चक्र अ के प्रवचन

वर्ष का सातवाँ इतवार

पाठ: लेवी 19:1-2,17-18; 1 कुरिन्थियों 3:16-23; मत्ती 5:38-48

प्रवाचक: फादर रोनाल्ड वाँन


एक संपादक को अपनी पत्रिका के लिये संपादकीय लिखना था लेकिन उसको लिखने के लिये कोई अच्छा विषय नहीं मिल रहा था। इसी खोज में डूबा हुआ वह अपने घर की छत पर बैठा हुआ था कि उसने देखा कि एक व्यक्ति उसके बगीचे को नष्ट कर रहा था। उस संपादक ने छत पर से ही जोर-जोर से चिल्लाकर उस आदमी को पौधे उखाड़ने से रोकना चाहा। पर इसका उस आदमी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह बगीचे के पेड़-पौधे उखाड़ता रहा। इस पर संपादक को बहुत गुस्सा आया। वह तुरंत नीचे गया और बगीचे में पहुँच कर उस अनजान आदमी की बुरी तरह पिटाई कर दी। उसने उसे इतना मारा की वह लगभग मूर्छित हो गया। इसके बाद यह संपादक उसे ऐसे छोड़कर दुबारा अपनी छत पर आकर बैठ जाता है। थोड़ी देर बाद उस मूर्छित व्यक्ति को होश आता है और वह उठकर खड़े होने की कोशिश करता है। उसके उठने का ढंग कुछ अजीब सा था। यह देखकर उस संपादक को कुछ आश्चर्य सा महसूस होता है। अतः वह पुनः उस व्यक्ति के पास जाता है। इस बार गौर से देखने पर उसे पता चलता है कि वह व्यक्ति जो उसका बगीचा खराब कर रहा था न सिर्फ अंधा था बल्कि गूंगा और बहरा भी था। यह ज्ञात होते ही संपादक अपने कृत्य पर बहुत पछताता है एवं परिणामस्वरूप उस व्यक्ति को चिकित्सा कराने हेतु अस्पताल ले जाता है। यह सब करने के पश्चात् वह पुनः अपना संपादकीय लिखने बैठता है। लेकिन इस बार उसे विषय ढूँढने की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि वह इस अंधे व्यक्ति के साथ उसके बर्ताव को ही विषय चुनता है तथा अपने संपादकीय को बहुत ही अर्थपूर्ण शीर्षक देता है- ‘‘माफ कर दो उस मनुष्य को जो तुम्हारा बगीचा खराब करता है क्योंकि शायद वह अंधा हो‘‘।

इस संपादकीय का शीर्षक हमारे खीस्तीय जीवन की एक बहुत ही महत्वपूर्ण सच्चाई की ओर इशारा करता है। यह सच्चाई है ‘‘क्षमाशीलता‘‘। आज के सुसमाचार में प्रभु येसु इसी बात को समझाते हैं। पुराने विधान के अनुसार यदि एक मनुष्य दूसरे को कोई हानि पहुँचाता था तो पीड़ित व्यक्ति को यह अधिकार था कि अपने हर्जाने के रूप में उसे जिसने उसे हानि पहुँचाई है, उतना ही कष्ट या हानि पहुँचायें जितना कि उसे पहुँचायी गयी थी। इसलिये धर्मग्रंथ में हम पाते हैं- ‘‘आँख के बदले आँख, और दाँत के बदले दाँत‘‘। यह एक अच्छा नियम था जो समानता पर आधारित था इससे प्रतिकार की सीमा तो ज़रूर निर्धारित की जाती थी पर मानव के जीवन की समस्याओं का अंत नहीं होता था, बल्कि बदले की भावना को और अधिक उत्तेजित करता था। क्योंकि मौका मिलने पर लड़ने वाले फिर अपना बदला निकाल लेते थे। लेकिन यदि किसी के बुरे व्यवहार को अच्छाई से उत्तर दिया जाये तो बुराई करने वाले के सामने कोई विकल्प नहीं रहता है। वह अपने व्यवहार के प्रति सोचने पर मजबूर होता है कि इतना बुरा करने पर भी पीड़ित व्यक्ति का व्यवहार हमेशा अच्छा ही रहा। इस तरह, भले ही लंबे समय बाद, इस बुरे व्यक्ति को अपना व्यवहार बदलना ही पड़ता है। दूसरे शब्दों में, भलाई पर बुराई की जीत होती है। हम बल एवं कानून से किसी के बदले की भावना को जड़ से नहीं उखाड़ सकते हैं बल्कि कुछ देर के लिये उसे काबू में रखते हैं। 

