कलीसियाइ इतिहास

2 - कलीसिया के प्राचीन धर्माचार्य और विद्वान

प्रेरितों की मृत्यु से लेकर सन् 749 तक का समय पूर्वी कलीसिया के लिए और सन् 636 तक का समय पाष्चात्य कलीसिया के लिए कलीसियाई पितामह-युग (Patristic Era) कहलाता है। कलीसिया में किसी भी व्यक्ति को पितामह की मानोपाधि देने के कुछ षर्तें थीं।

1. पुरातनता- वे ऐसे व्यक्ति हों जिनका जीवन-काल प्रेरितिक काल एवं आठवीं सदी के बीच हो।

2. जीवन की पवित्रता- वे ऐसे व्यक्ति हों जिन्होंने पवित्र जीवन बिताया हो।

3. शास्त्र सम्मत्तता- वे ऐसे व्यक्ति हों, जो कलीसिया की प्रामाणिक शिक्षा के प्रति निष्ठावान तथा वफ़ादार हों।

4. कलीसियाई मान्यता- वे ऐसे व्यक्ति हों, जिन्हें औपचारिक कलीसियाई मान्यता प्राप्त हो।

इन तत्वों के आधार पर कलीसिया तेर्तुलियन, ईरनेयुस, हिप्पोलिटस, सिप्रियन आदि महान व्यक्तियों को कलीसियाई पितामह मानती है।

पितामह युग में ख्रीस्तीय विश्वासियों को अन्य लोगो के हाथों अत्याचार का सामना करना पड़ता था। इस उत्पीड़न के अनेक कारण थे। गैर ख्रीस्तीय भी ख्रीस्तीय विश्वासियों के भातृप्रेम, गरीबों की सेवा और अनाथों तथा विधवाओं के संरक्षण की सराहना करते थे। फिर भी कई लोग ख्रीस्तीयों पर षक करते थे। ख्रीस्तीय हर इतवार को एकत्र होते थे। लोगों के सुनने में आ रहा था कि वे ईसा नाम के व्यक्ति का ‘‘माँस खाते‘‘ और उसका ’’खून पीते’’ थे। उनका यह संदेह था कि ख्रीस्तीयों की सभाओं में असामान्य व्यवहार होता था। इस प्रकार कई अफवाह उड़ी हुई थी। इस कारण रोमी शासन ख्रीस्तीयों पर शक करते थे। इसके अतिरिक्त ख्रीस्तीय विश्वासियों ने रोमी देवताओं तथा राजाओं की आराधना करने से इनकार कर दिया था।

सम्राट डोमीशियन (सन् 81-96) ने सभी लोगों को यह आदेश दिया था कि वे सब उन्हीं को ईश्वर मानकर उनके लिए बलिदान चढ़ायें। ख्रीस्तीयों ने सम्राट की आराधना करने की आज्ञा का उल्लंधन किया। इस पर सम्राट ने ख्रीस्त के अनुयायियों को प्रताड़ित किया। कलीसियाई धर्माचार्य सभी ख्रीस्तीय अनुयायियों को ढ़ारस बँधाते तथा यह कहते हुए विश्वास में दृढ़ रहने के लिए अनुरोध करते थे कि हमें बहुत-से कष्ट सहकर ईश्वर के राज्य में प्रवेष करना है। इसलिए कलीसियाई पितामह तेर्तुलियन ने कहा, ‘‘षहीदों का रक्त कलीसिया का बीज है’’। स्मिर्णा के पोलीकार्प और अन्ताखिया के इग्नासियुस, दोनों धर्माध्यक्षों ने विश्वासियों के लिए अच्छे आदर्ष प्रस्तुत किये। सन् 110 में जब इग्नासियुस मार डाले जाने के लिए ले जाये गये तब उन्होंने यात्रा में सात पत्र लिखे- एक पोलीकार्प के नाम पर और अन्य रास्ते के विभिन्न कलीसियाई समुदायों के नाम पर। अपने पत्रों के द्वारा इग्नासियुस ने सभी ख्रीस्तीय विश्वासियों का मनोबल बढ़ाया।

