चक्र अ के प्रवचन

चालीसे का दूसरा इतवार

पाठ: उत्पत्ति 12:1-4अ; 2 तिमथी 1:8ब-10; मत्ती 17:1-9

प्रवाचक: फादर रोनाल्ड वाँन


येसु का रूपांतरण शिष्यों के येसु से मुलाकात तथा उन्हें पहचानने की घटना थी। इस घटना में शिष्य पेत्रुस, योहन और याकूब येसु के दिव्य रूप को देखते हैं। वे उन्हें मूसा और एलियाह से बातें करते हुये देखते और सुनते हैं। वे पिता की वाणी को सुनते हैं जो येसु को उन्हें अपना पुत्र घोषित करती है। येसु के रूपांतरण के दर्शन करना तथा उन दिव्य घटनाक्रमों के साक्षी बनना एक संयोग नहीं थी बल्कि सुनियोजित योजना थी। येसु स्वयं इन तीनों शिष्यों को लेकर पहाडी पर चढे थे। वे चाहते थे कि ये तीनों शिष्य उनके वास्तविक दिव्य रूप को पहचाने तथा उसके अनुसार अपने आप को भविष्य में होने वाली घटनाओं के लिये तैयार करें।

येसु मूसा और एलियाह से ’’महिमा-सहित प्रकट हो कर येरूसालेम में होने वाली उनकी मृत्यु के विषय में बातें कर रहे थे।’’ (लूकस 9:31) शिष्य भी इस आने वाले दुखभोग एवं मरण की बातें सुनते हैं। इस वार्तालाप के द्वारा शिष्यों को इस बात का अहसास दिलाना था कि येसु को जब दुख भोगना, क्रूस उठाना तथा कलवारी पर मरना पडे तो उनका विश्वास न टूटे। यह सब पिता की इच्छानुसार पूर्व-निर्धारित घटना होगी। येसु जानते थे कि उनका दुखभोग एक साधारण घटना मात्र नहीं होगी। इससे अनेकों का विश्वास हिल जायेगा। किन्तु जो येसु को ’ईश्वर के पुत्र’ होने में विश्वास करते हो वे इस दौरान भी अपना विश्वास बनाये रखेंगे। इस दिव्य आध्यात्मिक अनुभव के द्वारा इन तीन शिष्यों का येसु में विश्वास अन्यों की अपेक्षा कहीं अधिक गहरा होना चाहिये था क्योंकि उन्होंने स्वयं इस अद्धितीय रूप को देखा था।

संत पेत्रुस अपने पत्र में इस घटना के अनुभव को विश्वास का महत्वपूर्ण स्तंभ बताते हैं तथा लोगों को विश्वास के लिये प्रेरित करते हुये लिखते हैं, ’’जब हमने आप लोगों को अपने प्रभु ईसा मसीह के सामर्थ्य तथा पुनरागमन के विषय में बताया, तो हमने कपट-कल्पित कथाओं का सहारा नहीं लिया, बल्कि अपनी ही आंखों से उनका प्रताप उस समय देखा, जब उन्हें पिता-परमेश्वर के सम्मान तथा महिमा प्राप्त हुई और भव्य ऐश्वर्य में से उनके प्रति एक वाणी यह कहती हुई सुनाई पड़ी, ’यह मेरा प्रिय पुत्र है। मैं इस पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।’’ (2 पेत्रुस 1:16-17)

येसु हमारे जीवन में भी हमें उनके दिव्य रूपांतरण का अनुभव कराते हैं। ये वे घटनायें होती हैं जब हम येसु से मिलते, उनका अनुभव करते तथा उनको ईश्वर के रूप पहचानते हैं। ऐसे अनुभव हमारे जीवन में गहरा प्रभाव डालते हैं। वे हमारी सोच तथा दृष्टिकोण को प्रभावित करते हैं तथा हमें आंतरिक बल प्रदान करते हैं जिससे हम जीवन की चुनौतियों को सामना ख्रीस्तीय विश्वास एवं मूल्यों के साथ कर सकें। ये घटनायें हमें वर्तमान में सांत्वना देती, भविष्य के लिये तैयार करती तथा हमारे विश्वास को नये आयाम पर ले जाती है।

हम पवित्र बाइबिल में कई ऐसी घटनाओं को पाते हैं जब ईश्वर ने अपने चुने हुये लोगों को अपना सामर्थ्य तथा दिव्य अनुभव कराया।

