चक्र अ के प्रवचन

वर्ष का बीसवाँ इतवार

पाठ: इसायाह 56:1,6-7; रोमियों 11:13-15;29-32; मत्ती 15:21-28

प्रवाचक: फ़ादर थॉमस फिलिप


आज के पहले पाठ नबी इसायाह के ग्रंथ में हम प्रभु को यह कहते हुए सुनते हैं कि मेरा घर ईश्वर का घर कहलायेगा और ईश्वर अपने पवित्र पर्वत तक परदेशियों और गैर-यहूदियों को भी, जो उनके साथ जुड़ना चाहते हैं, लेकर आयेंगे। पवित्र ग्रंथ का यह पाठ प्रभु के मंदिर के विषय में है तथा पूजा-अर्चना, विश्राम दिवस, उपवास और संहिता पर ज़ोर देता है। साथ ही यह पाठ मसीह के आगमन पर हमारी आशायें पूर्ण होने की सांत्वना देता है। संक्षेप में, यह पाठ पिता ईश्वर की हमारे प्रति उस योजना के विषय में है जिसे उन्होंने अपने पुत्र प्रभु येसु के द्वारा पूरा किया है।

ईश्वर ने इस्राएलियों को आज्ञा दी कि वे न केवल व्यक्तिगत रूप से सत्य का पालन करें अपितु आपस में न्याय भी बनाये रखें। अर्थात ईश्वर की प्रजा से अपेक्षा की गई थी कि वह सदियों से चली आ रही मूसा की संहिता का पालन करे। मूसा की संहिता वास्तव में ईश्वरीय नियम थे जिन्हें ईश्वर ने स्वयं मूसा को प्रदान किया था। ईश्वर के साथ एकता की स्थापना सशर्त थी। शर्त यह थी कि जो प्रभु ईश्वर से जुड़ना चाहते थे वे ईश्वर की आज्ञाओं का पालन कर उनकी सेवा करें। उन्हें आज्ञा दी गई थी कि वे सर्वशक्तिमान ईश्वर के नाम को पवित्र रखें और प्रभु के विधान के अनुसार विश्राम दिवस का पालन करें। इन्हीं लोगों को ईश्वर ने अपनी सन्तान बनाने तथा अपने पवित्र पर्वत तक ले आने और अपने प्रार्थना घर में आनंद और शांति प्रदान करने का वादा किया था। ’’मेरा घर सभी लोगों के लिये प्रार्थना का घर कहलायेगा’’ (इसायाह 56:7)। वह प्रार्थना का घर कलीसिया है जहाँ विश्वासी जीवन्त ईश्वर का अनुभव करते हैं।

संत मत्ती 21:3 के अनुसार प्रभु येसु मंदिर में धंधा करने वालों को खदेड़ते हैं और उनकी मेज़ें उलट देते हैं। आगे, प्रभु येसु ने अपने शरीर को भी मंदिर कहा है। कलीसिया प्रभु येसु का शरीर है और इसे प्रभु ने ही स्थापित किया है। प्रभु येसु का शरीर होने के नाते कलीसिया ही प्रभु का प्रार्थना घर है जिसके विषय में प्रभु ने कहा कि वह सब राष्ट्रों का प्रार्थना घर कहलायेगा। 

आज का दूसरा पाठ रोमियों के नाम संत पौलुस के पत्र से लिया गया है तथा इस्राएलियों की बुलाहट के विषय में है। संत पौलुस बताते हैं कि इस्राएलियों ने अपनी दुर्बलताओं की वजह से खीस्त को स्वीकार नहीं किया। ईश्वर ने तो अपनी प्रतिज्ञाओं को पूर्ण किया यद्यपि वे जानते थे कि यह हठधर्मी पीढ़ी अपने हृदय को कठोर बना लेगी और सत्य को ठुकरायेगी।

संत पौलुस इस्राएल के इस अंधेपन पर दुख व्यक्त करते हैं, परन्तु वे कहते हैं कि ईश्वर कहीं से भी भलाई उत्पन्न कर सकते हैं। सुसमाचार की घोषणा द्वारा प्रभु येसु पर विश्वास करने का अवसर सबों को दिया गया है ताकि कोई यह न कह पाये कि उसने प्रभु येसु के बारे में नहीं सुना। संत पौलुस ने अपने सुनने वालों से कहा कि यदि इस्राएलियों के प्रभु को ठुकराये जाने के परिणामस्वरूप संसार को पश्चात्ताप की कृपायें मिली हैं तो यदि इस्राएली मसीह को स्वीकार करते तो उसका परिणाम क्या होता? निश्चय ही वह एक महान महिमा होती जब मृतक भी प्रभु येसु द्वारा प्रदत्त अनंत जीवन के भागी बनते। क्या यह संभव है? यह संभव अवष्य है क्योंकि प्रभु अपने वरदान वापस नहीं लेते, वे अपना बुलावा रद्द नहीं करते और अपने वादे से नहीं मुकरते। 

संत पौलुस कहते हैं कि ईश्वर दयालु हैं और उन्होंने इस्राएली प्रजा पर बहुत दया दिखायी है परन्तु उसी ने ईश्वर के साथ विश्वासघात किया और ईश्वरीय इच्छा को ठुकरा दिया है। यह दया अब से सभी गैर-यहूदी राष्ट्रों को दी जायेगी ताकि सभी मनुष्य जो आज्ञा भंग द्वारा प्रभु से दूर हो गये हैं वे सब उसकी दया प्राप्त कर सकेंगे। 