शहादत स्वर्ग जाने का सीधा मार्ग माना जाता था। इसी कारण कलीसिया में शहीदों का बड़ा स्थान था। लोग शहीदों की कब्रों पर प्रार्थना करने तथा उनकी मध्यस्थता की याचना करने जाने लगे। पेरपेतुआ और फेलिसिती उस समय की षहीद स्त्रियों में प्रमुख हैं। यहाँ यह कहना अनिवार्य है कि उत्पीड़न के समय विश्वासी लोग बिखर जाते थे और विभिन्न जगहों पर बसने लगते थे। वे उन जगहों पर सुसमाचार की घोषणा करते थे और इस प्रकार कलीसिया फैलती गई।

दूसरी सदी में कलीसिया के नेतृत्व-ढाँचा ने भी एक निष्चित रूप धारण कर लिया। हर कलीसियाई समुदाय की अध्यक्षता एक धर्माध्यक्ष (Bishop) करता था और कई अध्यक्ष (Elders) धर्माध्यक्ष को संस्कारों को सम्पन्न करने में सहायता करते थे। ये अध्यक्ष बाद में पुरोहित कहलाने लगे। भौतिक प्रशासन में धर्मसेवक (उपयाजक) धर्माध्यक्ष की मदद करते थे।

जैसे-जैसे कलीसिया आगे बढ़ती रही, विश्वासियों के बीच अपसिद्धान्त भी उत्पन्न होने लगे। कलीसियाई पितामहों ने उन अप्रामाणित शिक्षाओं का मुकाबला करने की हर संभव कोशिश की। इन कोशशों में कलीसिया की एकता अनिवार्य थी। धीरे-धीरे रोम के महाधमाध्यक्र्ष की विशेष भूमिका उबरने लगी। लियोन्स के धर्माध्सक्ष ईरेनियुस ने कहा, ‘‘हर स्थानीय कलीसिया को चाहिए कि वह रोम की कलीसिया के साथ सहमत हो‘‘। इसी प्रकार तीसरी सदी के मध्य में कार्तेज के धर्माध्यक्ष सिप्रियन ने कहा, ‘‘रोम के धर्माध्यक्ष के साथ सहभागिता का अर्थ है कलीसिया के साथ सहभागिता‘‘।

सन् 250 में सम्राट देसियुस ने ख्रीस्तीय विश्वासियों की बढ़ती संख्या के भय से उनके विरुद्ध घोर अत्याचार प्रारम्भ किया। कई विश्वासी भक्त ख्रीस्त के नाम पर मार डाले गये। इसी प्रकार सम्राट डायोक्लीषियन के समय सन् 303 से सन् 311 तक भी ख्रीस्तीय विश्वासियों के विरुद्ध अत्याचार हुआ। इस दौरान बाइबिल और पूजन-विधि की पुस्तकों को जलाया गया। इन सब के बावजूद भी ख्रीस्तीयों की संख्या तीसरी सदी के अन्त तक बढ़कर पचास लाख हो गई।

सन् 312 में रोमी सम्राट कॉन्स्टन्टाइन को एक दर्षन हुआ जिसमें उन्हें यह विश्वास दिलाया गया कि ख्रीस्त के चिह्न के द्वारा उन्हे युद्ध में विजय प्राप्त होगी। विजयी होने पर उन्होंने ख्रीस्तीय विश्वास को स्वीकारा और एक साल बाद ‘‘मिलान का आदेशपत्र‘‘ जारी कर ख्रीस्तीय धर्म को अपने साम्राज्य में मान्यता प्रदान की। इस प्रकार कलीसिया के विरुद्ध अत्याचार खत्म हुआ, इसके साथ-साथ शहादत भी।

