटित होने के पूर्व लोग मेरे नाम के कारण तुम पर हाथ डालेंगे, तुम पर अत्याचार करेंगे, तुम्हें सभागृहों तथा बन्दीगृहों के हवाले कर देंगे और राजाओं तथा शासकों के सामने खींच ले जायेंगे।

13) यह तुम्हारे लिए साक्ष्य देने का अवसर होगा।

14) अपने मन में निश्चय कर लो कि हम पहले से अपनी सफ़ाई की तैयारी नहीं करेंगे,

15) क्योंकि मैं तुम्हें ऐसी वाणी और बुद्धि प्रदान करूँगा, जिसका सामना अथवा खण्डन तुम्हारा कोई विरोधी नहीं कर सकेगा।

16) तुम्हारे माता-पिता, भाई, कुटुम्बी और मित्र भी तुम्हें पकड़वायेंगे। तुम में से कितनों को मार डाला जायेगा

17) और मेरे नाम के कारण सब लोग तुम से बैर करेंगे।

18) फिर भी तुम्हारे सिर का एक बाल भी बाँका नहीं होगा।

19) अपने धैर्य से तुम अपनी आत्माओं को बचा लोगे।

📚 मनन-चिंतन

कल के पाठ में हमने मनन चिंतन किया कि किस प्रकार हमे शैतान की बहकाने वाले कार्यों से बच कर रहना चाहिए और आज प्रभु हमें अत्याचार एवं अपनों द्वारा अलगाव के विषय में बताते है।

प्रभु येसु का अनुयायी बनना अर्थात् क्रूस उठाकर उनके पीछे हो लेना हैं। प्रभु येसु के पीछे होने का मतलब यह कतई नहीं हैं कि हमारे जीवन में दुःख-तखलीफ, संकट नहीं आयेंगी परंतु इसका मतलब यह है कि दुःख-तकलीफ और संकट हमें कभी टूटनें नहीं देंगी या हमारे जीवन में प्रभु के आनंद को समाप्त होने देंगी।

प्रभु के पथ पर चलने पर हमें हर प्रकार के अत्याचार और दुव्यवहार का सामना करना पड़ेगा। जिस प्रकार योहन 15ः20-21 में लिखा है, ‘‘मैने तुम से जो बात कही, उसे याद रखो- सेवक अपने स्वामि से बड़ा नहीं होता। यदि उन्होंने मुझे सताया, तो वे तुम्हें भी सतायेंगे। यदि उन्होंने मेरी शिक्षा का पालन किया तो वे तुम्हारी शिक्षा का भी पालन करेंगे। वे यह सब मेरे नाम के कारण तुम लोगो के साथ करेंगे क्योंकि जिसने मुझे भेजा, उसे वे नहीं जानते।’’

येसु के नाम पर अत्याचार की व्यथा आज की नहीं परंतु प्रारम्भिक कलीसिया के समय से ही है। कई विश्वासियों ने प्रभु के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर दिये। अत्याचार आने पर हमारे जीवन में क्या होता? सबसे पहले ता एक हड़कंप सा मच जाता हैं, फिर पीड़ा होती हैं दुःख लगता हैं और अंत में हम उस अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाते है। अत्याचार भले ही हमारे लिए एक नकारात्मक क्रिया हो परंतु आज के सुसमाचार द्वारा हमें पता चलता है कि अत्याचार हमारे लिए एक सुनहरा और सुंदर अवसर हैं। एक अवसर जहॉं पर हम प्रभु का साक्ष्य दे सकते है। यह अवसर सभी के पास आता है परंतु केवल सच्चे विश्वासी ही इस अवसर का लाभ उठाते हैं। जिस प्रकार ग्राहम स्टेन की पत्नी ने उनके पति और बच्चो के हत्यारों को क्षमा देकर ईश्वर की क्षमा का साक्ष्य दिया। संत मदर तेरेसा ने अपने हाथ में थूक मिलने के बावजूद अपने गरीब और लाचार लोगों के लिए हाथ बढ़ाते हुए प्रभु ईश्वर के प्रेम का साक्ष्य दिया। इस प्रकार बाईबिल तथा इस जीवन में कई उदाहरण है जहॉं पर अत्याचार और अपमान की स्थिति में संत भरा जीवन जीने वाले लोगों ने ईश्वर के लिए साक्ष्य दिया।

