कलीसियाइ इतिहास

3 - मध्ययुग की कलीसिया

सन् 600 से 1300 तक का समय, जिसको हम मध्ययुग कहते हैं, कलीसिया के प्रचार-प्रसार की अवधि थी। परन्तु यह विस्तार राजनैतिक शक्तियों के दबाव के कारण यूरोप तक ही सीमित रहा। इस अवधि में कई राष्ट्रों और समूहों ने प्रभु येसु को स्वीकार किया। कलीसिया और राष्ट्रों के बीच में कहीं कहीं तनातनी भी बनी रही तो पश्चिम में राष्ट्र एवं कलीसिया ने मिलकर एक प्रकार के ईसाई-जगत को रूप दिया। कभी कभी संत पापा और राजाओं के बीच में तनाव भी पैदा होता था।

मध्ययुग में कई क्षेत्रों में तरक्की हुई। इस काल ने कई संतों तथा विद्वानों को कलीसिया को प्रदान किया। कला, साहित्य, वस्तुकला तथा ईशशास्त्र के क्षेत्रों में ख्रीस्तीय संस्कृति की विशेष प्रगति हुई। यूरोप एक ख्रीस्तीय महाद्वीप बन गया। इस में संत ग्रिगरी महान, जो सन 590 से सन 604 तक संत पापा रहे, की बड़ी भूमिका रही है। आठवीं सदी में सन्त बोनिफस ने जर्मनी में सुसमाचार फैलाने के लिए काफी परिश्रम किया।

नवीं सदी के अन्त तक सांसारिक बातों का पुरोहितों पर बडा प्रभाव पड़ने लगा। राजनीति का दबाव कलीसिया पर बना रहा। धीरे-धीरे कलीसिया में प्रचलित दुनियावी दृष्टिकोण के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया के रूप में कुछ लोग मठवासीय जीवन में रुचि लेने लगे।

पूर्व और पश्चिम के बीच में कलीसियाई बातों पर कई प्रकार के अन्तर प्रकट हाने लगे। सन् 730 में कुस्तुनतुनिया के सम्राट लियो तेरहवें ने ख्रीस्तीय विश्वासियों द्वारा मूर्तियों तथा सन्तों के चित्रों की उपासना को मना करते हुए एक आदेश जारी किया। यह मानकर कि बाइबिल इस प्रकार की मूर्तिपूजा के विरुद्ध है उन्होंने सभी धार्मिक मूर्तियों तथा चित्रों का नाष करने की आज्ञा दी। संत पापा ग्रिगरी तृतीय तथा पूर्व के कई ख्रीस्तीय विश्वासियों ने इसका विरोध किया। सन् 787 में सम्राट ऐरीन ने नैसिया (Nicea) की दूसरी महासभा बुलाकर मूर्तियों की उपासना की पुनः अनुमति प्रदान की। महासभा ने यह अन्तर स्पष्ट किया कि उपासना सन्तों के प्रतिरूप में बनाई गई मूर्तियों को दी जाती है और आराधना केवल ईश्वर को ही दी जाती है। लोगों को विश्वास की सच्चाईयों के बारे में समझाने हेतु मूर्तियों तथा चित्रों के उपयोग करने की परम्परा कैथलिक कलीसिया में सदियों से चली आ रही है। सन्त पापा ग्रिगरी महान का यह मानना था कि चित्र सामान्य लोगों, विशेषकर अनपढ़ लोगो, के लिए पुस्तक के समान है। इन माध्यमों के ज़रिए विश्वासी ईश्वर के अनुभव में आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं।

नवीं सदी में कलीसिया को काफी राजनैतिक समर्थन मिला। सन्त पापा की भूमिका भी प्रभावषाली बन गई। सन् 823 में सम्राट लोथार का राज्याभिषेक रोम में सम्पन्न हुआ। उस समय से रोमी साम्राज्य के सभी सम्राटों का राज्याभिषेक रोम में ही हुआ करता था। सन्त पापा निकोलास प्रथम ने यह शिक्षा दी कि सम्राट का अधिकार कलीसिया की रक्षा करने के लिए है, न कि कलीसिया पर शासन करने के लिए। कभी कभी सम्राटों ने राजनैतिक शक्ति के बल-बूते पर अपने दुनियावी मतलबों के लिए पापा तथा धर्माध्यक्षों को नियुक्त किया। ऐसी स्थिति में जो नियुक्त किये गये थे, वे कई बार आध्यात्मिक दृष्टि से अयोग्य साबित हुए। यह शोचनीय सच्चाई है कि कलीसिया के नेतृत्व में कमज़ोरी, अयोग्यता तथा दुर्गुणों के कारण ईश्वरीय कार्य में कभी कभी बाधा उत्पन्न हुई है। मानवीय बलहीनताओं के बावजूद भी ईश्वर अपनी कलीसिया को हर मुसीबत से उबरने की कृपा प्रदान करते रहे।

