चक्र अ के प्रवचन

वर्ष का इकतीसवाँ इतवार

पाठ: मलाकी 1:14ब-2:2ब,8-10; 1 थेसलनीकियों 2:7ब-9,13; मत्ती 23:1-12

प्रवाचक: फ़ादर ईश्वरदास मिंज


आज के पाठ कलीसिया के धार्मिक नेताओं की और इंगित करते हैं। हम जानते हैं, ईश्वर चाहते हैं कि हम एक परिवार के रूप में मुक्ति पाएं। किसी समाज को सफलतापूर्वक संचालित करने के लिए शासकों की ज़रूरत होती है और शासितों की भलाई के लिये समाज के लोग मिलकर शासकों को नियुक्त करते हैं। कहने का तात्पर्य है कि शासक और शासित दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। शासक वर्ग अपनी जनता के कल्याण का ख्याल करते हैं और जनता को उन के इस काम में उनके साथ सहयोग करना है। काम गलत चलता है तो शासक और प्रजा दोनों ही प्रताड़ित होते हैं। 

यह बात कलीसिया के साथ पूर्ण रूप से मिलती-जुलती है। कलीसिया में लोक धर्मी और धर्म के अगुवे दोनों ही मुक्ति के कार्य के लिए प्रयास कर रहे हैं। दोनों में से कोई भी दल अकेला मुक्ति नहीं पा सकेगा। कई गैर-खीस्तीयों एवं खीस्तीय लोगों तक का सोचना है कि कलीसिया संत पापा, धर्माध्यक्ष, पुरोहितों और तालिम शिक्षक-शिक्षिकाओं की है। 

आज के पाठों को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है, कि आज के तीनों पाठ हमारे पुरोहितों के लिए हैं न कि लोकधर्मियों के लिए। पाठों के शब्द बहुत कठोर हैं। जो पुरोहित (याजक) अपनी बुलाहट के प्रति जिम्मेदार न होकर लापरवाही बरतते हैं, उन्हें आज के पाठों में कठोरतम् शब्दों के द्वारा चेतावनी दी गयी है। यदि हम अच्छी तरह से गौर करें, तो इन पाठों में जितनी याजकों को चेतावनी दी गई है, उतनी ही लोकधर्मियों को भी। पवित्र स्थलों की तीर्थ यात्रा करना, उच्च शिक्षा प्राप्त करना, लोगों के कल्याण के लिए काम करना, समाज कल्याण संस्था चलाना, शिक्षण संस्थान चलाना आदि हमें मुक्ति दिलाने के लिए काफी नहीं है। कई लोग सोचते हैं कि मैं रोज गिरजा जाता हूँ। चर्च के सब कार्यक्रमों में भाग लेता हूँ। इसलिए मुझे मुक्ति मिल जायेगी। और फिर कोई सोचता है कि मैं चर्च में दान-दक्षिणा करता हूँ। इसलिए मुझे मुक्ति मिल जायेगी। इस प्रकार तो येसु खीस्त के समय में शास्त्री एवं फ़रीसी भी मूसा के नियमों के अनुसार दशमांश चुकाते थे, किन्तु येसु खीस्त ने उनके जीवन को सुसमाचार के अनुकूल याने कि ईश्वर के वचन के अनुसार नहीं पाया और उन्हें धिक्कारते हुए डाँटा (लूकस 11:42)। न तो सुसमाचार का प्रचार करना और न ही सुसमाचार को सुनना ही स्वर्ग राज्य की गारन्टी है। यदि मुक्ति प्राप्त करना है, तो हमारे जीवन को हम जो सुसमाचार प्रचार करते और सुनते हैं उसके अनुकूल बनाना चाहिए। 

नबी मलाकी का जीवनकाल प्रभु येसु के जन्म से करीब पाँच सौ वर्ष पूर्व था। जब उन्होंने अपना ग्रंन्थ लिखा तब यहूदियों के निर्वासन से लौटने के सत्तर साल बीत चुके थे। निर्वासन से लौटने के शुरूआती वर्षों में यहूदियों ने पवित्र जीवन व्यतीत किया। क्योंकि निर्वासन से छुड़ाने के लिये वे ईश्वर के बहुत आभारी थे। परन्तु जैसे-जैसे समय बीतता गय वे पथभ्रष्ट होते गये। इसके प्रमुख कारण उस समय के पुरोहितों का अपवित्र व्यवहार, अयोग्य रीति से पूजा-पाठ और असक्षम नेतृत्व माने जाते हैं। नबी मलाकी ने पुरोहितों के लिए एक घोर संकटमय समय की घोषणा की। किन्तु ईश्वर का प्रेम असीम है। अतः उन्होंने मलाकी के मुख से यह भी घोषणा की कि एक दिन आएगा, जब एक बिलकुल ही सुयोग्य पूजा-पाठ की स्थापना की जाएगी जिससे न केवल यहूदी किन्तु सब राष्ट्र बच जायेंगे। 