जिस प्रकार सोने की परख आग में ही होती है उसी प्रकार अत्याचार और अपनों द्वारा अलगाव के समय ही सच्चे विश्वासियों का पता चलता है। आईये हम सब अत्याचार के समय धैर्य पूर्वक ईश्वर में बने रहकर प्रभु येसु ख्रीस्त के सच्चे विश्वासी और सच्चे अनुयायी होने का साक्ष्य दे। आमेन!

- फादर डेन्नीस तिग्गा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Yesterday we reflected on not to be deceived by the works of Evil and today Jesus tells about the persecution and segregation by our own.

To be disciples of Jesus means to take up the cross and follow him. Following him does not mean that there will be no troubles, problems or sorrows in our lives but it means that we will never be broken of those troubles, problems and sorrows or we will never lose the joy of the Lord amidst those problems.

We have to face all types of persecution and misbehavior while following the Lord’s way. As it is written in Jn 15-20-21, “Remember the word that I said to you, ‘Servants are not greater than their master.’ If they persecuted me, they will persecute you; if they kept my word, they will keep yours also. But they will do all these things to you on account of my name, because they do not know him who sent me.”

The pain of persecution in the name of Jesus is not the matter of today only but it is from the early church. Many believers sacrificed their lives for Jesus. What happens when persecution comes? First and foremost there will be a lot of chaos, then pain, sorrow and at last we may raise our voices against the persecution. Though persecution seems to be a negative one for us, but today’s gospel tells us that persecution is a wonderful and beautiful opportunity; an opportunity to be witness to Lord Jesus. This opportunity comes to everyone but only the true believers cultivate maximum out of it. Like Graham Stein’s wife who witnessed the forgiveness of Jesus by forgiving them who killed her husband and children, St. Mother Teresa who witnessed the love of Christ by extending her hand for her inmates even after receiving the spat on her palm. Likewise there are many examples of saintly persons in the Bible and in this world who became witnesses of Christ even in the situation of persecution and insults.

As gold is tested in fire so also a true believer is tested in the times of persecution and segregation by their own. By patiently enduring the persecution, come let’s prove ourselves to be true believers and followers of Christ by being a true witness of Lord Jesus Christ. Amen!

-Fr. Dennis Tigga (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन -2

कल के पाठ में हमने मनन चिंतन किया कि किस प्रकार हमे शैतान की बहकाने वाले कार्यों से बच कर रहना चाहिए और आज प्रभु हमें अत्याचार एवं अपनों द्वारा अलगाव के विषय में बताते है।

प्रभु येसु का अनुयायी बनना अर्थात् क्रूस उठाकर उनके पीछे हो लेना हैं। प्रभु येसु के पीछे होने का मतलब यह कतई नहीं हैं कि हमारे जीवन में दुःख-तखलीफ, संकट नहीं आयेंगी परंतु इसका मतलब यह है कि दुःख-तकलीफ और संकट हमें कभी टूटनें नहीं देंगी या हमारे जीवन में प्रभु के आनंद को समाप्त होने देंगी।

प्रभु के पथ पर चलने पर हमें हर प्रकार के अत्याचार और दुव्यवहार का सामना करना पड़ेगा। जिस प्रकार योहन 15ः20-21 में लिखा है, ‘‘मैने तुम से जो बात कही, उसे याद रखो- सेवक अपने स्वामि से बड़ा नहीं होता। यदि उन्होंने मुझे सताया, तो वे तुम्हें भी सतायेंगे। यदि उन्होंने मेरी शिक्षा का पालन किया तो वे तुम्हारी शिक्षा का भी पालन करेंगे। वे यह सब मेरे नाम के कारण तुम लोगो के साथ करेंगे क्योंकि जिसने मुझे भेजा, उसे वे नहीं जानते।’’

