चक्र अ के प्रवचन

वर्ष का पच्चीसवाँ इतवार

पाठ: इसायाह 55:6-9; फ़िलिप्पियों 1:20स-24; मत्ती 20:1-16अ

प्रवाचक: फादर रोनाल्ड वाँन


ईर्ष्या एवं आपसी प्रतिस्पर्धा की भावना ने अनेक मानवीय त्रासदियों को जन्म दिया है। दूसरों को प्राप्त उपहारों एवं वरदानों के कारण मनुष्य ईर्ष्या की भावना से भर जाता है तथा इस दुर्भावना से प्रेरित उसके सोच विचार उसके पतन का कारण बनते हैं। यह मानवीय स्वाभाव हम हमारे आदि माता-पिता की संतानों में भी पाते हैं। जब ईश्वर ने हाबिल का चढावा स्वीकार किया तो काइन ईर्ष्या से भर गया। ’’प्रभु ने हाबिल पर प्रसन्न होकर उसकी भेंट स्वीकार की, किन्तु उसने काइन और उसकी भेंट को अस्वीकार किया। काइन बहुत कुद्ध हुआ और उसका चेहरा उतर गया।’’ (उत्पत्ति 4:4-5) इस दुर्भावना से प्रेरित होकर उसने हाबिल की हत्या कर दी। ईश्वर द्वारा ठुकराया जाना तथा अपने भाई की भेंट सुग्राहय पाये जाने के कारण काइन बहुत उत्तेजित हो जाता है। ईश्वर ने काइन को यह कहकर समझाने की कोशिश की, ’’तुम क्यों क्रोध करते हो और तुम्हारा चेहरा उतरा हुआ क्यों है? जब तुम भला करोगे, तो प्रसन्न होगे। (उत्पत्ति 4:6-7) हालॅाकि ईश्वर द्वारा काइन का चढावा अस्वीकार करने के लिए हाबिल जिम्मेदार नहीं था, फिर भी काइन ने अपने इस अपमान, ईर्ष्या और क्रोध को हाबिल पर उतारा।

आज के सुसमाचार के दृष्टांत में दाखबारी का स्वामी सबको पूर्वनिश्चित एक समान मजदूरी देता हैं। किन्तु जिन मजदूरों ने पहले पहर से काम किया था जब उन्होंने देखा कि सभी को एक समान मजदूरी दी गयी है तो वे कुडकुडाने लगे। वे समय के अनुपात में मजदूरी चाहते थे जिससे उन्हें दूसरों से ज्यादा मिले या फिर दूसरों को उनसे कम मिले। इस दृष्टांत के माध्यम से येसु ने स्पष्ट कर दिया कि सर्वप्रथम, ईश्वर किसी के साथ अन्याय नहीं करते तथा सभी को उनका हक प्रदान करते हैं। दूसरा, ईश्वर का प्रेम सभी मानवीय गणनाओं से परे है। तीसरा, हमें पाये हुए उपहारों के लिए ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए तथा दूसरों को क्या हो रहा है या मिल रहा है इस बात को आधार बनाकर अपनी खुशी का निर्धारण नहीं करना चाहिए।

लगभग ऐसी ही भावना हम पेत्रुस में भी पाते है। येसु ने पेत्रुस को उनकी रेवड की देखभाल का महान कार्य सौंपा था। ’’मेरी भेडों को चराओ।’’ (देखिए योहन 21:15-17) किन्तु उसके तुरन्त बाद ’’पेत्रुस ने मुड कर उस शिष्य को पीछे-पीछे आते देखा, जिसे ईसा प्यार करते थे...’’। पेत्रुस को योहन का इस प्रकार प्रभु के पीछे खडा होना शायद अच्छा नहीं लगा हो या फिर ईर्ष्या की भावना उत्पन्न हुई होगी इसलिए वे प्रभु से पूछते है, ’’प्रभु! इनका क्या होगा!’’ इस प्रश्न से प्रभु येसु प्रसन्न नहीं होते। इस कारण वे पेत्रुस की बात का उत्तर न देकर उलटा उससे पूछते हैं, ’’यदि मैं चाहता हूँ कि यह मेरे आने तक रह जाये, तो इससे तुम्हें क्या? तुम मेरा अनुसरण करो। (योहन 21:21-22) दूसरों के जीवन पर नज़रे गडाये रखने से हम अपने जीवन के दानों को नज़रअंदाज कर देते हैं। पेत्रुस के साथ भी यही परेशानी थी।