एक अन्य बात जो महत्वपूर्ण है वह यह है कि हर मनुष्य अपने विचारों, कुंठाओ और भावनाओं का गुलाम होता है। अगर संपादक के नज़रिये से देखें तो वह सही था। क्योंकि हम में से कोई भी नहीं चाहेगा कि कोई अंजान व्यक्ति आकर हमारे बगीचे को खराब करे और शायद हमारी भी संपादक की जैसी ही प्रतिक्रिया हो। लेकिन अगर उस अंधे व्यक्ति के दृष्टिकोण से देखें, तो समझ पायेंगे कि वह व्यक्ति हर दृष्टि से निर्दोष था क्योंकि वह अपनी शारीरिक अपंगता के कारण लाचार था। यह बात संपादक के समझ में तब आती जब उसे इस बात का अहसास होता है कि सामने वाला अंधा, गूंगा और बहरा है। यह बात हमारे सामान्य जीवन के दैनिक क्रियाकलापों पर भी लागू होती है, जब हम ऐसे लोगों से मिलते हैं जो क्रोधी, अंहकारी, हिंसक, पक्षपाती या संकीर्ण विचारधारा के हो। इस तरह के सभी व्यक्ति अपनी भावनाओं के गुलाम होते हैं या संपादक की भाषा में कहें तो अंधे होते हैं। उन्हें इस बात का अहसास नहीं होता है कि जो वे कर रहे हैं उससे दूसरों को कितना कष्ट एवं पीड़ा पहुँचती है। ऐसे व्यक्तियों को सही रास्ता दिखाना ज़रूरी है लेकिन बल, दबाव एवं हठ के बिना। बल एवं दबाव के आधार पर हम शायद एक मामले को कागज़ी तौर पर हल कर सकते हैं लेकिन उसकी मूल जड़ को नष्ट नहीं कर सकते हैं। प्रभु की शिक्षा पर चलकर हम उनकी बुराई का उत्तर भलाई से दें तो बुराई को जड़ समेत उखाड़कर फेंका जा सकता है। इसी मनोभावना के साथ ही प्रभु ने अपने शत्रुओं के लिये प्रार्थना की थी, ’’पिता! इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं’’(लूकस 23:34)। इतना ही नहीं प्रभु कहते हैं, ‘‘यदि कोई तुम्हारे दाहिने गाल पर थप्पड़ मारे, तो दूसरा भी उसके सामने कर दो‘‘। ऐसा करने से मारने वाले के सामने शर्मिन्दगी के सिवा कोई विकल्प नहीं रह जायेगा। शायद हो सकता है कि मारने वाला दूसरे गाल पर भी थप्पड़ मार दे, लेकिन इससे क्या? वह कहाँ तक मारेगा? कोई भी मानव अपनी मानवता के विरुद्ध नहीं जा सकता। इतिहास इस बात का गवाह है कि जो मनुष्य अमानवीय हो गये थे वे या तो आत्महत्या कर लेते हैं या फिर घोर आंतरिक पीड़ा में जीवन जीते हैं। अगर हमारे शरीर के किसी भी अंग में कुछ पीड़ा हो तो हम उसका इलाज करते हैं, न कि उसको काटकर फेंक देते हैं। हमें भी चाहिये कि हम उन तथाकथित असामाजिक तत्वों का इलाज अपनी भलाई, क्षमाशीलता और भाईचारे से करें।

अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात। यदि कोई हमारे दाहिने गाल पर थप्पड़ मारता है और प्रभु की शिक्षा को याद कर उसके सामने दूसरा गाल भी करते हो शायद मारने वाला दूसरे पर भी मार देगा और शायद मारता ही जाये। लेकिन ऐसी स्थिति में भी हम हारेंगे नहीं क्योंकि हमें मालूम है कि कम से कम हमने प्रभु की शिक्षा का पालन तो किया। यह संतुष्टि किसी छिपे खजाने के मिलने से कहीं अधिक होगी।


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