चक्र अ के प्रवचन

वर्ष का दसवाँ इतवार

पाठ: होशेआ 6:3-6; रोमियों 4:18-25; मत्ती 9:9-13

प्रवाचक: फ़ादर फ्रांसिस स्करिया


महान कवि दांते (Dante) एक दिन चर्च में मिस्सा बलिदान में भाग ले रहे थे। जब पुरोहित ने रोटी और दाखरस को ऊपर उठाया तो दांते ने न तो घुटने टेके और न ही सिर झुकाया। मिस्सा के बाद कुछ लोग धर्माध्यक्ष के पास गये जिन्होंने मिस्सा बलिदान चढ़ाया था और दांते पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने पवित्र यूखारिस्त का आदर नहीं किया है। इस पर धर्माध्यक्ष ने दांते को बुलवाया और उनसे पूछा कि उन्होंने पवित्र यूखारिस्त का आदर क्यों नहीं किया? इस पर उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘मैं यूखारिस्तीय बलिदान के समय भक्ति में इतना लीन हो गया था कि मुझे याद भी नहीं है कि मैंने क्या किया और क्या नहीं किया। लेकिन आप इनके बारे में क्या बोलना चाहेंगे जो मिस्सा बलिदान के समय प्रभु येसु के शरीर और रक्त की ओर देखने के बजाय मुझ जैसे निरे मनुष्य पर दृष्टि डाल रहे थे।’’ 

आज के सुसमाचार में हम सुनते हैं कि फ़रीसी लोग प्रभु की आलोचना कर रहे थे क्योंकि उन्होंने पापियों का आतिथ्य स्वीकार किया था। हमारी प्रवृत्ति यह है कि हम दूसरों पर दोष लगाते हैं। लोगों के साथ काम करते समय हम जल्द ही आशा और धैर्य खो बैठते हैं। लेकिन ईश्वर मनुष्य को किसी आशाहीन स्थिति में नहीं छोड़ते हैं। एक पल्ली पुरोहित अपनी पल्ली में कई लोगों की अनुपस्थिति से बहुत दुखी थे। कई बार लोगों को समझाने के बाद भी उनमें ज़्यादा परिवर्तन देखने को नहीं मिला। इसलिये उन्होंने निश्चय किया कि वे उस पल्ली को छोड़कर चले जायेंगे। जाने से पहले उन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरु से इसके बारे में चर्चा की। गुरु ने उन्हें यह सलाह दी कि जाने से पहले एक घण्टा परमप्रसाद की आराधना में बितायें। आराधना के समय पुरोहित को ऐसा लगा कि उनसे प्रभु बोल रहे थे, ‘‘तुम्हें जाना ही है तो जाओ, मैंने तो हमेशा के लिये यहाँ रहने का संकल्प किया हैं‘‘। प्रभु पापी का पीछा नहीं छोड़ सकते क्योंकि वे पापियों को मुक्ति दिलाने के लिये आये हैं। 

सच्चा धर्म यह सिखाता है कि हमारे धार्मिक कार्य प्रेममय हो। प्रेम ही धार्मिक रीति-रिवाज़ों तथा धर्मविधियों को मूल्यवान बनाता है। प्रभु का क्रूस मरण सबसे बड़ा बलिदान था क्योंकि वह प्रेम का सबसे बड़ा प्रमाण था। हमें अपनी धार्मिक गतिविधियों की जाँच करनी चाहिये। हम किसी-किसी के बारे में कहते हैं या दूसरों को कहते हुए सुनते हैं कि ’’यह कभी नहीं सुधरेगा‘‘। शायद इस प्रकार की विचारधारा हमारे ही कमज़ोर विश्वास को दर्शाती है। क्योंकि ईश्वर हर पापी के जीवन में उसे अपनी ओर लौटाने का प्रयत्न करते रहते हैं। अगर हम ईश्वर को समझ पाते हैं तो यह कहना हमारे लिये असंभव होगा कि कोई भी व्यक्ति सुधर नहीं पायेगा। 

पापियों को अच्छे रास्ते पर लाना हम में से हरेक का भी कर्त्तव्य है। यह कार्य ईश्वर खुद करते हैं लेकिन वे हमें भी इसके लिये साधन बनाते हैं। ईश्वर को सहयोग देने के लिये हमें इब्राहिम की तरह उनमें विश्वास करना चाहिये। जो संभव है उसे मानने में विश्वास की ज़रूरत नहीं है। असंभव को मानना ही विश्वास है। विश्वास असंभव को संभव बनानेवाले पर दृढ़ आस्था है। इब्राहिम के विश्वास को देखिये। आज का दूसरा पाठ हमें समझाता है कि जब इब्राहिम करीब 100 साल के थे तब ईश्वर ने उनसे प्रतिज्ञा की कि उनकी सन्तती आकाश के तारों की तरह असंख्य होंगी। उनसे एक पुत्र भी उत्पन्न होगा। यह विश्वास करना कठिन था। फिर भी इब्राहिम ने विश्वास किया। पवित्र वचन कहता है कि इब्राहिम ने कभी ईश्वर की प्रतिज्ञा पर शक नहीं किया। उनका ईश्वर पर इतना भरोसा था कि उन्हें एक पल भी ऐसा नहीं लगा कि ईश्वर का कथन पूरा नहीं होगा। अगर हमारा विश्वास इतना पक्का बनता है तो हम भी मुक्ति अनुभव करेंगे और दूसरों को भी इसका अनुभव करा पायेंगे। 

येसु हमें सिखाते हैं कि जो ईश्वर पर विश्वास रखते हैं, वे ईश्वर के समान सहनशील और करुणामय बनें। हम सब पापी हैं और ईश्वर की करुणा तथा दयालुता से ही हम मुक्ति पा सकते हैं। आइए हम दृढ़ विश्वास के साथ अपने तथा दूसरों के लिये ईश्वर से क्षमायाचना करें।


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Praise the Lord!