चक्र अ के प्रवचन

पास्का का पाँचवाँ इतवार

पाठ: प्रेरित-चरित 6:1-7; 1 पेत्रुस 2:4-9; योहन 14:1-12

प्रवाचक: फादर फ्रांसिस स्करिया


जब प्रभु येसु स्वयं अपने जीवन की सब से बडी कठिनाइयों का सामना कर रहे थे, उन्होंने अपने पिता पर भरोसा रख कर अपने मन को शांत किया। पिता पर उनका भरोसा ही उनकी शांति का स्रोत था। इसी रहस्य को वे अपने शिष्यों के सामने प्रकट करते हैं। वे कहते हैं, “तुम्हारा जी घबराये नहीं। ईश्वर में विश्वास करो और मुझ में विश्वास करो” (योहन 14:1)।

ईश्वर पर विश्वास कर हम अपनी परेशानियों के बीच अपने मन और हृदय में शांति महसूस कर सकते हैं, येसु के समान आँधी के बीच में भी नाव में तकिया लगा कर सो सकते हैं। इस प्रकार का विश्वास हम पुराने विधान के यूसुफ, योब, एस्तेर और दानिएल के जीवन में पाते हैं। इस प्रकार का विश्वास पवित्र परिवार के जीवन का आधार भी था।

प्रभु अपने शिष्यों को आश्वासन देते हैं कि वे उनके लिए पिता के पास जगह तैयार करने जा रहे हैं। पापी मानव के लिए अदन की वाटिका में जगह नहीं थी। पाप करने के बाद आदम और हेवा को अदन की वाटिका से निष्कासित किया गया था। अब येसु अपने दुखभोग तथा क्रूसमरण से पश्चात्तापी पापी के लिए स्वर्ग में जगह बनाने का वादा करते हैं। यही पिता-ईश्वर की मुक्ति-योजना थी। इसी की घोषणा हम पवित्र वचन में पाते हैं। प्रेरित अपने प्रवचनों में इसी पवित्र वचन की घोषणा करते थे। पवित्र वचन की घोषणा पश्चात्ताप का आह्वान है। प्रेरित पवित्र वचन की घोषणा की प्राथमिकता को हमेशा बनाये रखते हैं। आज शायद हमने इस प्राथमिकता को खो दिया है। प्रेरितों के इस दृढ़धारणा पर हमें भी ध्यान देना चाहिए, “यह उचित नहीं है कि हम भोजन परोसने के लिए ईश्वर का वचन छोड़ दें” (प्रेरित-चरित 6:2)। भोजन परोसना भी एक अच्छा कार्य है, ज़रूरी भी। परन्तु प्रेरितों को ईशवचन की प्राथमिकता को नहीं भूलना चाहिए। क्योंकि ईशवचन सुनने से विश्वास उत्पन्न होता है (रोमियों 10:17) और विश्वास हमें मुक्ति दिला सकता है, घबराहट को दूर करता है। याद कीजिए, प्रभु का आदेश है, “दुनिया के कोने-कोने में जा कर सारी सृष्टी को सुसमाचार सुनाओ” (मारकुस 16:15)। कई बार हमारे सामने किसी संस्था को चलाने के लिए, किसी योजना को कार्यान्वित करने के लिए ईश्वर का वचन छोड़ने का प्रलोभन आता है। क्या हम ईशवचन की प्राथमिकता को टुकरा सकते हैं?

अंग्रेजी में हम अकसर कहते हैं, “Don’t trouble the trouble until the trouble troubles you”. परेशानी के आने से पहले ही हम में से ज़्यादात्तर लोग भयभीत हो जाते हैं। हम विभिन्न प्रकार के डर के शिकार बनते हैं। अंधेरे से डर, पानी से डर, भविष्य से डर, अज्ञात व्यक्तियों से डर – इस प्रकार हमारे ड़र की सूचि बहुत लंबी है। कभी-कभी हम ऐसे लोगों से भी मिलते हैं जो प्रकाश और सच्चाई से भी डरते हैं। वास्तव में उन्हें उस बात का डर है कि उनके गुप्त और बुरे कार्य प्रकाश में प्रकट हो जायेंगे।

सभी प्रकार के डर के संदर्भ में प्रभु येसु कहते हैं, “तुम्हारा जी घबराये नहीं। ईश्वर में विश्वास करो और मुझ में भी विश्वास करो!” कितना आशावान सन्देश है! जिस प्रकार एक बच्चे के डर को दूर करने के लिए उसका पिता उसके साथ रहता है, उसी प्रकार ईश्वर हमसे कहते रहते हैं कि मैं तुम्हारे साथ हूँ। शिष्य अवश्य ही डरे सहमे थे। इस डर का कारण क्या था? येसु उनके साथ थे, फिर भी वे डर रहे थे। इसका कारण यह है कि येसु को साथ पाने पर भी उन्होंने येसु को नहीं पहचाना था। इसलिए प्रभु फिलिप से पूछते हैं, ’’फिलिप! मैं इतने समय तक तुम लोगों के साथ रहा, फिर भी तुमने मुझे नहीं पहचाना?” (योहन 14:9) येसु मुझसे भी ज़्यादा मेरे करीब है। क्या मैं इस सत्य को समझता हूँ? समझने की कोशिश करता हूँ?

येसु न केवल हमारे साथ रहते हैं, बल्कि हमारे अन्दर भी वे उपस्थित रहते हैं। इसलिए संत योहन हम से कहते हैं, “जो तुम में हैं, वह उस से महान् हैं, जो संसार में है।”(1योहन 4:1)


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