संत पापा तथा कॉस्टान्टिनोपिल के प्राधिधर्माध्यक्ष के बीच कई ईशशास्त्रीय तथा प्रषासनिक बिन्दुओं पर वैमनस्य प्रकट होता रहा जिसने बाद में एक विच्छिन्न सम्प्रदाय (schism) का रूप धारण कर लिया। पाष्चात्य कलीसिया में यह माना जाता था कि संत पापा का विष्वव्यापी कलीसिया में प्रशासन तथा प्रामाणिक शिक्षा, दोनों का अधिकार है। लेकिन पूर्वी कलीसिया का यह मानना था कि सभी प्राधिधर्माध्यक्षों का अपने अपने धर्मक्षेत्रों में समान अधिकार है और एक को दूसरे के धर्मक्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। ईशशास्त्र में भी दोनों के बीच भिन्नता थी। सन् 381 कॉस्टान्टिनोपिल की महासभा में जो धर्मसार स्वीकार किया गया था उसमें पवित्र आत्मा ’’पिता से प्रसृत’’ बताया गया था। यह पूर्व और पश्चिम की कलीसियाओं के लिए वैध शिक्षा थी। परन्तु सन् 589 में तोलेदो की महासभा में इस वाक्यांष के साथ ’’और पुत्र’’ जोड़ा गया। फलस्वरूप पष्चिमी कलीसिया पवित्र आत्मा को ’’पिता और पुत्र से प्रसृत’’ मानने लगे। पूर्वी कलीसिया के धार्मिक नेता इस परिवर्धन से असंतुष्ट थे। सन् 1054 में यह विच्छिन्न सम्प्रदाय तब अपनी चरमसीमा तक पहुँच गया जब संत पापा और कॉस्टान्टिनोपिल के प्राधिधर्माध्यक्ष ने एक दूसरे को कलीसिया से बहिष्कृत किया कर दिया। समय बीते बीते विभाजन का घाव गहराता गया। इस आपसी बहिष्कार को सन 1965 में संत पापा पौलुस 6वें और कॉस्टान्टिनोपिल के प्राधिधर्माध्यक्ष अतनागोरस ने मिलकर रद्द किया और उस समय से दोनों कलीसियाओं के बीच मेल-मिलाप का वातावरण पुनः स्थापित हुआ। दोनों कलीसिया समुदायों के नेता पूर्ण एकता की कोशिश में लगे हैं।

कलीसिया और राष्ट्र के बीच का संघर्ष बारहवीं सदी में सबसे ज्यादा तेज हुआ। संत थॉमस बेकिट इसका एक उदाहरण है। केन्टरबरी के थॉमस ने कलीसिया की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष किया। इस सिलसिले में राजा हेनरी द्वितीय के भय से थॉमस ने फ्रांस की ओर पालायन किया और वहाँ 6 साल बिताये। सन् 1170 में थॉमस की लोकप्रियता के कारण राजा ने उन्हें वापस आने दिया। थॉमस लगातार संत पापा का समर्थन करते रहे। इस पर राजा बहुत क्रुद्ध हुआ और उसके सिपाहियों ने केन्टरबरी के महागिर्जा की वेदी के सामने ही थॉमस की हत्या की। इस घटनाक्रम से सारा यूरोप कॉप उठा। संत पापा ने राजा हेनरी को कलीसिया से निष्कासित किया। हेनरी ने पश्चात्ताप किया तथा कलीसिया के विरुद्ध अपना दावा वापस लिया। सन 1173 में थॉमस बेकिट धन्य घोषित किये गये।