येसु के नाम पर अत्याचार की व्यथा आज की नहीं परंतु प्रारम्भिक कलीसिया के समय से ही है। कई विश्वासियों ने प्रभु के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर दिये। अत्याचार आने पर हमारे जीवन में क्या होता? सबसे पहले ता एक हड़कंप सा मच जाता हैं, फिर पीड़ा होती हैं दुःख लगता हैं और अंत में हम उस अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाते है। अत्याचार भले ही हमारे लिए एक नकारात्मक क्रिया हो परंतु आज के सुसमाचार द्वारा हमें पता चलता है कि अत्याचार हमारे लिए एक सुनहरा और सुंदर अवसर हैं। एक अवसर जहॉं पर हम प्रभु का साक्ष्य दे सकते है। यह अवसर सभी के पास आता है परंतु केवल सच्चे विश्वासी ही इस अवसर का लाभ उठाते हैं। जिस प्रकार ग्राहम स्टेन की पत्नी ने उनके पति और बच्चो के हत्यारों को क्षमा देकर ईश्वर की क्षमा का साक्ष्य दिया। संत मदर तेरेसा ने अपने हाथ में थूक मिलने के बावजूद अपने गरीब और लाचार लोगों के लिए हाथ बढ़ाते हुए प्रभु ईश्वर के प्रेम का साक्ष्य दिया। इस प्रकार बाईबिल तथा इस जीवन में कई उदाहरण है जहॉं पर अत्याचार और अपमान की स्थिति में संत भरा जीवन जीने वाले लोगों ने ईश्वर के लिए साक्ष्य दिया।

जिस प्रकार सोने की परख आग में ही होती है उसी प्रकार अत्याचार और अपनों द्वारा अलगाव के समय ही सच्चे विश्वासियों का पता चलता है। आईये हम सब अत्याचार के समय धैर्य पूर्वक ईश्वर में बने रहकर प्रभु येसु ख्रीस्त के सच्चे विश्वासी और सच्चे अनुयायी होने का साक्ष्य दे। आमेन!

- फादर डेन्नीस तिग्गा


📚 REFLECTION

Yesterday we reflected on not to be deceived by the works of Evil and today Jesus tells about the persecution and segregation by our own.

To be disciples of Jesus means to take up the cross and follow him. Following him does not mean that there will be no troubles, problems or sorrows in our lives but it means that we will never be broken of those troubles, problems and sorrows or we will never lose the joy of the Lord amidst those problems.

We have to face all types of persecution and misbehavior while following the Lord’s way. As it is written in Jn 15-20-21, “Remember the word that I said to you, ‘Servants are not greater than their master.’ If they persecuted me, they will persecute you; if they kept my word, they will keep yours also. But they will do all these things to you on account of my name, because they do not know him who sent me.”

The pain of persecution in the name of Jesus is not the matter of today only but it is from the early church. Many believers sacrificed their lives for Jesus. What happens when persecution comes? First and foremost there will be a lot of chaos, then pain, sorrow and at last we may raise our voices against the persecution. Though persecution seems to be a negative one for us, but today’s gospel tells us that persecution is a wonderful and beautiful opportunity; an opportunity to be witness to Lord Jesus. This opportunity comes to everyone but only the true believers cultivate maximum out of it. Like Graham Stein’s wife who witnessed the forgiveness of Jesus by forgiving them who killed her husband and children, St. Mother Teresa who witnessed the love of Christ by extending her hand for her inmates even after receiving the spat on her palm. Likewise there are many examples of saintly persons in the Bible and in this world who became witnesses of Christ even in the situation of persecution and insults.

As gold is tested in fire so also a true believer is tested in the times of persecution and segregation by their own. By patiently enduring the persecution, come let’s prove ourselves to be true believers and followers of Christ by being a true witness of Lord Jesus Christ. Amen!

-Fr. Dennis Tigga