आज के सुसमाचार से हमें यही प्रतीत होता है कि नबी मलाकी के समय में धर्म के अगुवे जो कर रहे थे वही येसु खीस्त के समय के धार्मिक नेता भी कर रहे थे। प्रभु ने पाया कि वे मूसा के दिये गये नियम के अतिरिक्त अपनी ओर से नियम बनाकर लोगों पर बोझ लाद रहे थे। जो उपदेश वे दे रहें थे उसका पालन खुद नहीं कर रहे थे और वे घमण्ड से ओत-प्रोत थे तथा हमेशा सम्मान पाना चाहते थे। शास्त्री और फ़रीसी लोगों को अच्छी-अच्छी शिक्षा देते थे परन्तु वे खुद उन शिक्षाओं का पालन नहीं करते थे। इसलिये प्रभु को लोगों से यह कहना पड़ता है कि उन्हें धार्मिक गुरुओं की शिक्षाओं का पालन करना चाहिये परन्तु उनके उदाहरण का अनुकरण नहीं करना चाहिये। 

कथनी और करनी का अंतर कोई पुरानी बात नहीं है। जब शिक्षा का पालन आसानी से हो सकता है तब कथनी और करनी में ज्यादा अंतर शायद ही दिखता है। परन्तु जब किसी शिक्षा का पालन करना मुष्किल हो जाता है तो यह अंतर बढ़ता जाता है। प्रलोभन का तर्क यही है। ईश्वर हमसे चाहते हैं कि हम सारी मानव जाति की ओर हमारी जिम्मेदारी को सही ढ़ंग से समझ लें और एक-दूसरे की सेवा करें। जो शासक होते हैं उन्हें शासितों की भलाई के लिये हर संभव प्रयत्न करना चाहिये। ये कोई आसान बात नहीं है। किसी भी शासक को अपनी जिम्मेदारी निभाने हेतु कुछ अधिकार भी दिये जाते हैं। इस अधिकार का इस्तेमाल उसे अपने कर्त्तव्यों के निर्वाह के लिये करना चाहिये। अगर वह ऐसा करे तो वह एक अच्छा शासक माना जायेगा। किन्तु अगर वह अपने अधिकार को अपने स्वार्थ लाभ के लिये इस्तेमाल करे तो शासित जनता उसे पसंद नहीं करेगी।

महान व्यक्तियों की जीवनी इस सच्चाई को हमारे समाने रखती है। अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति इब्राहिम लिंकन इसका एक अच्छा उदाहरण हैं। उन्होंने अपने अधिकारों का सच्चा उपयोग करके अमेरिका में गुलामी की प्रथा का अंत किया। 

इस अवसर पर हम बडे़-बड़े अधिकारियों के बारे में सोचते हैं। लेकिन वास्तव में हम सब किसी न किसी प्रकार, किसी न किसी स्तर पर तथा किसी न किसी मात्रा में अधिकार का उपयोग करते हैं। माता-पिता अपने परिवार में, शिक्षक पाठ शाला में, अफसर दफ्तरों में, अधिकारों का उपयोग करते हैं। अधिकारी शिक्षा देते हैं और आज्ञापालन चाहते हैं। जब शिक्षा अधिकारी के जीवन में झलकती है तो शिक्षित आसानी से अधिकारी की आज्ञाओं का पालन करने लगते हैं। ये सब हमें यह सिखाता है कि हम सबको बोलने से ज्यादा करने पर ज़ोर देना चाहिये। शायद आज का सुसमाचार हम सब से यह आशा रखता है कि हम अच्छी-अच्छी शिक्षाओं को अपने जीवन में ढ़ालें और जिनके ऊपर हमारा किसी प्रकार का अधिकार है उनके लिये अपने मन, वचन एवं कर्म से आदर्ष प्रस्तुत करें।


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