चक्र अ के प्रवचन

पास्का का पाँचवाँ इतवार

पाठ: प्रेरित-चरित 6:1-7; 1 पेत्रुस 2:4-9; योहन 14:1-12

प्रवाचक: फादर चिन्नाप्पन


प्रभु येसु अपने दुःखभोग के पहले अपने शिष्यों को यह कहते हुए ढाढ़स बँधाते हैं, ’’तुम्हारा जी घबराये नहीं। ईष्वर में विष्वास करो और मुझमें भी विष्वास करो।’’ प्रभु में विष्वास करने से विष्वासियों को कई वरदान प्राप्त होते हैं क्योंकि मार्ग, सत्य और जीवन प्रभु ही हैं। 

किसी भी जगह पर पहुँचने के लिये हमें सबसे पहले लक्ष्य स्थान जानना ज़रूरी होता है। मानव सत्य को खोजता है। उसका जीवन सत्य की खोज में एक लम्बी यात्रा है। अगर हम इस जीवनरूपी यात्रा को सही ढ़ंग से संपन्न करेंगे तो अपने लक्ष्य स्थान पर ईष्वररूपी अनंत सत्य को पायेंगे। प्रभु येसु खुद ईष्वर है और इसलिये वे अपने को आज के सुसमाचार में अनंत सत्य के रूप में प्रकट करते हैं। 

हमें किसी भी लक्ष्य स्थान पर पहुँचने के लिये लक्ष्य के अलावा रास्ता भी जानना ज़रूरी है। नहीं तो हम भटकते रहेंगे। दुनिया के विभिन्न धर्म ईष्वररूपी लक्ष्य स्थान की ओर जाने के कई रास्ते हमारे सामने रखते हैं। सच्चे या गलत रास्ते का विवेचन करना एक कठिन कार्य है। लेकिन इतना तो हमें ज़रूर मालूम है कि कुछ रास्ते गलत हैं और हमें भटकाते हैं। प्रभु येसु स्वयं ईष्वर होने के कारण उनसे और अधिक सच्चा और अच्छा मार्ग क्या हो सकता है। प्रभु येसु में ईष्वर स्वयं हमारी ओर आकर हमें अपने साथ अंनत सत्य की ओर ले चलते हैं। जब लक्ष्य ही हमारा पथ प्रदर्षन करे तो रास्ता कैसे गलत हो सकता है? 

जीवन ईष्वर की देन है और उत्पत्ति ग्रंथ में हम पढ़ते हैं कि ईष्वर ने मिट्टी से मानव को बनाने के बाद उसके नथनों में प्राण वायु फूँक दी। इस प्रकार मनुष्य एक सजींव सत्व बन गया। (देखिये उत्पत्ति 2:7) मनुष्य ईष्वर के कारण ही जीवित है। जो मनुष्य अपने अस्तित्व को बनाये रखता है उसकी उपस्थिति हमेशा ईष्वर की उपस्थिति की ओर इशारा करती है। इसलिये किसी पंडित ने कहा था कि सजींव मानव में ईष्वर की महिमा प्रकट होती है। खीस्तीय विष्वासियों का समुदाय इस सत्य को प्रकट करता है। 

आज का पहला पाठ प्रांरभिक खीस्तीय समुदाय की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है। जब हम प्रेरित चरित को पढ़ते हैं तो हम सांत्वना महसूस करते हैं कि जैसे आज हमारे बीच में समय-समय पर मनमुटाव या भेेदभाव आ जाता है वैसे ही उस समुदाय में भी मनमुटाव एवं भेदभाव था और इसी कारण हमारे वर्तमान मनमुटाव और भेदभाव को दूर करने के लिए वे प्रेरणास्रोत बन सकते हैं। ये मनमुटाव कैसे आये, इसे समझना हमारे लिये आवश्यक है। कई यहूदी फिलीस्तीन में नहीं रहते थे। वे रोमी साम्राज्य के विभिन्न शहरों में फैले हुए थे, जिसके कारण उन्हें ’’बिखरे हुए यहूदी’’ (scattered Jews) नाम दिया गया था। बड़ी तादाद में ये यहूदी अपनी मातृभूमि येरुसालेम को वापस आ रहे थे, ताकि वे अपने जीवन के अंतिम दिन येरुसालेम के मंदिर के आसपास बिता सकें। 

