चक्र अ के प्रवचन

वर्ष का तेईसवाँ इतवार

पाठ: यिरमियाह 20:7-9; रोमियों 12:1-2; मत्ती 16:21-27

प्रवाचक: फ़ादर डेविडसन वी. एम.


आज के सभी पाठ हमें भाई-बहनों (पड़ोसियों) के प्रति हमारे खीस्तीय कर्त्तव्यों के बारे में बताते हैं। हम सब एक ही ईश्वर की सन्तति हैं। इसलिये हम सब आपस में भाई-बहन हैं। हम सब ईश्वर के बृहत् परिवार के सदस्य हैं। इसलिये प्रभु के अनुसार हमारे पड़ोसी बहुत ही महत्वपूर्ण हैं और वे हमारे प्रेम के हकदार हैं। प्रभु पड़ोसी प्रेम को ईश्वरीय प्रेम के पूरक के रूप में प्रस्तुत करते हैं।

प्रभु ने अपने अनुयाइयों से न केवल प्रेम की माँग की पर उन्होंने स्वयं प्रेम का अनुपम उदाहरण पेश किया। उन्होंने किसी को भी इस प्रेम के दायरे से दूर नहीं रखा। यहूदी एवं गैर-यहूदी, धर्मी एवं पापी, सम्पन्न एवं निर्धन सब उनके लिये समान थे। सब उनके लिये महत्वपूर्ण थे। सबों से उन्होंने प्रेम किया और सबों की मुक्ति के लिये उन्होंने अपने जीवन की आहुति दे दी। प्रभु की अपने भाई-बहनों के प्रति यह उदारता हम खीस्तीयों के लिये एक चुनौती है कि हम भी प्रभु के पद्चिन्हों पर चलकर अपने भाई-बहनों को प्रेम करें और उनके भौतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान में सहयोग करें और स्वर्गराज्य के सफर में उन्हें साथ लें। इसलिये हर व्यक्ति चाहे वह खीस्तीय हो या अखीस्तीय महत्वपूर्ण है। हम किसी को भी बहिष्कृत नहीं कर सकते। हम हमारे ज़रूरतमंद भाई-बहनों के प्रति आँखें नहीं मूंद सकते। उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते। 

प्रथम खीस्तीयों ने पड़ोसी प्रेम के महत्व को समझा। उनके बीच आपसी भाई-चारा था। सब के साथ समान व्यवहार होता था। वहाँ न कोई बड़ा था न छोटा। किसी को कोई कमी नहीं थी। उनके पास जो कुछ था वह साझा था। वे सब एक हृदय एवं एक प्राण थे। वे एक आदर्श विश्वासी समुदाय के रूप में उभर रहे थे। उनके इसी आपसी प्रेम एवं सद्भावना के कारण अन्य लोग उन्हें बहुत मानते थे। प्रेम ही उनकी पहचान थी। 

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समूह में पलता बढ़ता और परिपक्व होता है और जीवन की हर छोटी-बड़ी ज़रूरत के लिये समूह पर निर्भर रहता है। उसके मानसिक, भावनात्मक, आत्मिक, सामाजिक विकास के लिये समूह का योगदान अति आवश्यक है। कहने का तात्पर्य है कि व्यक्ति विशेष के सर्वांगीण विकास के लिये समाज का सहयोग वांछनीय है। समाज से हटकर व्यक्ति विशेष का कोई वजूद नहीं है। इसलिये समाज का हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के उत्थान एवं पतन में समान रूप से भागीदार है। अपने भाई-बहनों के प्रति हर एक को जागरूक रहने की आवश्यकता है। हम उसे उसके हाल में नहीं छोड़ सकते और न ही उसके प्रति हमारी जिम्मेदारी से मुँह मोड़ सकते हैं।