चैथी सदी में एक नये किस्म के धर्मात्मा कलीसिया में उबरने लगे- एकान्तवासी और मठवासी। ये वे लोग थे जिन्होंने प्रभु येसु का अपनी तपस्या तथा प्रायष्चित के कार्यों द्वारा अनुकरण करने हेतु मरुभूमि की ओर प्रस्थान किया और वहाँ पर एकान्त में अपना जीवन बिताया। सन् 270 में मिश्री कृषक अन्थोनी मरुभूमि चला गया और वहाँ पर उसने सन् 305 तक अपना जीवन बिताया। इसके बाद कई व्यक्तियों ने अन्थोनी के पदचिह्नों पर चलने की काषिष की।

सन् 343 में सारदिका की महासभा में पश्चिम की सभी कलीसियाओं पर संत पापा, रोम के धर्माध्यक्ष के अधिकार की घोषणा हुई। सन् 378 में सम्राट ग्रेषियन ने इसकी पुष्टि की। पापा दमासुस (सन् 366-83) ने यह स्पष्ट किया कि पापा का अधिकार प्रभु से प्राप्त है, न कि किसी सम्राट या महासभा से। रोम के अलावा येरुसालेम, अन्ताखिया, अलेक्साद्रिया तथा कॉस्टांन्टिनोपिल के धर्माध्यक्ष भी श्रेष्ठ माने जाते थे। इनमें कॉस्टान्टिनोपिल के धर्माध्यक्ष पूर्व के धर्माध्यक्षों में प्रमुख माने जाते थे। किन्तु रोमी धर्माध्यक्ष की भूमिका अनन्य मानी जाती थी।

पाँचवीं सदी में यूनानी भाषियों तथा लातीनी भाषियों के बीच विभाजन हुआ। पश्चिम और पूर्व की कलीसियाओं के बीच तनाव उत्पन्न हुआ और धीरे-धीरे इस तनाव ने विभाजन का रूप लिया। यह विभाजन दोनों की विचारधाराओं तथा शिक्षाओं में झलकने लगा।

छठवीं सदी बड़ी राजनैतिक उथल-पुथल का समय था। इटली के मोन्ते कसीनो में सन्त बेनेडिक्ट ने एक मठवासीय समुदाय की स्थापना की। उनका मंत्र था- काम करो और प्रार्थना करो। इस धर्मसमाज का यूरोप में बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा।

1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
1. किसी को पितामह की मानोपाधि देने की क्या शत्र्तें थी?
2. गैर-ख्रीस्तीय, ख्रीस्तीय विश्वासियों के किन कार्यों की सराहना करते थे?
3. ख्रीस्तीयों पर अत्याचार के क्या कारण थे?
4. किस सम्राट ने ख्रीस्तीय धर्म को राजकीय मान्यता प्रदान की और क्यों?
5. रोम के धर्माध्यक्ष को समस्त कलीसिया का प्रमुख क्यों और कैसे माना गया?

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति करो।
1. प्रेरितों की मृत्यु से लेकर सन् 749 का समय ........................... माना जाता है।
2. ......................ने स्वयं की आराधना करने की राज्याज्ञा निकाली।
3. ...........................ने यात्रा के दौरान सात पत्र लिखे।
4. अध्यक्ष बाद में ............................... कहलाने लगे।
5. महिला शहीदों में................................और ........................ प्रमुख थीं।

3. किसने कहा-
1. शहीदों का रक्त कलीसिया का बीज है।............
2. हर स्थानीय कलीसिया को चाहिए कि वह रोम की कलीसिया के साथ सहमत हो।..................
3. रोम के धर्माध्यक्ष के साथ सहभागिता का अर्थ है कलीसिया के साथ सहभागिता।.....................
4. संत पापा का अधिकार प्रभु से प्राप्त है न कि किसी सम्राट या महासभा से।.......................






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