चक्र अ के प्रवचन

पास्का का सातवाँ इतवार

पाठ: प्रेरित-चरित 1:12-14; 1 पेत्रुस 4:13-16; योहन 17:1-11अ

प्रवाचक: फ़ादर शैल्मोन आन्टनी


सन 2005 में जब मैं केरल गया था तो वहाँ एक पल्लीवासी का, जो मेरे घर के पास ही रहता था, देहान्त हुआ। वह एक पियक्कड़ था। कई बार शराब पीकर रोड के किनारे पड़ा रहता था। चूँकि यह उसकी आदत बन गई थी तो लोग भी उसकी चिन्ता नहीं करते थे। एक दिन वह ऐसा ही पड़ा था और किसी ने उसकी परवाह नहीं की। जब किसी ने उसे बहुत देर तक ऐसा ही पड़ा देखकर उसके पास जाकर उसकी दशा को समझने की कोशिश की तो उसे यह पता चला कि वह काफी समय पहले ही मर चुका था। लोगों ने मिलकर उसके मृत शरीर को उठाकर उसके घर पहुँचा दिया। वहाँ पर पल्लीपुरोहित की अनुपस्थिति में मुझे ही उस के अंतिम संस्कार की पूजनविधि संभालना पड़ी। उसके घर पर और बाद में क़ब्रिस्तान में मुझे यह देखने को मिला कि उसकी मृत्यु पर शोक मनानेवाला कोई नहीं था। यहाँ तक कि उसकी पत्नी की आँखों से एक बूँद आँसू भी नहीं टपका। उसकी पत्नी, चार बच्चे और कई रिश्तेदार अंतिम संस्कार में उपस्थित तो थे परन्तु किसी के चेहरे पर दुख की शिकन तक नही थी।

जब मैं पल्लीपुरोहित के निवास से उस कब्रस्तान के रास्ते वापस घर जा रहा था तो मैंने देखा उस मृत आदमी के ही बेटे उसकी कब्र के गड्ड़े में मिट्टी डालते डालते मस्ती भी कर रहे थे। तब मुझे किसी का यह कहना याद आया कि कुछ लोग उनकी मृत्यु के पहले ही मर जाते हैं। इस घटना को देख मेरे मन में अनेक प्रष्न उठे कि ’क्या यह व्यक्ति मरने से पहले ही मर चुका था?’ ’कब मनुष्य सचमुच अपना जीवन पूर्ण रूप से जीता है?’ पूर्ण जीवन का क्या मतलब है और इसका क्या मापदण्ड है?’ 

जीवन ईश्वर द्वारा दिया गया सबसे अनमोल उपहार है। हमने इसे ईश्वर से माँग कर प्राप्त नहीं किया है और न ही हमने ईश्वर से यह माँगा कि इस विशेष समय में हमें दुनिया में भेजिये। अतः हम कह सकते हैं कि जीवन ईश्वर द्वारा स्वेच्छा से दिया गया उपहार है। लेकिन जो जीवन हमें दिया गया है उससे हमें क्या करना चाहिए? इस बात का उत्तर हम आज के सुसमाचार में पाते हैं जहाँ येसु अपने पिता से प्रार्थना करते हुए कहते हैं ’’जो कार्य तूने मुझे करने को दिया था, वह मैंने पूरा किया है। इस तरह मैंने पृथ्वी पर तेरी महिमा प्रकट की है।’’ अगर हम इस बात की विवेचना करेंगे तो दो बातें बहुत स्पष्ट हो जायेंगी।

हम सभी को इसलिये भेजा गया है कि हम ’’भेजने वाले’’ अथार्त ईश्वर की महिमागान करें। अगर हम जीते हैं तो इसलिये कि हम अपने भेजने वाले के लिये जी सकें। लेकिन बहुत बार हम ऐसी बातें करते हैं जिससे हमारा स्वयं का महिमागान संभव हो। यह तब होता है जब हम ईश्वर की जगह स्वयं को जीवन में अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। येसु अपने सभी शिष्यों से कहते हैं कि, ’’तुम संसार की ज्योति हो।. . . तुम्हारी ज्योति मनुष्यों के सामने चमकती रहे, जिससे वे तुम्हारे भले कार्यों को देखकर तुम्हारे स्वर्गिक पिता की महिमा करें।’’ (मत्ती 5:14,16) 