उत्पत्ति ग्रंथ में हम पढ़ते हैं जब ईश्वर ने काइन से पूछा, ‘‘तुम्हारा भाई हाबिल कहाँ है?‘‘ तब उसका उत्तर था, ’’मैं नहीं जानता। क्या मैं अपने भाई का रखवाला हूँ?‘‘ और ईश्वर अपने भाई के विरुद्ध उसके अपराध के लिये उसे दंडित करते हैं। लाज़रुस और धनी व्यक्ति के दृष्टांत में धनी व्यक्ति को दोषी पाया गया और दण्डित किया गया। इसलिये नहीं कि उसने लाज़रुस के साथ गलत व्यवहार किया था या उसे क्षति पहुँचाई थी या उसका बुरा चाहा था। पर इसलिये कि वह उसके प्रति उदासीन था, जागरूक नहीं था। वह अन्य धनियों की तुलना में काफी भला था क्योंकि उसने लाज़रुस को जो कि फोड़े-फुनसियों से भरा था अपने घर के द्वार से नहीं हटवाया न ही नाक-भौं सुकोड़ा। उसने उसे अपनी झूठन लेने से भी नहीं रोका, पर वह अपने पड़ोसी के प्रति अपने कर्त्तव्य से चूक गया था। उसने लाज़रुस को उसकी दयनीय स्थिति से उभारने में कोई रुची नहीं दिखाई। उसकी यही अरुची उसे ले डूबी। 

संत पौलुस कलीसिया की तुलना शरीर से करते हैं। शरीर का हर एक अंग महत्वपूर्ण है और किसी अंग की क्षति को अनदेखा नहीं किया जा सकता। शरीर का स्वास्थ्य इस पर निर्भर करता है कि उसके अंग कितने स्वस्थ हैं। अगर सब अंग स्वस्थ एवं सक्रिय हैं तो पूरा शरीर तन्दुरुस्त होगा और यदि कोई अंग रोगग्रस्त है तो पूरा शरीर परेशान रहेगा। 

हम सब इस शरीर रूपी कलीसिया के अंग हैं और स्वर्गराज्य का यह सफर हमें सामूहिक रूप से ही तय करना है। अगर हम सोचें कि हम अकेले ही मुक्ति प्राप्त कर लें और अपने भाई-बहनों (पड़ोसियों) को मझदार में छोड़ दें तो यह सम्भव नहीं। इसलिये हमारे भाई-बहनों के प्रति हमारी जिम्मेदारी और भी गम्भीर हो जाती है। आज के पहले पाठ में ईश्वर हमें पहरेदार का किरदार निभाते हुये अपने भाई-बहनों (पड़ेसियों) को गलत रास्ते पर जाने से रोकने को कहते हैं। अगर हम अपनी इस जिम्मेदारी से विमुख होते हैं तो हम उस व्यक्ति के पतन के लिये जिम्मेदार ठहराये जायेंगे और दण्डित होंगे। पर यदि वह चेतावनी सुनकर भी अनदेखा करता है तब उसके विनाश के लिये वह स्वयं जिम्मेदार होगा न कि हम।

आज के सुसमाचार में प्रभु हमें अपने भटके हुये भाई-बहनों को सही मार्ग पर लाने के लिये हर संभव कोशिश करने को कहते हैं और इस कोशिश को लगातार जारी रखने पर जोर देते हैं। इसके लिये वे चरणबद्ध तरीके से प्रयास करने को कहते हैं। पहले चरण में स्वयं अकेले में उसे समझाने की कोशिश करें। अगर सफलता हाथ नहीं लगती तो हिम्मत नहीं हारंे। दूसरी बार एक-दो व्यक्तियों को साथ लें और उसे समझायें। अगर इसमें भी विफलता हाथ लगती है तो पीछे न हटें। तीसरी कोशिश में कलीसिया की मदद लें। अगर वह कलीसिया की भी नहीं सुनता तो हताश न हों उसे ईश्वर के हवाले कर दें। 