किन्तु इनमें से कई यहूदियों का जन्म विदेशों में हुआ था। और उन्हें अरामाइक भाषा का ज्ञान नहीं था जो कि फिलीस्तीन की तत्कालीन भाषा थी। ये विदेशों से आये हुए यहूदी केवल यूनानी भाषा का इस्तेमाल करते थे और इसी कारण उनके लिये पृथक सभागृहों की व्यवस्था की गयी थी जिसमें यूनानी भाषा में अनुवादित धर्मसंहिता ही पढ़ी जाती थी। प्रारम्भ से ही फिलीस्तीन में रहने वाले यहूदी अरामाइक भाषा बोलते थे और उनके सभागृहों में धर्मसंहिता इब्रानी भाषा में पढ़ी जाती थी। 

चेलों के प्रवचन के बाद दोनों दलों से लोग कलीसिया में सम्मिलित हुए। खीस्तीय विश्वास और प्यार ने उन्हें एक कर दिया। प्रारंभिक कलीसिया पवित्र आत्मा से निर्देशित थी, जिसकी वजह से वह गरीबों का विशेष ध्यान रखती थी, विशेष रूप से विधवाओं का जिनका कोई रिश्तेदार नहीं रह गया था। खीस्तीय समुदाय में यूनानी भाषा बोलने वाली विधवाएं अरामाइक भाषियों से कहीं अधिक थी। फिलीस्तीनी विधवाएं येरुसालेम में अपने रिश्तेदारों पर आश्रित थी और कुछ कलीसिया पर अपनी जीविका के लिए आश्रित थी।

शायद इन प्रारम्भिक खीस्तीयों के बीच मनमुटाव एवं भेदभाव का कारण यही था। विधवाओं और गरीबों के रसद वितरण करने वाले अधिकांश अरामाइक भाषा बोलने वालों में से थे। यूनानी-भाषियों ने इब्रानी-भाषियों के विरुद्ध यह शिकायत की कि रसद के दैनिक वितरण में उनकी विधवाओं की उपेक्षा हो रही है। 

हम वाकिफ़ है कि राहत सामग्री के वितरण का काम बड़ा ही पेचीदा काम है। उदाहरण के लिये कोई बाढ़ प्रभावित क्षेत्र को लीजिए। हम कितनी भी सावधानी बरतें किन्तु जब कभी भी रसद का वितरण किया जाता है तो ज़रूर किसी-न-किसी दल के द्वारा उनके साथ पक्षपात किये जाने की शिकायत की जाती है। इस समस्या ने खीस्तीय समुदाय एवं प्रेरितो को बुरी तरह से प्रभावित किया। तब चेलों ने खीस्तीय समुदाय से सात ईमानदार, इज्जतदार तथा पवित्र आत्मा से परिपूर्ण एवं ज्ञानी व्यक्तियों का चुनाव करने को कहा जो पूरे समय राहत कार्य में लगे रहें और चेले अपने पूरे समय को सुसमाचार प्रचार और प्रार्थना में लगा सकें। 

खीस्तीय समुदाय ने काफी समझदारी एवं होशियारी का प्रमाण देते हुए सात व्यक्तियों को नियुक्त किया। इन सात में से संत स्तेफ़नुस ने प्रथम खीस्तीय शहीद के रूप में विष्वास के लिये अपने जीवन की कुर्बानी दी और संत फिलिप सुसमाचार का प्रचारक बन गया। इन घटनाओं से एक बात साफ झलकती है कि प्रारम्भिक खीस्तीय प्रेरितगण, खीस्तीय समुदाय तथा उपयाजकों का एक ही विचार था कि खीस्तीय समुदाय की भलाई हो, वे सब पवित्र आत्मा से संचालित किये जा रहे थे न कि अपने स्वार्थता से।

येरुसालेम के खीस्तीय समुदाय ने जिस प्रकार अपने बीच की समस्या का समाधान किया, उसका अनुकरण हमें भी करना चाहिए। शिष्यों के व्यवहार से तीन बातें साफ हैं। एक, शिष्य गरीबों व ज़रूरतमंदों का विशेष ध्यान रखते थे। दो, वे अपनी और कलीसिया की समस्याओं का समाधान पवित्र आत्मा की प्रेरणा से ढूँढते थे। तीन, सुसमाचार का प्रचार उनकी प्राथमिकता थी। 

आइए हम भी इन तत्वों को अपनाकर प्रभु येसु, जो मार्ग, सत्य और जीवन हैं, को आज के मानविक समुदाय के सामने प्रस्तुत करें और अपने अच्छे आचरण से ईष्वर के राज्य की स्थापना के कार्य में सहयोग प्रदान करें।


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