कलीसियाइ इतिहास

9 - भारतीय कलीसिया की परिकल्पना

द्वितीय वतिकान महासभा कलीसियाई इतिहास के आधुनिक काल की एक महत्वपूर्ण घटना थी। इस सभा का मकसद ही कलीसिया का नवीनीकरण था। कलीसिया के हर क्षेत्र में इस नवीनीकरण का प्रभाव अवश्य पड़ा। सोलहवीं सदी में रॉबर्ट बेल्लरमिन (1542-1621) ने कलीसिया की परिभाषा इन शब्दों में व्यक्त कीः ’’एकमात्र तथा यथार्थ कलीसिया, सच्चे ख्रीस्तीय विश्वास की घोषणा, सात संस्कारों के अनुष्ठान तथा वैध अधिकारियों विशेषतः कलीसिया के परमाध्यक्ष, संत पापा के संरक्षण में एकत्रित मनुष्यों का समुदाय है।’’ उस समय से लेकर कलीसिया को एक दृश्य समुदाय के रूप में समझा जाता था। इस परिभाषा के अनुसार यह कहना आसान था कि कौन कलीसिया का अंग है और कौन नहीं। इसके फलस्वरूप कलीसियाई अधिकारियों तथा ईश शास्त्रियों ने संस्था, नियम, संहिता, अधिकार आदि पर ज़ोर दिया। यह प्रवृत्ति कभी-कभी संस्थावाद (Institutionalism), विधिवादिता (Legalism) तथा धर्मतंत्रवाद (Hierarchism) का रूप ले लेती थी।

द्वितीय वतिकान महासभा में यह दृष्टिकोण बदल गया। महासभा ने कलीसिया को कोई नई परिभाषा देने से इंकार कर दिया। सभा की सबसे बड़ी उपलब्धी यह थी कि उन्हें यह ज्ञात हुआ कि कलीसिया एक रहस्य है तथा इसकी कोई परिभाषा नहीं हो सकती। कलीसिया रूपी रहस्य के विभिन्न विवरण, वर्णन या चित्रण दिये जा सकते हैं। परंतु कोई भी विवरण या चित्रण अपने ही में पर्याप्त नहीं हो सकता।

महासभा ने कलीसिया का विवरण देते हुए यह सिखाया कि कलीसिया सहभागिता (Communion) है जो पवित्र त्रित्व की सहभागिता पर आधारित है। वास्तव में कलीसियाई सहभागिता त्रिएकेश्वरीय सहभागिता (Trinitarian Communion) में साझेदार होना है। सन् 1990 में एशियाई धर्माध्यक्ष संघों के संगठन (Federation of Asian Bishops’ Conferences) ने इंडोनेशिया के बांडुंग शहर में एकत्र होकर एशियाई कलीसिया के लिए एक परिकल्पना बनाई कि वे उसे समुदायों की सहभागिता (Communion of Communities) बनायेंगे। सन् 1996 में त्रिवेन्द्रम में भारतीय धर्माध्यक्ष संघ (Catholic Bishops' Conference of India) की बैठक में हमारे धर्माध्यक्षों ने यह परिकल्पना की कि भारतीय कलीसिया को समुदायों की सहभागिता बनायेंगे।

येसु ख्रीस्त जयंती 2000 के अवसर पर हमारे धर्माध्यक्षों ने इस परिकल्पना को पुनः दोहराया। भारतीय धर्माध्यक्ष संघ (CBCI) इस दिशा में विभिन्न जागृति तथा प्राण-संचारण (Animation) के कार्यक्रमों का आयोजन करते आ रहा है। इस परिकल्पना को कार्यान्वित करने के लिए धर्माध्यक्षों ने हर धर्मप्रान्त में लघु-ख्रीस्तीय समुदायों का गठन करने का निर्णय लिया।

समुदाय और भीड़ में बड़ा अंतर होता है। भीड़ में लोग एक-दूसरे को नहीं पहचानते, आपस में संबंध नहीं रखते तथा एक-दूसरे के प्रति कोई गहरी भावना नहीं दिखाते हैं। उनका रिश्ता अस्थायी एवं क्षणभर का ही है। परन्तु समुदाय में लोग एक-दूसरे को पहचानते हैं, एक-दूसरे की जरूरतों तथा भावनाओं को समझते हैं। समुदाय के सदस्यों के बीच एक प्रकार की आत्मीयता पैदा होती है। जब हम प्रभु येसु की शिक्षा पर ध्यान देते हैं तो हमें यह अवश्य ज्ञात होता है कि जिस ख्रीस्तीय जीवन की कल्पना व आशा प्रभु येसु करते हैं उसके लिए उपयुक्त वातावरण समुदाय ही दे सकता है। हमारे धर्माध्यक्षों ने इस सच्चाई को पहचाना एवं परखा है। उन्हें यह ज्ञात हुआ कि भारतीय कलीसिया को समुदायों की सहभागिता बनाने के लिए लघु ख्रीस्तीय समुदायों को प्रोत्साहन देना ज़रूरी है।