नबी योना ने ईश्वर के निर्देश पर निनीवे के लोगों को पश्चात्ताप का उपदेश दिया। लोगों ने उसके उपदेश पर विश्वास करके घोर पश्चात्ताप किया। इस पर ईश्वर द्रवित हो गये और उन्होंने जिस विपत्ति की धमकी दी थी, उसे उन पर नहीं आने दिया। योना को यह बात बहुत बुरी लगी। प्रभु की इस दया के कारण योना रूठ जाता है क्योंकि ईश्वर ने निनीवे को नष्ट नहीं किया। योना के इस व्यवहार पर ईश्वर योना से पूछते हैं, ’’क्या तुम्हारा क्रोध उचित है?’’ ईश्वर योना को एक कुंडरू लता के द्वारा परिस्थितियों की वास्तविकता समझाते हैं। जब योना तेज धूप में बैठा था तो प्रभु ने उसे आराम पहुँचाने के उद्देष्य से एक कुंडरू लता उगायी। वह लता तुरंत ही उस छप्पर पर फैल गयी जिसके नीचे योना बैठा हुआ था। इससे योना को बहुत आराम पहुँचा। दूसरे दिन एक कीडा लता को काट देता है जिससे वह सूख जाती है। इससे भयंकर गर्मी पडने लगती तथा योना बेहोश हो जाता है। वह बहुत क्रोधित होकर कहता है, ’’जीवित रहने की अपेक्षा मेरे लिए मर जाना कहीं अच्छा है।’’(योना 4:8) ईश्वर योना से कहते हैं, ’’तुम तो उस लता की चिन्ता करते हो। तुमने उसके लिए कोई परिश्रम नहीं किया। तुमने उसे नहीं उगाया। वह एक रात में उग गयी और एक रात में नष्ट हो गयी। तो क्या मैं इस महान् नगर निनीवे की चिन्ता नहीं करूँ? उस में एक लाख बीस हजार से अधिक ऐसे मनुष्य रहते हैं, जो अपने दाहिने तथा बायें हाथ का अंतर नहीं जानते, और असंख्य जानवर भी।’’ (योना 4:10-11) इस प्रकार हम देखते हैं कि योना नबी होकर भी दूसरों के लिए की गयी प्रभु की दया एवं वरदानों पर ईर्ष्या करता था।

उडाऊँ पुत्र के दृष्टांत में जब पिता अपने पुत्र के लौटने पर बडे समारोह का आयोजन करता है तो उसके बडे लडके का दृष्टिकोण भी काइन, पेत्रुस, योना के समान होता है क्योंकि वह कहता है, ’’देखिए, मैं इतने बरसों से आपकी सेवा करता आया हूँ। मैंने कभी आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया। फिर भी आपने कभी मुझे बकरी का बच्चा तक नहीं दिया, ताकि मैं अपने मित्रों के साथ आनन्द मनाऊँ। पर जैसे ही आपका यह बेटा आया, जिसने वेश्याओं के पीछे आपकी सम्पत्ति उड़ा दी है, आपने उसके लिए मोटा बछड़ा मार डाला है।’’ (लूकस 15:29-30) बडे लडके को परेशानी तब होती है जब उसके भाई के लिए आनन्द मनाया जा रहा है। इससे उसकी अपने भाई के प्रति ईर्ष्या की दुर्भावना प्रदर्षित होती है।

संत पौलुस इस असमानता को ईश्वर की स्वतंत्रता तथा प्रज्ञा बताते हुये कहते हैं, ’’अरे भई! तुम कौन हो, जो ईश्वर से विवाद करते हो? क्या प्रतिमा अपने गढ़ने वाले से कहती है, ’तुमने मुझे ऐसा क्यों बनाया?’ क्या कुम्हार को यह अधिकार नहीं कि वह मिट्टी के एक ही लौंदे से एक पात्र ऊँचे प्रयोजन के लिए बनाये और दूसरा पात्र साधारण प्रयोजन के लिए? यदि ईश्वर ने अपना क्रोध प्रदर्शित करने तथा अपना सामर्थ्य प्रकट करने के उद्देश्य से बहुत समय तक कोप के उन पात्रों को सहन किया, जो विनाश के लिए तैयार थे, तो कौन आपत्ति कर सकता है? उसने ऐसा इसलिए किया कि वह दया के उन पात्रों पर अपनी महिमा का वैभव प्रकट करना चाहता है, जिन्हें अपने प्रारम्भ से ही उस महिमा के लिए तैयार किया था।’’ (रोमियों 9:20-23)

जब योहन बपतिस्ता के शिष्यों ने उनसे कहा, ‘‘गुरुवर! देखिए, जो यर्दन के उस पार आपके साथ थे और जिनके विषय में आपने साक्ष्य दिया, वह बपतिस्मा देते हैं और सब लोग उनके पास जाते हैं’’। तब योहन इस बात में ईश्वर की प्रज्ञा तथा योजना को समझते हुए कहते हैं, ‘‘मनुष्य को वही प्राप्त हो सकता हे, जो उसे स्वर्ग की ओर से दिया जाये।’’ (योहन 3:26-27) हमें भी जीवन में दूसरों की उन्नति को ईश्वर की योजना का हिस्सा मानकर ईश्वर को इसके लिए धन्यवाद देना चाहिए न कि ईर्ष्या। धर्मग्रंथ हमें सिखाता है कि ईश्वर को यह ईर्ष्या पंसद नहीं है। जैसे कि नबी इसायाह के द्वारा ईश्वर कहते हैं, ’’तुम लोगों के विचार मेरे विचार नहीं हैं और मेरे मार्ग तुम लोगों के मार्ग नहीं हैं। जिस तरह आकश पृथ्वी के ऊपर बहुत ऊँचा है, उसी तरह मेरे मार्ग तुम्हारे मार्गों से और मेरे विचार तुम्हारे विचारों से ऊँचे हैं।’’ (इसायाह 55:8-9) आइये हम भी दूसरों के प्रति अपने जीवन के दृष्टिकोण को बदले तथा उन्हें ईश्वर के विचार के अनुसार ढालें। ऐसा करने से हमारा जीवन भी शांत, सौम्य एवं सरल बन जायेगा।


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