दाउद जब नवयुवक थे तो उन्होंने गोलियत नामक योद्धा से लडने की इजाजत मांगी। किसी को भी विश्वास नहीं था कि नवयुवक दाउद गोलियत के सामने टिक भी सकेगा। किन्तु दाउद राजा साउल को अपने ईश्वर अनुभव की बात बताते हुये कहते हैं कि किस प्रकार ईश्वर ने उनकी जंगली जानवरों से रक्षा की और कैसे वही ईश्वर उनको गोलियत से भी बचायेगा। ’’आपका यह दास जब अपने पिता की भेड़ें चराता था और कोई सिंह या भालू आ कर झुण्ड से कोई भेड़ पकड़ ले जाता, तो मैं उसके पीछे जा कर उसे मारता और उसके मुँह से उसे छीन लेता था और यदि वह मेरा सामना करता, तो मैं उसकी अयाल पकड़ कर उस पर प्रहार करता और उसे मार डालता था। आपके दास ने तो सिंहों और भालूओं को मारा है। इस बेखतना फिलिस्ती के साथ भी ऐसा ही होगा, .....प्रभु ने मुझे सिंह और भालू के पंजे से बचा लिया। वह मुझे उस फिलिस्ती के हाथ से भी बचायेगा।’’ (1समुएल 17:34-37)

दाउद ने अपने ईश्वर अनुभव में ईश्वर को पहचाना तथा उसी पहचान एवं अनुभव के द्वारा उन्होंने जीवनभर ईश्वर के विश्वस्त सेवक रहकर सेवा की। अपने स्तोत्र में ईश्वर को चरवाहे के रूप में प्रस्तुत करते हुये कहते हैं, ’’प्रभु मेरा चरवाहा है,.... चाहे अँधेरी घाटी हो कर जाना पड़े, मुझे किसी अनिष्ट की शंका नहीं, क्योंकि तू मेरे साथ रहता है। मुझे तेरी लाठी, तेरे डण्डे का भरोसा है।’’ (स्तोत्र 23:1,2)

उत्पति ग्रन्थ में याकूब की ईश्वर से भिंडत की घटना इस सच्चाई को बडे प्रभावशाली रूप प्रस्तुत करती है। जब याकूब अपने बडे भाई एसाव से धोखा करता है तो उसका भाई उसे जान से मारना चाहता था। इस कारण वह घर से भाग कर अपने मामा लाबान के यहॉ शरण लेता है। कई वर्ष बीत जाने के बाद वह अपने परिवार के साथ घर लौटना चाहता था। किन्तु उसमें अपने भाई का भीषण भय छा जाता है। याकूब रात में ईश्वर से आशिष के लिये प्रार्थना करता है। काफी जद्दोजहद के बाद जब ईश्वर उसे आशिष और नया नाम प्रदान करते हैं तो याकूब नये आत्म-विश्वास के साथ अपने क्रोधित भाई से मिलने जाता है। याकूब की ईश्वर से यह मुलाकात काफी गहरी थी। अपने इस ईश्वरीय अनुभव के कारण उसे डर और अनिश्चिता पर विजय प्राप्त करने में मदद मिली। (देखिये उत्पत्ति 32:23-33)

आज के पहले पाठ में अब्राम के बुलावे का वर्णन मिलता है। ईश्वर ने उसे अविस्मणीय पुरस्कार की प्रतिज्ञा की तथा उससे कहा, ’’अपना देश, अपना कुटुम्ब और पिता का घर छोड़ दो और उस देश जाओ, जिसे मैं तुम्हें दिखाऊँगा।’’ (उत्पत्ति 12:1) अब्राम के लिये यह आसान बात नहीं होगी; किन्तु उसने ईश्वर की वाणी जिसमें उसे प्रतिज्ञायें की गयी थी को कभी भुलाया नहीं। उनकी इस यात्रा में अनेक उतार-चढाव आये किन्तु इब्राहीम सदैव दृढ बना रहा। अब्राम ने इन असंभव सी प्रतीत होने वाली प्रतिज्ञाओं को प्राप्त करने के लिये हमेशा ईश्वर की इस प्रतिज्ञा को आधार बनाया। क्योंकि वह जानता था कि ईश्वर सत्यप्रतिज्ञ है तथा अपनी प्रतिज्ञाओं को पूरा करने में समर्थ है। इब्राहिम के विश्वास की प्रशंसा करते हुये इब्रानियों के नाम पत्र कहता है, ’’विश्वास के कारण इब्राहीम ने ईश्वर का बुलावा स्वीकार किया और यह न जानते हुए भी कि वह कहाँ जा रहे हैं, उन्होंने उस देश के लिए र्प्रस्थान किया, जिसका वह उत्तराधिकारी बनने वाले थे।’’ (इब्रानियों 11:8) ईश्वर के अनुभव के बल पर वे सदैव वफदार और ईमान बने रहे। इसलिये वे प्रकार विश्वास में वे हमारे पिता माने जाते हैं।

रूपांतरण हमें सिखाता है कि हमें हर परिस्थिति में येसु में विश्वास बनाये रखना चाहिये तथा उनके साथ बने रहना चाहिये। स्मरण रहें कि, ’’विश्वास के अभाव में कोई ईश्वर का कृपापात्र नहीं बन सकता।’’ (इब्रानियों 11:6)। हमारे जीवन के दुखभोग के द्वारा ही हम ख्रीस्त की महिमा को प्राप्त कर सकते हैं। आईये हम पिता की आज्ञा, ’’यह मेरा प्रिय पुत्र है इसकी सुनो’’ का पालन करे।


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Praise the Lord!