कलीसियाई इतिहास में बारहवीं और तेरहवीं सदी के क्रूसयुद्ध (crusades) हमें कई शर्मनाक घटनाओं की याद दिलाते हैं। क्रूसयुद्ध कलीसिया द्वारा चलाया गया सैनिक अभियान था जिसके ज़रिए पवित्र भूमि को मुसलमानों के कब्जे से मुक्त कराने की कोशिश की गई थी। यह ख्रीस्तीय विश्वास की रक्षा के लक्ष्य से चलाया गया था। संत अगुस्तीन ने अपनी शिक्षा में न्यायसंगत लड़ाई का ज़िक्र किया था। कलीसिया का यह विश्वास था कि क्रूसयुद्ध भी एक न्यायसंगत युद्ध है। कलीसिया क्रूसयुद्ध में भाग लेने वालों को अपने पापों के नियत दण्ड की माफी देती थी। संत पापा उर्बानो द्वितीय (Urban II) जिसने प्रथम क्रूसयुद्ध का आह्वान किया था, ने यह स्पष्ट किया था कि कोई भी व्यक्ति सांसारिक महिमा, मान-सम्मान और अन्य दुनियावी मतलबों को लेकर क्रूसयुद्ध में शामिल न हो। सिद्धान्त रूप से क्रूसयुद्ध को हम न्यायसंगत ठहरा सकते हैं लेकिन मानवीय दुर्बलताओं के कारण क्रूसयुद्ध के कुछ नतीज़े वास्तव में शर्मनाक थे।

तेरहवीं सदी ने कलीसिया को कुछ प्रतिष्ठित सन्तों को प्रदान किया। असीसी के सन्त फ्रांसिस ने दरिद्रता का जीवन बिताकर कलीसिया के पुनरुद्धार के लिए प्रयत्न करने हेतु एक धर्मसमाज की स्थापना की। उनके पदचिह्नों पर चलकर सन्त क्लारा ने महिलाओं के लिए भी एक धर्मसमाज की स्थापना की। इसी प्रकार स्पेन के दोमिनिक गुस्मन ने प्रवचन को महत्व देते हुए धर्मोपदेशकों के एक धर्मसमाज की स्थापना की। इन धर्मसमाजों ने कलीसिया के नवीनीकरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। तेरहवीं सदी ईशषास्त्रियों तथा ज्ञानियों का समय भी था। बोनावेंचर (1217-1274), एलबर्ट महान (1200-1280) तथा अक्वीनो के थॉमस (1225-1274) इनमें प्रमुख थे। ईशशास्त्र तथा दर्षनशास्त्र में कलीसिया ने कई उपलब्धियाँ हासिल की।

1. प्रश्न
1. पूर्व और पश्चिम की कलीसियाओं में भिन्नता के प्रषासनिक तथा ईशशास्त्रीय कारण क्या-क्या थे?
2. संत थॉमस बेकिट की हत्या किस सन्दर्भ में की गयी थी?
3. क्रूसयुद्ध क्या है? तथा इसके क्या परिणाम हुए?
4. संत अगस्तीन ने अपनी शिक्षा में किस बात का जिक्र किया है?
5. तेरहवीं सदी के प्रतिष्ठित संतों एवं उनकी विशेषताओं के बारे में लिखिये।

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए।
1. सन्.......... से सन् ........... तक का युग कलीसियाई इतिहास का मध्ययुग कहलाता है।
2. जर्मनी में....................................ने सुसमाचार फैलाने के लिये अथक परिश्रम किया।
3. सन् 823 में .......................... का राज्याभिषेक रोम में हुआ।
4. थॉमस बैकिट की हत्या..............................के आदेश पर हुई।
5. ...........................महिलाओं के धर्मसमाज की स्थापना की।

3. सही जोड़ी बनाइए।
1. थॉमस बैकिट - क्रूसयुद्ध
2. सैनिक अभियान - मूर्ति उपासना
3. असीसी के संत फ्रंसिस - केन्टरबरी
4. नैसिया की महासभा - दरिद्रता

4. गृहकार्य: निम्न व्यक्ति कैथलिक कलीसिया में क्यों महान माने जाते हैं? हरेक के बारे में कम से कम 300 शब्दों का निबन्ध लिखिए।
1. अक्वीनो के संत थॉमस
2. संत बोनावेंचर
3. संत एलबर्ट महान






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