धिक्कार मुझे, यदि मैं सुसमाचार का प्रचार न करूँ!

कई लोग ईसाइयों पर यह आरोप लगाते हैं कि वे दूसरों को ईसाई बनाने की कोशिश करते हैं। इस पर मेरी प्रतिक्रिया क्या है? प्रेरित-चरित में हम पढ़ते हैं कि जब पौलुस राजा अग्रिपा के सामने बहुत प्रभावशाली ढ़ंग से प्रभु येसु के जीवन, दुखभोग तथा पुनरुत्थान का विवरण दे रहे थे, तो राजा ने पौलुस से सवाल किया था, “तुम तो अपने तर्कों द्वारा मुझे सरलता से मसीही बनाना चाहते हो? ” (प्रेरित-चरित 26:28) इस पर पौलुस ने उसका खंडन नहीं किया बल्कि जवाब दिया, “सरलता से हो या कठिनाई से, ईश्वर से मेरी यह प्रार्थना है कि न केवल आप, बल्कि जो लोग आज मेरी बातें सुन रहे हैं, वे सब-के-सब इन बेडियों को छोड़ कर मेरे सदृश बन जायें” (प्रेरित-चरित 26:29)। संत पौलुस के जवाब पर ध्यान दीजिए। वे यह नहीं कहते हैं कि मैं आपको या सबको मसीही बनाना चाहता हूँ, बल्कि कहते हैं वे ईश्वर से प्रार्थना करते हैं ईसाई होने के नाते उन्हें जो मुक्ति का अनुभव मिला है, वह दूसरों को भी मिले। उनको मालूम है कि कोई भी मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य को मसीही या ईसाई नहीं बना सकता। जिन्हें ईश्वर आकर्षित करते हैं और जिन पर ईश्वर उस अनुभव की कृपा बरसाते हैं, वे स्वतंत्रता से स्वयं में ईश्वर के महान कार्य में सहयोग देकर येसु को अपने मुक्तिदाता और ईश्वर के रूप में स्वीकार कर सकते हैं। इस प्रकार जो येसु को प्रभु और मुक्तिदाता के रूप में स्वीकार करते हैं, वे बपतिस्मा संस्कार के द्वारा कलीसिया के सदस्य बनते हैं।

हम ख्रीस्त को पाकर शांति और आनन्द महसूस कर रहे हैं। हम चाहते हैं कि दूसरों को भी यह अनोखा अनुभव मिले। इसलिए हम दूसरों को भी येसु और येसु के सुसमाचार के बारे में बताते हैं। इस के लिए हम किसी को बाध्य नहीं करते हैं, और न ही किसी पर दबाव डालते हैं। श्रीलंका का एक सुसमाचार-सेवक इस की तुलना एक भूखे भिखारी से करता है जो स्वादिष्ट भोजन पाने पर दूसरे भूखे भिखारियों को यह बताता है कि कहाँ स्वादिष्ट भोजन मिल सकता है। वह भिखारी यह चाहता है कि उसका कोई भी साथी भूखा न रहें। ठीक इसी प्रकार ख्रीस्तीय भाई-बहन दूसरों के साथ अपनी मुक्ति का अनुभव बाँटना चाहते हैं। यह कार्य हम किसी दूसरे धर्म का विनाश करने के मतलब से नहीं बल्कि अपने अनोखे अनुभवों को बाँटने के मतलब से ही करते हैं। हमारी यह इच्छा है कि सभी लोग इस मुक्ति का अनुभव करें। हम किसी को ईसाई बनाने की कोशिश नहीं करते हैं। हमको यह मालूम हैं कि हम किसी को भी ईसाई नहीं बना सकते हैं। योहन 6:44 में प्रभु येसु स्वयं कहते हैं, “कोई मेरे पास तब तक नहीं आ सकता, जब तक कि पिता, जिसने मुझे भेजा, उसे आकर्षित नहीं करता”।

जब कोई किसी राजनीतिक पार्टी का सक्रिय सदस्य बनता है और उसे एहसास होता है कि मेरी पार्टी सबसे अच्छी पार्टी है, तो वह दूसरों को उस पार्टी में शामिल करने की कोशिश करता है। किसी क्लब के बारे में भी हम यह कह सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति एक अच्छी पिक्चर देखता है और उसके बाद वह अपने दोस्तों को बोलता है कि आप लोग भी उसे देखने जाइए तो यह एक साधारण सी बात है।

जिस किसी को कुछ खजाना मिल जाता है, अगर वह दूसरों को प्यार करता है, तो वह अवश्य ही दूसरों को उस खजाने के बारे में बतायेगा ताकि वे भी जाकर उस खजाने को पायें। प्रभु येसु कहते हैं, “तुम संसार की ज्योति हो। पहाड़ पर बसा हुआ नगर छिप नहीं सकता। लोग दीपक जला कर पैमाने के नीचे नहीं, बल्कि दीवट पर रखते हैं, जहाँ से वह घर के सब लोगों को प्रकाश देता है। उसी प्रकार तुम्हारी ज्योति मनुष्यों के सामने चमकती रहे, जिससे वे तुम्हारे भले कामों को देख कर तुम्हारे स्वर्गिक पिता की महिमा करें।“ (मत्ती 5:14-16) संत पौलुस कहते हैं, “मैं इस पर गौरव नहीं करता कि मैं सुसमाचार का प्रचार करता हूँ। मुझे तो ऐसा करने का आदेश दिया गया है। धिक्कार मुझे, यदि मैं सुसमाचार का प्रचार न करूँ!” (1 कुरिन्थियों 9:16) ईश्वर नबी एजेकिएल से कहते हैं, “चाहे वे सुनें या सुनने से इनकार करें, तुम मेरे शब्द उन्हें सुनाओगे” (एजेकिएल 2:7)। इन सब का एक ही सन्देश है – ख्रीस्तीय विश्वास को स्वीकार करने वाले, उस विश्वास को दूसरों के साथ बाँटना चाहते हैं।

कोई भी सच्चा ईसाई किसी दूसरे व्यक्ति पर दबाव डाल कर या उसे झूठ बोल कर अपने धर्म की ओर आकर्षित करने की कोशिश नहीं करता। येसु ने भी किसी को लुभाने की कोशिश नहीं की, बल्कि उन्हीं को ही अपने चेले बनने का न्यौता दिया जो अपना दैनिक क्रूस लेकर उनके पीछे चलने के लिए तैयार थे। ख्रीस्तीय धर्म इतना सस्ता नहीं है कि वह कुछ पैसों के लिए बिक जाय। अगर कोई इस प्रकार के कार्य करने की कोशिश करता है, तो उसे प्रभु येसु भी उचित नहीं ठहरायेंगे। योहन के सुसमाचार, अध्याय 6 में हम यह देखते हैं कि जब कई लोग यूखारिस्त के बारे में प्रभु की शिक्षा सुनने के बाद “यह तो कठोर शिक्षा है। इसे कौन मान सकता है?” कह कर प्रभु को छोड़ कर जा रहे थे, तब प्रभु ने न तो अपनी शिक्षा में कोई परिवर्तन किया और न ही उन्हें वापस लाने हेतु किसी प्रकार की कोशिश की।

-फादर फ़्रांसिस स्करिया


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