कहने का तात्पर्य यह है कि चाहे कुछ भी हो जाये हमें हिम्मत हारे बिना अपने भटके भाई-बहनों के मन परिवर्तन के लिये भरसक प्रयास करते रहना चाहिये। पर दुःख की बात है कि हम खीस्तीय आज हमारे डगमगाते भाई-बहनों को प्रोत्साहित करने एवं उन्हें सही मार्गदर्शन देने की इस गम्भीर जिम्मेदारी की तरफ से उदासीन हो गये हैं। कई बार कहते हुये सुना जा सकता है कि सब समझदार हैं, अपना भला-बुरा समझते हैं। दूसरों के मामले में दखल देना ना समझी है। क्यों बेकार के झमेले में पड़े, आदि। हमारी इसी मनोवृत्ति के कारण हमने हमारे कई कमज़ोर भाई-बहनों को पाप के अंधेरे में खो जाने दिया और इस प्रकार प्रभु से दूर होने में उनका साथ दिया। अगर हमने प्रयास किया होता और जिम्मेदारी को निभाया होता तो यह नुक़सान कम हो सकता था और हमारे कई भाई-बहन विश्वास का जीवन जी रहे होते।

पुरातत्वज्ञों ने जब निनेवे के खण्डहरों की खुदाई की तब उन्हें पटियों का एक पुस्तकालय मिला जिसमें राज्य का कानून था। इसमें से एक कानून के अनुसार यदि कोई लापरवाही का दोषी है तो वह उस लापरवाही के परिणाम का जिम्मेदार है . . . अगर आप अपने बच्चे को आज्ञाकारिता सिखाने में नाकाम रहते हैं, अगर आप अपने बच्चे को दूसरों की सम्पत्ति के अधिकार का सम्मान करने की सीख देने में नाकाम होते हैं, तो आप, न की वे आपकी लापरवाही के जिम्मेदार होंगे। 

यह मापदण्ड हम खीस्तीयों पर भी लागू होता है। हमारे दैनिक जीवन में हम रिश्तों की अलग-अलग भूमिका निभाते हैं। चाहे हम किसी भी भूमिका में क्यों न हों, हम गलत उदाहरण पेश न करें। कहीं ऐसा न हो कि हमारे इस गैर-जिम्मेदाराना हरकत से हमारे कमज़ोर भाई-बहन गलत रास्ता अपना लें और वे सम्भावित व्यक्ति जो प्रभु के पास आ सकते थे प्रभु से दूर ही रहें। इन भूमिकाओं में माता-पिता की भूमिका बहुत अहम् है। बच्चे माता-पिता से सीखते हैं। वे उनका अनुकरण करते हैं। जिस प्रकार माता-पिता उनकी परवरिश करेंगे वे वैसा ही व्यवहार करेंगे। अगर माता-पिता अपने खीस्तीय विश्वास के प्रति सजग हैं, अपने खीस्तीय कर्त्तव्यों का पालन करते हैं और इस प्रकार एक अच्छा उदाहरण पेश करते हैं तो उनके बच्चे अवश्य एक आदर्श जीवन जीयेंगे। अगर माता-पिता अपने विश्वास के प्रति उदासीन हैं और खीस्तीय कर्त्तव्यों को हल्के ढ़ंग से लेते हैं तो उनके बच्चे निश्चिंत ही रास्ता भटक जायेंगे और उनके इस पतन के लिये एवं उसके द्वारा होने वाले नुक़सान के लिये उत्तरदायी माता-पिता होंगे न कि वे बच्चे। 

आधुनिक युग में माता-पिता की अपने बच्चों के प्रति जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। प्रतिस्पर्धा एवं भोगवाद के इस युग में उन्हें विश्वास एवं सांसारिकता में सामंजस्य बनाये रखना ज़रूरी है। जितनी कोशिश हम उन्हें इस संसार का सामना करने के लिये तैयार करने में करते हैं उससे कहीं ज्यादा कोशिश उन्हें स्वर्ग राज्य के लिये तैयार करने में करना चाहिये।

आज प्रभु स्वयं में झांकने का हमें एक मौका और देते हैं। हमें अपने खीस्तीय कर्त्तव्यों के प्रति सजग होने का सुनहरा अवसर प्रदान करते हैं। हमें अपने पड़ोसियों के महत्व को समझने की प्रेरणा प्रदान करते हैं। आइए, हम हमारे कमजोर भाई-बहनों के लिये प्रभु की वाणी बनें। उनके सामने एक अच्छा उदाहरण पेश करें। प्रभु के मार्ग पर लौटने के लिये उन्हें प्रोत्साहित करें। इस प्रकार स्वर्गराज्य के सफ़र में उन्हें साथ लेने का प्रण करें।


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Praise the Lord!