आध्यात्मिक मन्ना

प्रभु के इशारे पर चलना सिखो!

फा. रोनाल्ड वॉन


ऐसा बताया जाता है कि एक बार सर इसहाक न्यूटन सेब के एक पेड़ के नीचे बैठे हुये थे| तभी उन्होंने सेब को पेड़ से नीचे गिरता हुआ देखा। सेब को धरती की ओर नीचे गिरते हुये देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ कि सेब नीचे ही क्यों गिरते हैं, ऊपर की ओर क्यों नहीं जाते? इस बात को लेकर उन्होंने गहरा सोच-विचार तथा शोध-कार्य किया। कई वर्षो के शोध-कार्य के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यह सब धरती के गुरूत्वाकर्षण बल के कारण होता है।

हम जानते है कि सेब जब से पेड़ो पर लगने शुरू हुये तभी से वे नीचे ही गिरते चले आ रहे हैं तथा सर इसहाक न्यूटन ऐसे पहले व्यक्ति नहीं थे जिन्होंने सेब को पेड़ से गिरते हुए देखा। सैकडों एवं हजारों लोगों ने प्रकृति की इस प्रक्रिया को देखा था। कुछ ने इस पर विचार किया होगा, कुछ ने गहराई से सोच-विचार किया होगा। लेकिन अंत में केवल सर इसहाक न्यूटन ही थे जिन्होंने सेब या वस्तुएँ नीचे गिरने के वास्तविक कारण को दुनिया के सामने प्रस्तुत किया।

जो काम सर इसहाक न्यूटन ने भौतिक शास्त्र से लिए किया वही कार्य इब्राहीम ने ’विश्वास’ के लिये किया। भौतिकी में जो स्थान इसहाक न्यूटन का है वही स्थान धर्म एवं विश्वास में पिता इब्राहीम का है। ये दोनों अपने-अपने क्षेत्रों में अमर हैं क्योंकि इनमें जो वे देखते एवं सुनते थे उसकी वास्तविकता तक पहुँचने का साहस, दृढ़ता, प्रतिबद्धता एवं निरंतरता थी।

इब्राहीम ने ईश्वर की बुलाहट को सुना जिन्होंने उनसे कहा, ’’अपना देश, अपना कुटुम्ब और अपने पिता का घर छोड़ दो और उस देश जाओ, जिसे मैं तुम्हें दिखाऊँगा। मैं तुम्हारे द्वारा एक महान राष्ट्र उत्पन्न करूँगा, तुम्हें आशीर्वाद दूँगा और तुम्हारा नाम इतना महान बनाऊँगा कि वह कल्याण का स्रोत बन जायेगा - जो तुम्हें आशीर्वाद देते हैं, मैं उन्हें आशीर्वाद दूँगा। जो तुम्हें शाप देते हैं, मैं उन्हें शाप दूँगा। तुम्हारे द्वारा पृथ्वी भर के वंश आशीर्वाद प्राप्त करेंगे।’’ तब अब्राम चला गया, जैसा कि प्रभु ने उस से कहा था...’’(उत्पत्ति 12:1-4)। इस तरह किसी को कोई काम देने का बड़ा ही विचित्र तरीका था। ईश्वर ने अब्राम को यह नहीं बताया कि उसे किस दिशा में जाना है, यात्रा के बारे में कोई निर्धारित जानकारी नहीं दी, कहाँ पर जाकर उसे यह प्रतिज्ञात देश प्राप्त होगा, किन-किन परिस्थितियों का सामना करना होगा इत्यादि। केवल एक आदेश एवं रहस्यमय प्रतिज्ञा। अब्राम अपने आंतरिक साहस का आह्वान करना तथा परमेश्वर की इस बुलाहट को एक मौका देना चाहता है। वह अपने मित्रों, परिजनों, पिता का घर, सुरक्षा एवं मैलजोल आदि को पीछे छोड़कर उस देश की ओर रवाना हो जाता है जिसकी प्रतिज्ञा परमेश्वर ने उससे की थी।

यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि पिता परमेश्वर ने न सिर्फ अब्राम को बुलाया बल्कि उन असख्ंय संतों एवं पवित्र लोगों को भी जो बाद के वर्षों में आये। उन्होंने लोगों को बुलाना कभी नहीं छोड़ा। वे निरतंर हमें भी बुलाते रहते हैं, लेकिन हम में से अधिकांश लोग इस बुलाहट का उत्तर देने का गंभीर प्रयास नहीं करते। परन्तु हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि ईश्वर की बुलाहट का उत्तर देना आसान काम भी नहीं है। इब्राहीम को देखिए- उनको सब कुछ पीछे छोड़कर आना पड़ा, उन्हें जीवन की अनिश्चितताओं का सामना करना पड़ा, वे बुढ़े हो चले थे, जीवन की कठिनताओं ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। लेकिन इन सब के बावजूद भी वे ईश्वर की बुलाहट में प्रतिबद्ध बने रहे क्योंकि वे जानते थे कि जो साहसिक कदम उन्होंने उठाया था उसका अंत महिमांवित होगा - ठीक उसी प्रकार जिसकी प्रतिज्ञा ईश्वर ने की थी। इब्राहीम में रोजमर्रा के जीवन को छोड़कर कुछ नया करने का साहस था। जो उन्होंने सुना था उस पर उन्होंने विश्वास किया।

किसी ने कहा है, ’’जीवन एक परीक्षा है, जिसमें अधिकांश लोग फेल हो जाते हैं क्योंकि वे एक-दूसरे की नकल करते हैं। एक-दूसरे की नकल करते समय वे यह भूल जाते हैं कि हम सभी को अलग-अलग प्रश्न-पत्र दिया जाता है’’। यह कहावत हमारी रूढिवादी दैनिक जीवनचर्या पर सही बैठती है। हम धर्मग्रंथ को जानते हैं, यूखारिस्तीय संस्कार में भाग लेते हैं, प्रार्थनाएं करते एवं पढ़ते हैं। लेकिन येसु में हमारा विश्वास, मन-परिवर्तन की उनकी बुलाहट, उनके वचन एवं प्रतिज्ञाएं आदि हमारे वास्तविक एवं व्यवहारिक जीवन में बदलाव नहीं ला पाते हैं। येसु का पुनरूत्थान हमें अपनी जीवन की बोझिलता से बाहर नहीं निकाल पाता। येसु की शिक्षाओं को जीवन की वास्तविकता बनाने में साहस, विश्वास, दृढ़ता, प्रतिबद्धता एवं निरंतरता की आवश्यकता होती है जैसा की पिता इब्राहीम ने अपनी बुलाहट के प्रतिउत्तर में प्रदर्शित की थी।

संतों एवं पवित्रजनों का जीवन हमारे विश्वास के खोखलेपन को उजागर कर देता है। हम मानवीय विचारधाराओं एवं भावनाओं की सीमाओं को तोड़ नहीं पाते हैं। संसार यह सिखलाता है कि हमें ’किसी भी प्रकार से ऊपर उठना चाहिये, आगे बढ़ना चाहिए, बड़ा बनना चाहिए, धनी तथा सफल बनना चाहिए’’। लेकिन येसु की बुलाहट को सुनकर उसका अनुगमन करने का मतलब यह भी है कि हम अपनी सारी महत्वकांक्षाओं एवं निपुणताओं को पीछे छोड़ दे, उन सभी विचारों, आदर्शों एवं वस्तुओं को जिन्हें हम उपयोगी समझते हैं त्याग दें और केवल उनकी इस प्रतिज्ञा पर निर्भर रहें, ’’. . .मैं संसार के अंत तक सदा तुम्हारे साथ हूँ’’(मत्ती 28:20)। एलिज़ाबेथ बेरेट ब्राउनिंग लिखती है, ’’धरती स्वर्ग से भरी पड़ी है, हर झाड़ी ईश्वरीय आग से धधक रही है, लेकिन जो ऐसा देखते हैं केवल वे ही अपने पैरों से जूते उतारते हैं, दूसरे लोग फल तोडते, और टहलते रहते हैं।’’ हमारी बुलाहट अपने पैरों से जूते उतारने की है (देखिए निर्गमन 3:5)।


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