भारत के विभिन्न धर्मप्रान्तों में लघु ख्रीस्तीय समुदायों के गठन की कोशिश युद्ध स्तर पर चल रही है। कई बड़ी पल्लियों में लोगों का यह अनुभव रहा है कि विश्वासियों का एक समुदाय बनना मुश्किल है क्योंकि उनकी संख्या बड़ी है। जब पल्लिवासियों की संख्या हजारों में है तो उनके बीच सहभागिता, मेलमिलाप, सहकारिता तथा आत्मीयता की आशा हम कैसे कर सकते हैं? इसी कारण सहभागिता को दैनिक जीवन में संभव बनाने हेतु पल्लिवासियों को छोटे-छोटे समुदायों में जीवन बिताने की प्रेरणा देना ज़रूरी है।

लघु ख्रीस्तीय समुदायों में ख्रीस्तीय विश्वासी पड़ोस में एकत्रित होते हैं, ईश वचन में जुड़े हुए रहते हैं, परस्पर सहयोग द्वारा मिलकर कार्य करते हैं तथा हर तरह से संपूर्ण नवीनीकरण का लक्ष्य रखते हैं।

आदिम कलीसिया ने छोटे घरेलू गिरजाघरों का आदर्श अपनाया था। विश्वव्यापी कलीसिया तब तक सिद्धांत तक ही सीमित रहती है जब तक उसकी अभिव्यक्ति लघु ख्रीस्तीय समुदायों में न हो। लोग पड़ोस में रहने वाले ख्रीस्तीय विश्वासियों के समुदाय से ही विश्वव्यापी कलीसिया को पहचानते हैं। हमारे आस-पड़ोस क्षेत्र वह वास्तविक जीवन क्षेत्र है जहाँ हमारी जिंदगी बनती या बिगड़ती है। विश्वव्यापी कलीसिया की तरफ से अपना दायित्व पड़ोस में निभाना हरेक लघु ख्रीस्तीय समुदाय का कर्त्तव्य है।

पहले विश्वासियों का यह विचार था कि कलीसिया केवल फादर-सिस्टरों की है। आज लोग इस सच्चाई को पहचानने लगे हैं कि ’’कलीसिया हम हैं।’’ लोकधर्मी अपने ही तरीके से ख्रीस्त के राजकीय, याजकीय तथा नबीय सेवाकार्य के सहभागी बनते हैं। परिवार को घरेलू कलीसिया कहा जाता है। परिवार के सदस्यों के बीच का सम्बंध खून पर आधारित है। लेकिन लघु ख्रीस्तीय समुदाय के सदस्यों के आपसी सम्बंधों का आधार ईशवचन है और इसी कारण यह पारिवारिक संबंधों से और अधिक घनिष्ठ होता है (देखिए लूकस 8:19-21)।

लघु ख्रीस्तीय समुदाय में जब हम मिलकर कलीसिया के स्वरूप को अभिव्यक्त करते हैं तो हमें यह समझना भी ज़रूरी है कि हम विश्वव्यापी कलीसिया से अलग नहीं है। सार्वत्रिक कलीसिया से हटकर किसी भी लघु ख्रीस्तीय समुदाय का कोई अस्तित्व नहीं है। इसी कारण हर लघु ख्रीस्तीय समुदाय अपनी पल्ली तथा धर्मप्रांत से हमेशा जुड़ा रहता है तथा अन्य लघु ख्रीस्तीय समुदायों के साथ सहभागिता में जीवन बिताता है। इस सहभागी कलीसिया के साक्षात्कार के लिये भारत के हरेक ख्रीस्तीय विश्वासी को कलीसिया के सभी कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेना तथा दूसरे विश्वासियों के साथ मिलकर जीना एवं कार्य करना होगा।


1. निम्न प्रश्नों के उत्तर लिखिए:-
1. रॉबर्ट बेल्लरमिन की कलीसिया की परिभाषा लिखिए।
2. एशियाई धर्माध्यक्ष संघों के संगठन ने सन् 1990 में एशियाई कलीसिया के लिए क्या परिकल्पना बनाई?
3. लघु ख्रीस्तीय समुदायों के गठन से क्या लाभ है?
4. लघु ख्रीस्तीय समुदायों के सदस्यों का आपसी संबंध पारिवारिक संबंधों से भी अधिक घनिष्ठ क्यों माना जाता है?

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए।
1. कलीसियाई सहभागिता .........................................में साझेदार होना है।
2. विश्वव्यापी कलीसिया तब तक सिद्धांत तक ही सीमित रहती है जब तक उसकी अभिव्यक्ति ........................................... में न हो।
3. लोकधर्मी अपने ही तरीके से ख्रीस्त के ..............., ................ तथा ............. सेवाकार्य के सहभागी बनते हैं।

3. गृह-कार्यः अपनी पल्ली में भारतीय कलीसियाई परिकल्पना को कैसे साकार बना सकते हैं - इस विषय पर कम से कम 700 शब्दों का निबंध लिखिए।






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