संत पौलुस कहते हैं कि ’’वह वास्तव में ईश्वर थे और उनको पूरा अधिकार था कि वे ईश्वर की बराबरी करें, फिर भी उन्होंने दास का रूप धारण कर तथा मनुष्यों के समान बन कर अपने को दीन-हीन बना लिया और उन्होंने मनुष्य का रूप धारण करने के बाद मरण तक, हाँ क्रूस पर मरण तक, आज्ञाकारी बनकर अपने को और भी दीन बना लिया।’’ (फिलिप्पियों 2:6-8) योहन बपतिस्ता के जीवन को देखें। जब योहन बपतिस्ता से उनके शिष्यों ने कहा, ’’गुरुवर! देखिए, जो यर्दन के उस पार आपके साथ थे और जिनके विषय में आपने साक्ष्य दिया, वह बपतिस्मा देते हैं और सब लोग उनके पास जाते हैं’’। इसपर योहन उत्तर देते हैं, ’’यह उचित है कि वे बढ़ते जायें और मैं घटता जाऊँ।’’ (देखिये योहन 3:26-30) संत पौलुस कहते हैं, ’’मैं अब जीवित नहीं रहा, बल्कि मसीह मुझ मैं जीवित हैं।’’ (गलातियों 2:20) 

येसु अपने आप की महिमा करने के सख्त विरुद्ध थे। अनेक अवसरों पर उन्होंने शास्त्रियों और फ़रीसियों के इस पाखण्ड का विरोध किया क्योंकि वे केवल अपनी बढ़ाई और वाहवाही सुनना चाहते थे (देखिये मत्ती 23)। 

ईश्वर का महिमागान हम उन कार्यों के द्वारा करते हैं जिन्हें ईश्वर ने हमें सौंपा है। हर व्यक्ति को एक विशेष ईश्वरीय बुलाहट दी गयी है जिसे उसे हर स्थिति में पूरा करना है। स्वयं येसु के जीवन को देखिए। वे कहते हैं कि जिसने मुझे भेजा है, उसकी इच्छा पर चलना और उसका कार्य पूरा करना ही मेरा भोजन है (देखिए योहन 4:34)। योहन बपतिस्ता को भी अपनी बुलाहट के बारे में ज्ञान था इसीलिये वे अपने बारे में कह पाते हैं, ’’निर्जन प्रदेष में पुकारने वाले की आवाज़: प्रभु का मार्ग सीधा करो’’ (योहन 1:23)। 

हम सब को यह निर्णय करना है कि हम अपने जीवन से क्या करने जा रहे हैं। हम यह काम दो तरीकों से कर सकते हैं। पहला हम कह सकते हैं कि मुझको कहाँ सबसे आसान काम, सबसे ऊँचा वेतन, एवं जीवन की सुख-सुविधाएँ मिलेंगी? और दूसरा हम सोच सकते हैं कि मैं कहाँ पर सबसे उपयुक्त एवं उपयोगी सिद्ध होऊँगा? ईश्वर मुझसे क्या करवाना चाहते हैं? अगर ईश्वर सचमुच में हमारे राजा हैं तो हम उनसे पूछेंगे कि आप मुझे कहाँ भेजना चाहते हैं? ईश्वर के द्वारा दिये गये काम को करने में ही जीवन की पूर्णता निहित है। दुनिया में सारी रचित वस्तुएं कुछ बन रही है, वे अपने उस रूप एवं अवस्था में पहुँच रही है जिसके लिये उनकी रचना की गयी है। एक कली फूल बन जाती है, पौधा पेड़ बनता है तो बछड़ा गाय आदि। इसी तरह मनुष्य भी कुछ बनने के लिये बनाया गया है। हमें याद रखना चाहिये कि हमारे जीवन की अवधि पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है, परन्तु अपने जीवन द्वारा कुछ योगदान हम अवष्य ही कर सकते हैं। 

मनुष्य के जीवन की पूर्णता उसकी आयु में नहीं बल्कि उसके द्वारा किये गये उन अच्छे कार्यों में है जिनके द्वारा वह ईश्वर को महिमा देता है। हमारे कार्य हमारी बुलाहट के अनुरूप होने चाहिये जिससे अन्य लोग भी प्रेरणा पाकर ईश्वर की महिमागान कर सकें। ऐसा करने से ही हम जीवन की पूर्णता के नज़दीक पहुँच पाते हैं। किसी ने सही ही कहा है कि मनुष्य के पूर्ण जीवन में ही ईश्वर की महिमा प्रकट होती है। येसु इस बात का सर्वोत्तम उदाहरण है जिनकी पूर्णता में ईश्वर की महिमा प्रकट होती है। आज के दूसरे पाठ में संत पेत्रुस हमारा आह्वान करते हुए कहते हैं कि हमें सब समय प्रसन्न रहना चाहिए विशेष करके दुःख-तकलीफ में क्योंकि यह हमारी खीस्तीय बुलाहट का फल है। खीस्तीय बुलाहट येसु के दुःखभोग में सहभागी होने की बुलाहट है इसलिये अपनी इन तकलीफों को प्रसन्नता के साथ स्वीकारकर आगे बढ़ते जाना चाहिए। अगर हम स्वेच्छा से खीस्त के दुःखभोग के सहभागी बनेंगे तो हम उनकी महिमा के भी भागीदार बन जायेंगे और यही है जीवन की पूर्णता।


Copyright © www.jayesu.com
Praise the Lord!