संत मत्ती के सुसमाचार में आज हम कनानी स्त्री के बारे में सुनते हैं जो अपनी अपदूतग्रस्त बेटी को अपदूत से मुक्ति दिलाने के लिये प्रभु को ढूँढ़ती है। उस समय प्रभु येसु यहूदियों के नगर तीरुस और सिदोन में यहूदियों को चंगाई प्रदान कर रहे थे। वह स्त्री प्रभु को ढूँढ कर उनसे दया याचना करती है। 

इस घटना का असामान्य पहलू यह है कि वह स्त्री कनानी थी। कनानियों को एक पापी जाति माना जाता था जो हर प्रकार की बुराई और मूर्तिपूजा में लिप्त थी। वह एक बहिष्कृत जाति थी। प्रथा के अनुसार यहूदी समारियों के साथ-साथ कनानियों से भी बिलकुल मेल-जोल नहीं रखते थे। ऐसी परिस्थिति में जब प्रभु येसु का सामना उस कनानी स्त्री से होता है तो प्रभु को क्या करना चाहिये था? 

शुरु में प्रभु येसु ने उस स्त्री को अनदेखा किया। प्रभु ने उसको कोई उत्तर नहीं दिया। प्रभु येसु जितना ज्यादा उसे अनदेखा करते वह स्त्री उतनी ही ज़ोर से चिल्लाती हुई कहती, ’’प्रभु! दाऊद के पुत्र, मुझ पर दया कीजिए’’! वह स्त्री जितनी ज़ोर से चिल्लाती, प्रेरितों की नाराजगी उतनी बढ़ती जाती और वे प्रभु येसु से उसे विदा करने का आग्रह करते हैं ताकि वह चिल्लाना बंद कर दे। जब हम यह सुनते हैं कि प्रेरित प्रभु येसु से उस स्त्री के संबंध में आग्रह करते हैं तो उसका अर्थ यह नहीं है कि वे भी उसे घृणित समझ कर छुटकारा पाना चाहते हैं। प्रेरित प्रभु येसु से स्त्री की प्रार्थना पूर्ण करने का निवेदन करते हैं ताकि वह उन्हें तंग न करें। 

प्रभु येसु ने कनानी स्त्री को उत्तर दिया कि मैं सिर्फ इस्राएल की खोयी हुई भेडों के लिये भेजा गया हूँ। उस स्त्री के लिये यह उत्तर कितना निष्ठुर और कठोर प्रतीत हुआ होगा जैसे प्रभु येसु कह रहे हों कि ईश्वर की दया सिर्फ मेरे लोगों यानि यहूदियों के लिये है, लेकिन तुम कनानी हो, तुम्हारे लिये नहीं है, यहाँ से चली जाओ। भेदभाव की भावना! क्या प्रभु येसु भेदभाव कर रहे थे? 

दृढ़-निश्चय ही उस स्त्री की अच्छाई थी कि उसने प्रभु येसु को नहीं छोड़ा। वह प्रभु के चरणों पर गिर पड़ी और दुहराती रही- प्रभु मेरी सहायता कीजिए। प्रभु ने उत्तर दिया कि बच्चों की रोटी लेकर पिल्लों के सामने फेंकना उचित नहीं है। इस पर स्त्री का उत्तर था- हाँ प्रभु परन्तु फिर भी स्वामी के मेज़ से गिरा हुआ रोटी का टुकडा पिल्ले खाते ही हैं। इस पर प्रभु येसु उससे कहते हैं- स्त्री, तुम्हारा विश्वास महान है, जैसा तुमने विश्वास किया वैसा ही तुम्हारे साथ हो जाये। उसी क्षण उसकी बेटी चंगी हो गयी।

पूर्वी देशों में प्रभु येसु और कनानी स्त्री के मध्य हुयी बातचीत को बहुत सराहा गया है। कई लोग इस वार्तालाप को प्रज्ञा मानते हैं। प्रज्ञा क्यों? क्योंकि इसमें विशेष वाकपटुता और क्षमता की आवश्यकता होती है- एक पहेली को दूसरे पहेली से जवाब देने की, एक कहावत के जवाब में दूसरी कहावत कहने की, एक अपमान के बदले दूसरा अपमान करने की। परन्तु आज के पाठ में हमने एक अपमान को समर्पण और सराहना में परिवर्तन करने की प्रज्ञा को सुना। प्रभु येसु और कनानी स्त्री के वार्तालाप में कुछ बातें सामने आती हैं। पहली बात यह है कि उस स्त्री में अपनी बेटी के प्रति प्यार था। दूसरी, उसका विश्वास गहरा था। तीसरी, वह प्रार्थना में अडिग थी। इन बातों ने प्रभु को चमत्कार करने के लिये विवश किया। ये बातें आज भी लागू हैं। उस लगातार आग्रह करने वाली स्त्री की प्रार्थना पूर्ण कर प्रभु येसु इस बात की पुष्टि करते हैं कि वे सबों के लिये प्रार्थना के घर का निर्माण करने आये हैं। प्रभु द्वारा स्थापित ईश्वरीय राज्य सिर्फ कुछ ही व्यक्तियों तक सीमित नहीं है अपितु वह सभी राष्ट्रों के लिये है। प्रभु येसु ने कलीसिया की स्थापना की जो सारे संसार का प्रार्थना घर है। उसमें संत पौलुस ने गैर-यहूदियों को जोड़ने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हमारी भी यही चुनौती है कि हम अपने आचरण से लगातार दुनिया के सभी लोगों को प्रभु येसु और कलीसिया के निकट लायें।


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